श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! चिन्मय वृन्दावन – “उद्धव प्रसंग 7” !!
भाग 2
मैं चौंक गया…..तभी दूसरे ही क्षण मेरी पीताम्बरी “कदम्ब” में उलझ गयी थी , ….और वो कदम्ब भी यही पूछ रहा था …..”श्याम कहाँ” ।
पुष्प झरनें लगे थे मेरे ऊपर…..और सबका यही प्रश्न था – “श्याम कहाँ हैं” इतना ही नही अब तो पक्षी आगये थे …..तोता मैना कोयल सब आकर मेरे रथ के आगे पीछे मण्डरानें लगे थे ……..कहाँ हैं श्याम !
सब का यही प्रश्न था …………जब मैने कोई उत्तर नही दिया …..तो सब नें एक साथ मुझसे पूछा ……….मेरी बुद्धि कुछ समझ न पा रही थी……..उसको कुछ सूझ नही रहा था ……….तब मैने खड़े होकर वृन्दावन से कहा …………”श्याम नही आये” ।
बस – पक्षी कहाँ चले गए पता नही, तृण सूखे दिखाई देनें लगे क्षण में ही मानों ऐसा लगा की दावानल लग गयी है अभी अभी और सब कुछ जल कर राख हो गया हो……पुष्प सूख गए थे…….लताएँ बस नाम मात्र के लिए हरी थीं ……..पवन में वैसी शीतलता अब नही रही थी ।
अब तो ऐसा लग रहा था मानों वृन्दावन रो रहा है……..उसका अणु अणु “श्याम श्याम श्याम” कहते हुए विलाप कर रहा है ……..मैने रथ को रोक लिया ……..वहीं कुछ समय के लिये बैठा रहा ।
अन्धड़ चल पड़ा था अब …….वियोग की अग्नि में जल रहा था ये वन ……अभी अभी जो वन सुरों के वन को भी लज्जित करनें वाला था वही “श्याम नही आये” सुनकर श्रीकृष्ण वियोग की भीषण ज्वाला में धधक उठा था …..।
लम्बी साँस खींची उद्धव नें ……फिर आह भरते हुए बोले ……ये वृन्दावन की स्थिति थी……फिर ग्वालों की , गोपियों की, मैया बाबा , श्रीराधा रानी इनका वर्णन तो असम्भव ही है……..हंसे उद्धव ……तात ! मेरा “ज्ञान गर्व” तो यहीं से गलित होना शुरू हो गया था …….मैं बहुत देर तक वृन्दावन को देखता रहा ।
.”मथुरा में कैसा है मेरा श्याम”…….ये प्रश्न इस वन के अधिदैव की थी अब …..यानि वृन्दा देवी की………मैं रथ में उठकर खड़ा हो गया…..”ठीक हैं”……मैं इतना ही बोल सका । पर ये क्या आकाश में बादल में छा गए थे एकाएक और वर्षा होनें लगी थी……..यहाँ ऋतुएँ क्षण क्षण में बदल रही थीं ……….ये क्या है ? ये वर्षा क्यों ? “ये वृन्दा देवी के आँसू हैं”…………ये बात किसनें कही मुझे पता नही चला …….पर किसी वृक्ष या लता नें ही ये कहा था………उफ़ !
सच ! इस प्रेम नगरी की डगर बहुत कठिन थी……ज्ञान सरल है पर ये प्रेम बड़ा कठिन है ……फिर इस प्रेम नगरी की बात, वहाँ तो बुद्धि से नही चला जा सकता था …….वृन्दावन ! वृन्दावन ! मेरो वृन्दावन !
और मैं क्या कहूँ तात !
शेष चरित्र कल –
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