श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! महाभाव के समुद्र में… – “उद्धव प्रसंग 19” !!
भाग 2
फिर जब उसी जगह श्रीराधारानी नें देखा तो ………….
“वो चले गए” श्रीराधारानी तो कातर हो उठीं क्षणों में ही ।
ओह ! बहुत बड़ा अपराध हो गया मुझ से……….अपना सिर पीट रही थीं ………….उद्धव ! वो मुझ से कहते थे …..बारबार कहते थे कि तुम्हारी और हमारी बातें हैं ये ……किसी ओर को मत कहना ………पर मैं बाबरी……..कह देती हूँ…….अब देखो ! तुम्हे बताया तो बुरा मान गए वो चले गए ……रिसाय के चले गए…….अब कैसे मनाऊँ मैं उन्हें …….रोनें लगीं श्रीराधारानी…..
पर हे कृष्णप्रिये ! वो तो मथुरा गए हैं । मुझे कहना पड़ा ।
मथुरा गए ? नही नही मथुरा नही जा सकते वो ………वो मुझे कैसे छोड़ सकते हैं ! मुझे प्यारी , प्राण बल्लभा , हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी कहते नही थकते थे ………..मैं तुम्हे नही छोड़ सकता हे राधे ! ऐसा कहते थे वो …..बारबार कहते थे ……..फिर मुझे कैसे छोड़ देंगे ?
मैं क्या कहता ! उस समय मेरी वाणी भी अवरुद्ध हो गयी थी ।
कुछ समय लगा – पर मैने पूर्व में ही कह दिया है …….ये महाभाव का समुद्र है ….इसमें निरन्तर विरह और मिलन की ज्वार भाटा आती जाती रहती हैं ।
तुम सत्य कह रहे हो उद्धव ! श्रीराधारानी कुछ समय के बाद बोलीं थीं…..हाँ …….वो चले गए……..हमें अनाथ करके चले गए श्याम सुन्दर…….देखो ! मधुवन कैसा हरा भरा है……और हमारा ये वृन्दावन ऐसा लग रहा है जैसे दावानल में सबकुछ जल कर भस्म हो गया हो ।
उद्धव ! वो हमें तड़फा रहे हैं…….वो हमें चिढ़ा रहे हैं ……..कहीं हमसे रूठ तो नही गए ? मना लेंगी उन्हें हम……..पर कैसे ?
फिर श्रीराधारानी के मुखारविन्द में एक प्रकाश सा छा गया ……..प्रसन्नता फ़ैल गयी ……
मैं भी कितनी बाबरी हूँ उद्धव ! अरे ! मैने ही तो देवी देवताओं से माँगा था , यही वरदान !
उद्धव ! सुनो ! एक घटना सुनाती हूँ ।
तात ! श्रीराधारानी नें मुझे एक घटना सुनाई ……भाव समुद्र में आया एक और ज्वार …………….
उद्धव ! जब भी देखो श्याम सुन्दर मेरे आगे पीछे घूमते रहते थे …..आये दिन बरसाना में ही पड़े रहना ………..प्यारी ! मेरी किशोरी ! मेरी प्राण ! बस मेरे चिबुक को पकड़ कर यही बोलते रहते थे ………
मैं उनसे कहती थी …..श्याम सुन्दर ! आप कितनें सुन्दर हो …….पर मैं राधा कहाँ सुन्दर हूँ ………और मैं आपको दुःख भी देती रहती हूँ ……..मानिनी बन जाती हूँ …….फिर मुझे मनानें के लिये आपको कितना श्रम करना पड़ता है ………..हे नाथ ! आप मुझ से दूर चले जाओ …..ताकि आपको सुख मिल सके ……..मैं रहूँगी तो आपको सुख नही दुःख ही दूँगी ………..आप जाओ ! मुझ से दूर जाओ ।
उद्धव ! मैं नित्य कहती थी उनसे………..वो मानते नही थे ……पर एक दिन एक देवी की मैनें आराधना की …………और उनसे मैं माँग रही थी कि मेरे प्राण धन श्याम सुन्दर को मुझ से दूर कर दो ………मेरी प्रार्थना सुन ली उस देवी नें ………..देवी के साथ साथ श्याम सुन्दर भी मुझ से मिलनें उसी मन्दिर में आये थे उन्होंने भी सुन ली ……दुःखी हो कर वो भी निकल गए ……….और गए मथुरा !
उद्धव ! अच्छा हुआ वो गए …………अब बताओ वो सुखी होंगें ना ! बिल्कुल होंगें ! हमारी तरह थोड़े ही होंगी वहाँ की नारियाँ …..कितना ध्यान रखती होंगी हमारे श्याम का ……….सुखपूर्वक सोते होंगे वहाँ …..चरण दवाती होंगीं वहाँ की नागरी …………हमसे तो ज्यादा ही सुन्दर होंगी वो सब ……………..अब उन्हें दुःख नही मिलेगा ……वो सुखी रहें ……वो प्रसन्न रहें ।
ये कहते हुये श्रीराधारानी फिर रोनें लगीं ……..
पर क्या करें उद्धव ! ये हृदय है ना ! ये मानता नही है ………….रह रहकर उनकी याद आती ही है ……हा श्याम ! हा श्याम ! हा श्याम !
कहते हुये फिर मूर्छित हो गयीं थीं वो महाभाव स्वरूपा श्रीराधारानी ।
ओह !
शेष चरित्र कल –


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