श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! महाभाव के समुद्र में… – “उद्धव प्रसंग 19” !!
भाग 1
महाभाव के साकार रूप को मैने अपनी इन आँखों से देखा …….
वो महाभाव का समुद्र , जिसमें विरह और मिलन की ज्वार भाटायें निरन्तर निकलती रहती थीं…… कुछ पल के शान्त हो जातीं …..पर फिर वही स्वरूप !……मैं उद्धव, माना बृहस्पति का शिष्य था ..बुद्धि सत्तम भी था …..तर्क शीलता मुझ में कुछ ज्यादा ही थी …..पर यहाँ न गुरु बृहस्पति का ज्ञान काम आरहा था …..न तर्क शीलता …….मेरी तर्क करनें की क्षमता ही खतम हो गयी थी….वो महाभाव स्वरूपा ! श्रीराधा रानी ।
उद्धव विदुर जी से बोले थे ।
भ्रमर तो जा चुका था……..पर श्रीराधारानी अभी भी भाव सिन्धु में ही अवगाहन कर रही थीं ……….उन्हें कुछ भान नही था ……..पर मैं अब तमाल वृक्ष के झुरमुट से बाहर निकला ………समस्त गोपियों नें मेरी ओर देखा था ……….और आश्चर्य करनें लगीं ……………
कोई कह रही थी …….श्याम सुन्दर जैसा है ना ! अरे ! इसकी पीताम्बरी तो देखो हमारे श्याम की तरह है ………..इसकी मुस्कुराहट भी तो……….मैं आगे बढ़ता गया ……….पास में जाकर मैने सबको प्रणाम किया ……….पर मेरे प्रणाम की ओर किसी का ध्यान नही था ………..सब कह रही थीं ………दूत है श्याम का …………तो दूसरी गोपी व्यंग कर रही थी ……….स्वयं थोड़े ही आएंगे अब दूत भेजनें लगे …….राजा बन गए हैं ना इसलिये !
पर मैनें श्रीराधारानी को हाथ जोड़ते हुये कहा …………हाँ , मैं श्याम सुन्दर का ही दूत हूँ उद्धव मेरा नाम है और मैं सन्देश लाया हूँ !
श्याम सुन्दर का दूत उद्धव ! श्रीराधिका जु नें दृष्टि ऊपर उठाई थी ………मुझे देखा था ………फिर आश्चर्य से मुझ से पूछनें लगीं ……..सन्देश ? पर किसका सन्देश !
आपके श्यामसुन्दर का …….मैने कहा ।
वो सुकुमार प्रिया जु तो हंसनें लगीं ……….मेरे श्याम सुन्दर ? मेरे श्याम सुन्दर तो कहीं गए ही नही हैं …………देखो ना गोपियों ! समझाओ इसे ………सन्देश उसका होता है …..जो परदेश गया हो ….दूर गया हो ……पर मेरे प्रियतम तो मेरे पास में हैं ……..मेरे तन से मन से हृदय से जुड़े हैं ……….मेरे नयनों के सामनें ही रहते हैं वो …….
कुछ देर चुप रहीं फिर एकाएक बोल उठीं………….वो देखो ! देखो ! उठकर खड़ी हो गयीं श्रीजी, दीखे तुम्हे मेरे प्रियतम ! वो देखो ! कदम्ब वृक्ष के नीचे खड़े हैं और बाँसुरी बजा रहे हैं ……..मुझे बुला रहे हैं …….ये कहते हुए हंसनें लगीं श्रीराधारानी ……….वो देखो !
मैं देखनें का प्रयास करनें लगा ……उचक उचक कर दूर भी देख रहा था शायद हों ………मैं देख रहा था …..पर मुझे कहीं दिखाई नही दिए ।
दीखे ? श्रीराधारानी नें मेरी ओर मुड़कर फिर पूछा ।
नही ! मैने सिर हिलाया ।
फिर जब उसी जगह श्रीराधारानी नें देखा तो ………….
“वो चले गए” श्रीराधारानी तो कातर हो उठीं क्षणों में ही ।
ओह ! बहुत बड़ा अपराध हो गया मुझ से……….अपना सिर पीट रही थीं ………….उद्धव ! वो मुझ से कहते थे …..बारबार कहते थे कि तुम्हारी और हमारी बातें हैं ये ……किसी ओर को मत कहना ………पर मैं बाबरी……..कह देती हूँ…….अब देखो ! तुम्हे बताया तो बुरा मान गए वो चले गए ……रिसाय के चले गए…….अब कैसे मनाऊँ मैं उन्हें …….रोनें लगीं श्रीराधारानी…..
पर हे कृष्णप्रिये ! वो तो मथुरा गए हैं । मुझे कहना पड़ा ।
मथुरा गए ? नही नही मथुरा नही जा सकते वो ………वो मुझे कैसे छोड़ सकते हैं ! मुझे प्यारी , प्राण बल्लभा , हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी कहते नही थकते थे ………..मैं तुम्हे नही छोड़ सकता हे राधे ! ऐसा कहते थे वो …..बारबार कहते थे ……..फिर मुझे कैसे छोड़ देंगे ?
मैं क्या कहता ! उस समय मेरी वाणी भी अवरुद्ध हो गयी थी ।
कुछ समय लगा – पर मैने पूर्व में ही कह दिया है …….ये महाभाव का समुद्र है ….इसमें निरन्तर विरह और मिलन की ज्वार भाटा आती जाती रहती हैं ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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