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September 14, 2025 1:43 am

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! भ्रमर और श्रीराधा – “उद्धव प्रसंग 16” !!-भाग 1 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्-!! भ्रमर और श्रीराधा – “उद्धव प्रसंग 16” !!-भाग 1 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्

!! भ्रमर और श्रीराधा – “उद्धव प्रसंग 16” !!

भाग 1

प्रेम विलक्षण तत्व है……प्रेम सर्वोच्च सत्ता है ।

मैं कहाँ इस प्रेम नगरी वृन्दावन में अपनी ज्ञान की गठरी लेकर चला आया था……सोचा था शिष्य बनाऊँगा इन लोगों को …..सोच कर आया था……ज्ञान की ऐसी शिक्षा दूँगा कि ये सब कुछ भूल जाएँगी…….कैसी सोच थी मेरी यहाँ के प्रति……..ये सब कुछ भूल जाएँगी ? और मैं इन्हें शिक्षा दूँगा ! वो भी ज्ञान की शिक्षा ?

जिन अनेक गोपियों के मध्य विराजमान श्रीराधिका जी हैं …..उनकी स्थिति ! तात ! क्या बताऊँ मैं वहाँ के बारे में !

उद्धव की वाणी आज लड़खड़ा रही है……..वो जिस दृश्य का वर्णन करना चाहते हैं……जो उन्होंने देखा था…….वो अनिर्वचनीय था, उसका वर्णन कैसे किया जाये ! पर बिना कहे अब रहा भी तो नही जायेगा ।

उफ़ ! ये प्रेम है ही ऐसा …….क्या करें ।


हट्ट ! हट्ट ! हट्ट !

    वो भ्रमर ......वो भौंरा  .......गुन गुन गुन करता हुआ    श्रीराधा जी के पास आनें लगा .........वो पास आता है ......मुखारविन्द के पास मंडराता है ......फिर  चरणों में गिर पड़ता है ।

तब श्रीराधा जी कहतीं हैं – हट्ट हट्ट हट्ट !

तात ! मैं तमाल के झुरमुट में छिपा हुआ था ….और वहीँ से इन प्रेममई गोपियों की चेष्टाओं को देख रहा था ……..पर ये भ्रमर को तो श्रीराधारानी भगा रही थीं ………वो बारबार जा भी रहा था तो श्रीजी के ही चरणों में…….हट्ट ! हट्ट ! दृष्टि उठाई श्रीराधा जी नें और भ्रमर की ओर देखा…….अद्भुत रूप था उनका…….पर भ्रमर को देखते ही वो हँसनें लगीं थीं…..प्रेम समाधि की स्थिति उनकी तत्क्षण हो गयी थी ।

ढीढ ! हट्ट हट्ट ……………

गुन गुन गुन ( पर मुझे भगा क्यों रही हो ) भौरें नें मानों पूछा ।

तू कपटी का मित्र है ……मैं सब समझती हूँ ………तुझे क्या लगा मै पहचानूँगी नही ? हट्ट ! श्रीराधा जी प्रेम की उच्चावस्था में बोलीं ।

गुन गुन गुन …..( पर वे तो आपके प्रियतम हैं …….उन्हें आप कपटी क्यों कह रही हो ) मानों भौरें ने फिर पूछा था ।

हा हा हा हा हा ………हंसीं श्रीजी …….तू तो उनका ही मित्र है ना इसलिये तू उनका ही पक्ष लेगा ………..पर मैं अब कान पकड़ती हूँ कपटी को कभी मुँह नही लगाउंगी……..इतना कहते हुये श्रीराधारानी अपनें कान पकड़नें लगती हैं ।

गुन गुन गुन ……( पर वे कपटी कैसे हुए….और मैं कैसे ? )

भौरे ! तू जिस फूल में बैठता है उसका रस खींच कर तू चला जाता है ………उस फूल पर क्या गुजरती है कभी सोचा ? भौरें ! तू हमें हृदयहीन लगता है ……..दया कुछ है कि नही ? अपनी अपनी ही सोचता है …..रस से पेट भर गया तो फूल को छोड़ दिया …………

तू उन्हीं का मित्र है ……….हाँ पक्का तू उन्हीं का मित्र है ……

वो काले तू काला , कपटी वो, तो तू भी कपटी ……..फूलों के रस को निचोड़कर उसे छोड़ देना ये तेरी भी आदत ………ये आदत उनकी है …..पुरानी आदत है उनकी………प्रेम करना ……..फिर अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से फंसा लेना…….फिर उसको ऐसे छोड़ देना जैसे वे जानते ही नही ……..हट्ट ! तू जा यहाँ से भौरें !

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –

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