जीवन संध्या
*** मां कुसुमा- गिरीधर ***
हे मेरे प्रभु
सुखी होने के लिये मैंने कौन-सा काम नहीं किया? विवाह किया, संतानें पैदा कीं, धन कमाया, यश-कीर्ति के लिये प्रयास किया, लोगों से प्रेम बढ़ाना चाहा और न मालूम क्या-क्या किया। परन्तु सच कहता हूँ मेरे स्वामी! ज्यों-ज्यों सुख के लिये प्रयत्न किया, त्यों-ही-त्यों परिणाम में दुःख और कष्ट ही मिलते गये। जहाँ मन टिकाया वहीं धोखा खाया! कहीं भी आशा फलवती नहीं हुई। चिन्ता, भय, निराशा और विषाद बढ़ते ही गये। कहीं रास्ता दिखायी नहीं दिया। मार्ग बंद हो गया। तुमने कृपा की, तुम्हारी कृपा से यह बात समझ में आने लगी कि तुम्हारे अभय चरणों के आश्रय को छोड़कर कहीं भी सच्चा और स्थायी सुख नहीं है। चरणाश्रय प्राप्त करने के लिये कुछ प्रयत्न भी किया गया। अब भी प्रयत्न होता है और यह सत्य है कि इसी से सुख-शान्ति और आराम के दर्शन भी होने लगे हैं। परन्तु प्रभु! पूर्वाभ्यासवश बार-बार यह मन विषयों की ओर चला जाता है। रोकने की चेष्टा भी करता हूँ, कभी-कभी रूकता भी है, परन्तु जाने की आदत छोड़ता नहीं! तुम्हारे चरणों के सिवा सर्वत्र भय-ही-भय छाया रहता है। दुःखों का सागर ही लहराता रहता है, यह जानते, समझते और देखते हुए भी मन तुम्हें छोड़कर दूसरी ओर जाना नहीं छोड़ता! इससे अधिक मेरे मन की नीचता और क्या होगी मेरे दयामय स्वामी! तुम दयालु हो, मेरी ओर न देखकर अपनी कृपा से ही मेरे इस दुष्ट मन को अपनी ओर खींच लो। इसे ऐसा जकड़कर बाँध लो कि यह कभी दूसरी ओर जा ही न सके। मेरे स्वामी! ऐसा कब होगा? कब मेरा यह मन तुम्हारे चरणों के दर्शनों में ही तल्लीन हो रहेगा। कब यह तुम्हारी मनोहर मूरति की झाँकी के दर्शन करके कृतार्थ होता रहेगा। अब देर न करो दयामय! जीवन-संध्या समीप है। इससे पहले-पहले ही तुम अपनी दिव्य ज्योति से जीवन में नित्य प्रकाश फैला दो। इससे समुज्ज्वल बनाकर अपने मन्दिर में ले चलो और सदा के लिये वहीं रहने का स्थान देकर निहाल कर दो।
-श्रद्धेय श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार.
Jai sri krishna ji. Kusum Singhania


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