श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! जरासन्ध की पराजय – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 3” !!
भाग 2
पिता जी ! हमें क्षमा करें ………हमारे कारण ही आपको ये पराजय का मुँह देखना पड़ा ……….जरासन्ध की पुत्रियों नें अपनें पिता से ये सब कहा ……..पर नही , पुत्रियों ! कृष्ण को तो मैं पराजित करके बन्दी बनाकर ही रहूँगा ………।
जरासन्ध पहली बार में ही कैसे पराजय स्वीकार कर लेता ……..
इसनें तुरन्त ही फिर अपनें राजाओं को सूचना भिजवाई ………..मथुरा आक्रमण की तैयारी हो …..इस बार हम कृष्ण को छोड़ेंगे नहीं ……..
तात ! उद्धव बोले विदुर जी से ………..जरासन्ध नें फिर दूसरी बार आक्रमण किया मथुरा में……ये आक्रमण भीषण था पहले की अपेक्षा ।
पर जहाँ संकर्षण हों श्रीकृष्ण हों ……..वहाँ कोई क्या कर सकता था ।
इस बार भी वही हुआ …………क्षणों में ही उस महासमर को शान्त कर दिया बलराम जी नें ……….पर इस बार जरासन्ध हाथ में नही आया बलराम श्रीकृष्ण के ……….वो भाग गया ……….श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले……..चलो ! भागते हुये पर वार करना उचित नही है दादा !
तात ! दो बार ही नही ……पूरे सत्रह बार हराया था श्रीकृष्ण नें जरासन्ध को …………वो अब भागना सीख गया था ……..वो युद्ध में पराजय देखता तो भाग जाता ……….वो समझ गया था कि श्रीकृष्ण और बलराम के हाथों में आने का मतलब है ……..प्राणों से हाथ धोना ……वैसे वीर था जरासन्ध ……..प्राणों का मोह नही था इसे …….किन्तु वो जानता था कि कृष्ण मुझे मारेंगे नही …..हाँ अपमानित करनें का कोई अवसर भी वो चूकेंगे भी नहीं….और कहीं मुझे बन्दी बना लिया तो !
इसलिये वो भाग जाता था ……जरासन्ध के मित्र राजा जो आर्यावर्त में फैले हुये थे वो इसका साथ नही छोड़ रहे थे ………और जरासन्ध था कि ….प्रत्येक युद्ध हारनें के बाद भी वो फिर नये युद्ध के लिये तैयार हो जाता था …………..विचित्र बात थी ये ।
पर अब कुछ थक गया था मगध नरेश …………सत्रह बार हारना ।
वो यदुवीर मुझे मारता क्यों नही ! आज चिल्ला उठा था जरासन्ध ।
मुझे वो अपमानित करता है ………मैं उसे छोड़ूँगा नही…….पर अब क्या हो सकता है ………….सत्रह बार तो मैं हार चुका हूँ ।
अपना मस्तक वो दीवाल पर मार रहा था …..रक्त की धारा उससे बह रही थी………वो पागल सा हो उठा था कोई उपाय अब उसे सूझ नही रहा था ……क्या करें ?
काल यवन ! उसका असुर मित्र …..जो दूर देश का था ।
कालयवन ……….मुस्कुराया जरासन्ध ।
शेष चरित्र कल-


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