!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
भूमिका – सखी भाव
हे रसिकों ! आज से अगहन मास आरम्भ हो रहा है ….ये विवाहोत्सवों का काल है …उत्सव और उमंग का काल है , गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं …हे पार्थ ! मासों में मार्गशीर्ष ( अगहन ) मास मेरा स्वरूप है । और इसी मास में तो श्रीजनकपुर धाम में अद्भुत विवाह मना था ….जिसमें श्रीसिया जू दुलहिन और श्रीरघुनन्दन दूल्हा बने थे । इतना ही नही …इसी मास में रसिक शिरोमणि स्वामी श्रीहरिदास जू ने अपने लाड़ले ठाकुर श्रीबाँके बिहारी लाल जू को साक्षात् प्रकट करके रसिकों का कितना भला किया था ….और तो और गोपियों ने इसी मास में कात्यायनी देवि की आराधना-उपासना करके अपना मायिक आवरण भंग करवाया था ।
और आज हमारा परम सौभाग्य है …हे रसिकों ! कि हम श्रीमहावाणी जी जैसे रस पूर्ण ग्रन्थ को इस अगहन मास में गायन करेंगे । सम्पूर्ण महावाणी जी तो नही ….किन्तु “उत्साह सुख” में जिस अद्भुत ब्याहुला का वर्णन है …..उसी का वर्णन हम लोग करेंगे ।
श्रीश्री हरिव्यास देवाचार्य जू कृत श्रीमहावाणी …..निकुँज रस से ओतप्रोत उपासनीय एक रसकाव्य है ….ये मात्र पढ़ने के लिए नही हैं …ये पाठ करने के लिए है …..इसके एक एक पद में डूबिए और खो जाइये उस निकुँज में ….जहाँ सदैव रस उन्मत्त हो उछल रहा है ….रस ही रस से जो भरा है …..जिसका वर्णन हम जैसों के लिए “श्रीहरिप्रिया सखी” द्वारा किया गया है ….श्रीश्रीहरिव्यास देव जू का निकुँज में नाम श्रीहरिप्रिया सखी ही है । यही हमें निकुँज रस पिलाती हैं …फिर निकुँज में ले जाती हैं ….वहाँ के सेवा सुख से अवगत कराती हैं ….”उत्सव धर्म”है निकुँज का …इसलिए उन उत्सवों से हमारा परिचय करवाती हैं ।
हे रसिकों ! नित्य निकुँज है । किन्तु इसमें प्रवेश कैसे मिलेगा ?
जी ! ये प्रश्न आपने सही किया है ।
“प्रात काल ही ऊठि कें , धारि सखी कौ भाव ।
जाय मिले निज रूप सौं , याकौ यहै उपाव ।। “महा. सेवा सुख . पद सं. 4 !
प्रातःकाल उठें ….स्नानादि से निवृत्त हों…..सहज आसन में बैठ जायें …..फिर “सखी भाव” को धारण करें । यहाँ “सखी भाव” कहा है …सखी के वस्त्र धारण करने के लिए नही कहा ….सखी भाव से भावित हों ……वेद ने “सखा भाव” की चर्चा तो की है ….कि हम ईश्वर और जीव सखा हैं …अनादि सखा …बिछुड़े हुए सखा आदि आदि । किन्तु “सखी भाव” की चर्चा वेद में भी नही मिलती । फिर ये कहाँ से आया ? क्यों आया ? हे रसिकों ! ये विशुद्ध रस का मार्ग है ….और जो रस का मार्ग होगा …वो पूर्ण निष्काम होगा ……गोपी भाव तक भी पुराण आदि पहुँचे हैं ….किन्तु सखीभाव को गोपीभाव से उच्च बताकर रसिकों ने इसे सहज स्वीकार किया है ।
गोपी भाव सर्वोच्च भाव है इसमें कहीं कोई दिक्कत नही है …..पर गोपी भाव में एक दिक्कत आती है कि …कभी वियोग है तो कभी संयोग है ….लेकिन सखीभाव में संयोग ही संयोग है …इसमें वियोग कहीं नही दिखाई देता । याद रहे – सखी भाव भावना बिना नित्य विहार रस सम्भव नही है …..सखी भाव में ही नित्य विहार है …क्यों की सखी भाव में तनिक भी स्वसुख की कामना नही है …..इसलिए इसी भाव से ही नित्य विहार का दर्शन सम्भव है । श्रीराधा कृष्ण के इन प्रेम क्रीड़ाओं को नित्य बनाये रखने के लिए ….एक सहायक की आवश्यकता पड़ती है …उसी को “सखी” कहा गया है ….जो नित्य विहार के लिए इन दोनों युगल को प्रेरित करती रहती है ।
यह कार्य सखी का है …..इसलिए सखी की आवश्यकता इस नित्य विहार में पड़ती ही है । अगर मैं ये कहूँ कि सखी के बिना युगल नित्य विहार सम्भव ही नही है …तो ये सत्य है ।
सखी नित्य विहार का संयोजन करती है , फिर वो दूर खड़ी होकर विहार का आस्वादन करती है ।
ये नित्य विहार की साक्षी है …..इसके मन में काम क्रोध ईर्ष्या आदि कुछ नही है ….इसलिए तो ये पूर्ण रस ले लेती है ….क्यों की इसके मन में ईर्ष्या नही है ….प्रिया जू के साथ श्याम सुन्दर हैं और विहार कर रहे हैं …..तो सखी को अपार सुख मिलता है ….ये है ही ऐसी कि ….युगल को सुखी देखकर इसे सुख मिल जाता है । सही बात तो ये है कि ….ये नित्य विहार विशुद्ध प्रेम का प्रसार या व्यापार है ….प्रेम ही प्रेम सर्वत्र फैला हुआ है …..सखियाँ प्रेममयी हैं । ये शान्त हैं ….ये युगल के प्रति पूर्ण समर्पित हैं ….इनकी अपनी कोई कामना है ही नही ।
अब आइये ! इस तरह निकुँज में प्रवेश कीजिये …….शान्त होईए …..फिर धीरे धीरे सखियों की प्रमुख सखी हैं श्रीरंगदेवि जू ….उनको प्रणाम कीजिए …..यही आपकी गुरु हैं ।
अब आप सखी भाव को धारण कीजिए …और इतना ही नही …श्रीहरिप्रिया सखी जू कहती हैं ….सखी भाव को धारण करके …चलिए निकुँज , और वहाँ अपने “निज रूप”से मिलिए ।
आपका अपना रूप निज रूप , जो कभी बदलता नही है ….उस रूप से मिलिए …..अरे ! हमारा अपना रूप कहाँ मिलेगा ? मिलेगा , निकुँज में मिलेगा । निकुँज में तुम्हारा निज रूप है …निज नाम है ….तुम चलो तो वहाँ ।
हे रसिकों ! मुझे बरसाने में एक सखी भाव भावित सिद्ध महात्मा मिले ….उन्होंने मुझे बताया था कि …आप अगर “राधा राधा राधा” नाम सवा लाख तक भी जपेंगे तो आपका रूप निकुँज में प्रकट हो जाएगा । मैंने उनके मुख से ये सुना ….तो पूछ बैठा …ये कैसे सम्भव है ? तो उन महात्मा ने मुझे बताया कि …हमारा रूप तैयार हो जाता है निकुँज में ….हमारी मूर्ति लग जाती है निकुँज में ….वहाँ हमारा नाम रख दिया जाता है …हमारी गुरु सखी द्वारा । और भी बहुत रहस्यमयी बातें उन महात्मा जी ने मुझे बतायी थी । और सखी का रूप भी श्रीजी की तरह ही होजाता है …ये भी उन्होंने ही मुझे बताया था , जैसे – वैकुण्ठ के विषय में वर्णन है …कि सब पार्षद नारायण के सदृश ही लगते हैं …..ऐसे ही निकुँज में भी सखियाँ श्रीजी के समान ही दिखाई देती हैं । अस्तु ।
हे रसिकों ! प्रात: काल उठकर आप सखी भाव से भावित हों ……फिर इसके बाद निकुँज में चलें …..वहाँ आपका निज रूप है …..वहीं से आपको प्राप्त होगा ..निज रूप । उस रूप में स्थित हों ….फिर अपनी गुरुरूपा सखी श्रीरंगदेवि जू के पास जाएँ ….वो सेवा में जा रहीं हैं ….उनके हाथों से सेवा की सौंज लेकर उनके पीछे पीछे चल दें …..चारों ओर निकुँज की छटा का दर्शन करें । सखियों की नूपुर बज रही है …उन नूपुर ध्वनि को सुनें और आनंदित हों ।
ओह ! “मोहन कुँज” में हम आए हैं ……पर्दा हमारी श्रीरंगदेवि जू ने खोला है …..तभी दर्शन हुए हैं …..प्रिया लाल जू के । आहा ! क्या सुन्दर झाँकी है …..कैसै लग रहे हैं…..कैसी छवि है ?
ऐसे लग रहे हैं …जैसे –
“गोरी कंचन बेलि ज्यौं , लिपटी श्याम तमाल”
कनक बेलि लता मनौं श्याम तमाल वृक्ष से लिपटी हुयी हो ।
“जै मृग नैनीं राधिके , रंग रंगीली बाल ,
गोरी कंचन बेलि ज्यों , लपटी श्याम तमाल ।।”
क्रमशः ….
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