श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! स्यमन्तक मणि – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 18” !!
भाग 2
स्यमन्तक मणि खो गयी ………दासी बोली ।
तो ? रुक्मणी को क्या रूचि उस मणि में ।
जिसके पास वो मणि थी वो मारा गया है…….और !
बोलते बोलते दासी रुक गयी ।
और क्या? मारने में द्वारिकाधीश का नाम आरहा है ……..क्यों की मणि उन्होंने माँगी थी सत्राजित से ……..किन्तु सत्राजित नें मणि नही दी तो लोगों का कहना है कि ……………..
रुक्मणी उठकर खड़ी हो गयीं …………….और उसी समय श्रीकृष्ण के पास में …………..
किसी राजकार्य में व्यस्त थे श्रीकृष्ण ……..किन्तु रुक्मणी के जाते ही ।
आओ ! रुक्मणी ! तुम यहाँ क्यों ? मैं तो आनें ही वाला था महल में ।
ये मैं क्या सुन रही हूँ ! आपको मणियों के संग्रह का इतना व्यसन था तो मुझे कह देते ……मैं ढ़ेर लगा देती ! किन्तु किसी को मारना ?
कार्य को छोड़ दिया श्रीकृष्ण नें ……..रुक्मणी के पास आये ………
क्या कह रही हो ? स्पष्ट कहो ! श्रीकृष्ण नें गम्भीर होकर पूछा ।
श्रीकृष्ण की गम्भीरता देखकर रुक्मणी डर गयीं ……उन्हें लगा मैने अपराध कर दिया !
लोग कह रहे हैं नाथ ! चरण पकड़ लिए रुक्मणी नें ।
स्यमन्तक मणि के लिये आपने सत्राजित के भाई को मार दिया ….और मणि लेकर आपनें राजकोष में रख दिया है ।
ओह ! ऐसी बात फ़ैल रही है द्वारिका में ! श्रीकृष्ण सचिन्त हो उठे ।
फिर रुक्मणी की और देखते हुए बोले ……….लोग कहें मुझे परवाह नही किन्तु क्या तुम भी ऐसा मानती हो ? रुक्मणी नें सिर झुकाकर कहा ……..आप स्वयं नारायण हों …….आप ऐसा कैसे कर सकते हैं !
किन्तु ! तुम्हे भी लगा ! है ना ?
चलो छोडो…………मैं जा रहा हूँ महाराज उग्रसेन के पास !
अभी ? रात्रि हो गयी है नाथ ! रुक्मणी नें मना किया ।
किन्तु रुक्मणी ! कलंक को तो मिटाना पड़ेगा ना !
सत्राजित के भाई को किसनें मारा ? और वो बहुमूल्य स्यमन्तक मणि कहाँ है ? रुक्मणी के स्कन्ध में अपनें कर रखते हुए श्रीकृष्ण चले गए थे महाराज उग्रसेन के पास ……………..
शेष चरित्र कल –


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