आनंद के कुछ भाव होते है – “रति”, “प्रेम”, “स्नेह”, “प्रणय”, “राग”, “अनुराग”, “भाव” फिर “महाभाव”.
- रति – जब चित्त में भगवान के सिवा अन्य किसी विषय की जरा भी चाह नहीं रहती ,जब सर्वेन्द्रिय के द्वारा श्रीकृष्ण की सेवा में ही रत हुआ जाता है, तब उसे “रति” कहते है.जब रति में प्रगाढ़ता आती है तो उसे प्रेम कहते है.
- प्रेम – प्रेम में अनन्य ममता होती है सब जगह से सारी ममता निकलकर यह भाव हो जाए कि “सर्वज्ञ”, “सर्वदा” और “सर्वथा” एकमात्र श्रीकृष्ण के सिवा और कोई मेरा नहीं है, इसी का नाम “प्रेम” है.जब प्रेम में प्रगाढ़ता आती है तो उसे स्नेह कहते है.
स्नेह हम लोग छोटे के प्रति होने वाले, बडो के वात्सल्य को स्नेह कहते है, पर यहाँ चित्त कि द्रवता का नाम “स्नेह” है.जो केवल भावान्वित चित्त होकर अपने प्रीतम के प्रेम में द्रवित रहता है, उस द्रवित चित्त कि स्थिति का नाम स्नेह है.जब स्नेह में प्रगाढ़ता आती है, तब स्नेह की मधुरता का विशेष रसास्वादन करने के लिए भाव जाग्रत होता है वह मान कहलाता है.
3.मान – इस मान में, और जगत के मान में बहुत अंतर है. जगत का मान तो त्यागने योग्य है.परन्तु यह मान परम मधुर बड़ा पवित्र है,और राधारानी जी के इस मान का सम्मान करने के लिए श्यामसुन्दर अपनी प्रेमाश्रुधारा से राधारानी की पाद पदों को पखारते है. जैसे – गंगा जी है, उनके प्रवाह में तनिक सी बाधा आ जाए,तो वे उद्दीप्त गर्व से उच्छवसित हो उठती है.और अंत में सागर में सम्मिलित हो जाती है.श्रीराधारानी जी का प्रेम भी मान से उच्छवसित होकर शेष में कल्हांतर के पश्चात मधुरतम श्याम सागर में मिलकर आत्म समर्पण कर देता है.
जब ये मान प्रगाढ़ होता है तब “प्रणय” होता है उस्में विश्रम्भ होता है.जो दो रूपों में अभिव्यक्त होता है १.- मैत्र और २.- सख्य.
�4. प्रणय – विनययुक्त विश्रम्भ को “मैत्र” और भयहीन विश्रम्भ को “सख्य” कहते है इन दोनों में बड़ा अंतर है. मैत्र में विनय निवेदन है मित्र अपमान नहीं करता अपने मित्र का. पर सख्य में ऐसा नहीं है.सख्यभाव में व्रजसखा श्रीकृष्ण का पद पद पर अपमान करते है.
एक बार व्रज सखा कहने लगे- “न्यारी करो हरि आपनि गैया न हम चाकर नन्द बाबा के ना तुम हमरे नाथ गुसैया” और जब इस प्रणय में प्रगाढ़ता आती है तब उसका फल है राग.
- राग – जब अपने प्रियतम के लिए प्राप्त होने वाले महान दुःख भी सुख रूप में भासते है, दीखते है, इसी का नाम “राग” है.लेकिन यह विषयानुराग नहीं है.जैसे एक बार जब ज्येष्ठ मास का मध्यानकाल था श्रीराधा रानीजी को पता चला कि श्याम सुन्दर गोवर्धन पर विराज रहे है. वे नंगे पैरों जलती हुई भूमि पर चली, इसलिए क्योकि मिलने से श्रीकृष्ण को सुख होगा.अपने सुख के लिए नहीं.ये है राग, और इसके बाद है अनुराग.
- अनुराग – इसमें प्रियतम की नित्य नए-नए रूप में अनुभूति होती है.क्षण-क्षण में नए-नए अनुराग की वृद्धि होती है.नया मकान, नया बगीचा, नया प्रेमी, नयी प्रेमिका, नया वस्त्र, नयी गाडी, भी अनुराग है. पर उनके स्थायी हो जाने पर वह अनुराग घट जाता है.मिट जाता है. जैसे-जैसे गाडी, मकान, पुराना को जाता है उनके प्रति आकर्षण भी कम हो जाता है,कोई प्रेमी प्रेमिका से बहुत प्रेम करता है विवाह भी हो गया, अब यदि किसी दिन बहुत जरुरी काम कर रहा है और प्रेमिका पास आकर प्रेम भी दिखाने लगे, तो कह देता है अभी मै बहुत जरुरी काम कर रहा हूँ,अर्थात अब तक जो सबसे महत्वपूर्ण थी, अब उसके साथ रहने पर उससे भी महत्वपूर्ण कोई दूसरा काम हो गया, अनुराग घट गया.अनुराग तो है पर पहले जैसी बात कहा. एक बार ललिताजी राधा रानी जी का श्रृंगार करती है,तो राधारानी जी कहती है – ललिता! अब और देर मत करो, मुझे उनका प्रथम रूप देखने दो,क्योकि ललिता जी ही राधा माधव का मिलन कराती है,यहाँ “प्रथम” शब्द आया है इसका क्या अर्थ है क्योकि राधा जी ने तो अनेको बार श्रीकृष्ण को देखा है, फिर प्रथम क्यों कहा ?
क्योकि जैसे ही राधारानी जी श्रीकृष्ण के दर्शन करती है तो उसके पहले जब दर्शन किया था वह विस्मृत हो जाता है और उन्हें तो हर बार दर्शन करने पर कृष्ण नव-नवयमान दिखाई देते है.पहले किस कृष्ण को देखा पता नहीं.अब जिसको देख रही है वे तो एकदम नव नवयमान है.
इस प्रकार नित्य नया रस, नित्य नया प्रेम, नित्य नया आनंद, इस लीला-विलास का नाम “अनुराग” है.जब इसमें प्रगाढता आती है.तब भाव कहलाता है.जब भाव पूर्ण को प्राप्त हो जाता है तब वह महाभाव बन जाता है.यह महाभाव ही राधा का स्वरुप है यह महाभाव ही गोपी उपासना कि पद्धति है यही गोपी उपासना का प्राण है और इसी का आश्रय लेकर श्री कृष्ण तृप्त रहते है.
Jskg..


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