श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! पाण्डित्य जब गलनें लगा – “उद्धव प्रसंग 12” !!
भाग 1
रुदन, अश्रु प्रवाह, कराह, …….उफ़ ! मैं क्या कहूँ इन बाबा और मैया से ? मुझे मेरे स्वामी नें यही कहकर भेजा था कि उद्धव ! तू ज्ञानी है …समझाना मेरे मैया और बाबा को …….पर मैं क्या कहूँ ? मेरे पास शब्दों का इतना अकाल कभी नही पड़ा था…….ये क्या हो रहा है मुझे ।
उद्धव नें इस प्रसंग को आगे बढ़ाते हुये विदुर जी से कहा ……..
तात ! मैं अपनें आपको कितना निरीह समझनें लगा था …….भले ही मैं बृहस्पति का शिष्य था …..बुद्धिमानों में सर्वश्रेष्ठ था …..ज्ञान में मेरे सामनें कौन टिक सकता था …….पर यहाँ ? क्या कहूँ मैं ? बाबा नन्द निरन्तर रोते जा रहे हैं ………मेरा श्याम , मेरा कन्हैया !
तात ! मैं जब मथुरा से चला था तब मैने वृन्दावन को लेकर एक धारणा बना ली थी….कि मैं ये कहूँगा ……या वो कहूँगा ………वो लोग रोयेंगे तो मैं इस तरह से समझाऊंगा……ये कहकर सांत्वना दूँगा ।
मैं सोचनें लगा ……..कि मथुरा से चलते समय क्या सोचा था मैने …….हाँ ………..मेरे मन में वो बात आगयी थी …. ……..अब मैं वही बात दोहराऊँगा ………मैं तन कर अब बैठ गया था ….मेरुदण्ड सीधा करके बैठा ……..मेरे सामनें बृजराज बाबा और मैया बृजरानी बैठी थीं ……. सुबुकना उनका चल ही रहा था ।
हे महामना नन्द जी ! और मैया यशोदा ! मैं कुछ कहना चाहता हूँ ….
मेरे ये कहते ही दोनों नें मेरी ओर इस तरह से देखा जैसे बालक को उसके माता पिता देखते हैं ……………
मैया तो मेरी पीताम्बरी को ही देखती थी …………बाबा मेरी बातों को सुन रहे थे ………………
हे पूज्य बाबा नन्द जी ! आप ऐसे मत रोइये ……….इस तरह से विचलित होना आपको शोभा नही देता ……..आप गम्भीर हैं …….आप बुद्धिमान हैं ………..श्रीकृष्ण को लेकर आप जो इतना विलाप कर रहे हैं …..ये उचित नही है !
मैं जैसे तैसे इतना बोल सका था……..मेरी बातों को मैया कहाँ सुन रही थीं……उनका तो मेरे बोलनें कि भंगिमा पर ही ध्यान था ……उन्हें लग रहा था मैं उनके कन्हैया कि तरह ही बोलता हूँ…….मैं क्या बोल रहा था ……इससे मैया को कोई मतलब नही था ।
श्रीकृष्ण कौन हैं आपको पता है ? मैने मैया बाबा से पूछा ।
कौन है ? बाबा नें प्रतिप्रश्न किया ।
वो भगवान है ……….ब्रह्म , परमात्मा या भगवान कुछ भी कहो श्रीकृष्ण वहीं हैं……….और बाबा ! आपको तो पता ही है भगवान के कौन माता पिता ! कौन भाई ! कौन मित्र ! क्यों कि ये समस्त जगत उसी का है …….सब उसके हैं……..आप ही नही जीव चराचर सब उसके हैं ।
मैया तो मेरी पीताम्बरी से कभी कभी दृष्टि ऊपर उठाती थी ………..पर बाबा मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे……….श्रोता का ध्यान हो तो वक्ता फिर और उत्साह से बोलता है …….बाबा का ध्यान जब मैने अपनी बातों पर पाया …..तो मैं और उत्साह से बोलनें लगा था ।
श्रीकृष्ण सर्वात्मा हैं ……सर्वेश्वर हैं ……….सब जगह हैं सर्वत्र हैं और सर्वदा हैं ……..मैने जो जो गुरु बृहस्पति से पढ़ा था वो सब मैं बघारनें लगा……..वही श्रीकृष्ण आपके हृदय में भी हैं ……….
हम क्या करें फिर ? बृजराज बाबा नें मुझ से पूछा ।
आप श्रीकृष्ण को भूल जाएँ…………मेरे मुँह से निकल गया ।
क्या ? नन्दबाबा चौंके मेरी बात सुनकर ।
क्या मैने कुछ गलत कह दिया था ! मैं सोचनें लगा ।
पर विदुर जी ! अब नन्द बाबा बोले थे …….वो जो बोले ……उससे मेरे अंदर का जितना पाण्डित्य था सब गल गया…………मैं बृहस्पति का शिष्य ! और ये लोग बृजवासी ! वन में रहनें वाले ……….पर !
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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