श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! मथुरा लौटे उद्धव – “उद्धव प्रसंग 29” !!
भाग 2
ये मोर का पंख ! वो संकोच करती हुयी मुझे देनें लगीं …… उन्होंनें मुझ से कहा – उद्धव ! हम वनवासी लोग है वृन्दावन में रहनें वाले हैं तुम्हारे मथुराधीश को हम दे ही क्या सकतीं हैं …..ये मोर का पंख उनके मस्तक पर धारण करा देना ………..और सुनो ! पीले रेशम के वस्त्र पर लिपटी बाँसुरी मुझे दी ………ये उन्हें दे देना …..।
इनके नेत्रों में अश्रु भरे हुए थे ……..मैं आज रोऊँगी नही ………हंसते हुये बोलीं थीं वो करुणा मयी ।
सब गोपियों नें कुछ न कुछ दिया …………किसी नें गुंजा की माला दी ……किसी नें श्रृंगी दी …………कोई गोपी वनमाला बनाकर लाइ थी ……मेरी ओर से श्याम सुन्दर को पहना देना ।
सखा सब खड़े थे…………गेंद, रेशम की गेंद श्रीदामा नें दी ।
उसे कहना …….कालीदह के समय मेरी गेंद कन्हैया नें यमुना में फेंक दी थी …मैनें बहुत भला बुरा कहा था उसे ……इसलिये मेरी गेंद लेनें के लिये वो कालीदह में कूद गया था ……उसे देना …कहना श्रीदामा को क्षमा कर दे ……….श्रीदामा रो गया था ।
मनसुख नें नाना प्रकार के पक्षियों के पंख , रंग विरंगें पंख इकट्ठे किये थे ………हम दोनों उद्धव ! दिन भर यही करते थे ………मेरे पंख कन्हैया चुरा लेता था ………तब मैं बहुत झगड़ता था ……….इन सारे पंखों को दे देना ……और कहना – मनसुख नें आज तक जितनें इकट्ठे किये थे वो सब हैं इसमें ……..आजा वृन्दावन कन्हैया ! फिर साथ मिलकर पंख इकट्ठे करेंगे ………मनसुख हिलकियों से रो रहा था ।
चन्द्रावली गोपी आयी………….वो तो मूर्छित ही हो गयी ।
मूर्च्छा जब खुली तब बोली ……उद्धव ! श्याम को बुला दो ….हम सब तेरा यश जीवन भर गाएंगी …….हमसे मिला दो उद्धव !
बाबा के चरण वन्दन करनें चाहे मैने …..पर बाबा नें मुझे उठाकर अपनें हृदय से लगा लिया था ……..वो भी बिलख उठे थे ।
मैं रथ की ओर बढ़ा …..तो मैया दौड़ी दौड़ी आयी …..ये माखन ! उसे खिलाना …….अपनें सामनें खिलाना …….उद्धव ! उसको कहना तेरी मैया तुझे मरनें से पहले एक बार देखना चाहती है ।
मैं रो पड़ा था …..मैया ! ऐसा मत बोल…………वो आएंगे ! मैं लेकर आऊँगा उसे ।
और हाँ …..उद्धव ! उसे कहना ……….अब मैया तुझे कभी नही बाँधेंगी …….तू आजा ! मैया को श्रीजी नें आगे बढ़कर सम्भाला ।
उद्धव ! कहना श्याम सुन्दर से ………..वो प्रसन्न रहें ………यहाँ सब ठीक है । श्रीजी बोल रही थीं ।
मैने सबको प्रणाम किया …………और रथ में बैठ गया था ।
रथ मेरा चल पड़ा……..ये सब मुझ से दूर दूर और दूर होते चले गए ।
पर मैने मथुरा की सीमा पर अपना रथ रोक दिया ………..मुझे रोना था ……..मैं खुल कर रो नही पाया था …………मैं उतरा रथ से …….धरती में लोट पोट हो गया ………”हा वृन्दावन हा वृन्दावन” बारबार पुकार रहा था मैं ………..ओह ! क्या प्रेम है इस भूमि का ।
पर मैं लेकर आऊँगा वृन्दावन श्रीकृष्ण को ….ये मैने संकल्प किया ।
शेष चरित्र कल –


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