गुरुपुर्णिमा विशेष 2022
परम् पूज्य सदगुरु श्री शिवकृपानंद स्वामीजी के अमृत वचनों का अंश🙏🙏💐💐
चित्त का स्तर
सभी पुण्यात्माओं को मेरा नमस्कार …
प्रत्येक साधक की कुछ दिन ध्यान साधना करने के बाद यह जानने की इच्छा होती हैं की मेरी कुछ ‘आध्यात्मिक प्रगति’ हुई या नहीं और ‘आध्यात्मिक प्रगति’ को नापने का मापदंड है , आपका अपना चित्त | आपका अपना चित्त कितना शुध्ध और पवित्र हुआ है , वही आपकी आध्यात्मिक स्थिति को दर्शाता हैं | अब आपको भी अपनी आध्यात्मिक प्रगति जानने की इच्छा हैं, तो आप भी इन निम्नलिखित चित्त के स्तर से अपनी स्वयम की आध्यात्मिक स्थिति को जान सकते हैं | बस अपने ‘चित्त का प्रामाणिकता’ के साथ ही ‘अवलोकन’ करें यह अत्यंत आवश्यक हैं |
(१) दूषित चित्त —-: चित्त का सबसे निचला स्तर हैं , दूषित चित्त | इस स्तर पर साधक सभी के दोष ही खोजते रहता हैं | दूसरा , सदैव सबका बुरा कैसे किया जाए सदैव इसी का विचार करते रहता है | दूसरों की प्रगति से सदैव ‘ईर्ष्या’ करते रहता हैं | नित्य नए-नए उपाय खोजते रहता हैं की किस उपाय से हम दुसरे को नुकसान पहुँचा सकते हैं | सदैव नकारात्मक बातों से , नकारात्मक घटनाओं से , नकारात्मक व्यक्तिओं से यह ‘चित्त’ सदैव भरा ही रहता हैं |
(२) भूतकाल में खोया चित्त —-: एक चित्त एसा होता हैं , वः सदैव भूतकाल में ही खोया हुआ होता हैं | वह सदैव भूतकाल के व्यक्ति और भूतकाल की घटनाओं में ही लिप्त रहता हैं | जो भूतकाल की घटनाओं में रहने का इतना आधी हो जाता हैं की उसे भूतकाल में रहने में आनंद का अनुभव होता हैं |
(३) नकारात्मक चित्त —-: इस प्रकार का चित्त सदैव बुरी संभावनाओं से ही भरा रहता हैं | सदैव कुछ-न-कुछ बुरा ही होगा यह वह चित्त चित्तवाला मनुष्य सोचते रहता हैं | यह अति भूतकाल में रहने के कारण होता हैं क्योंकि अति भूतकाल में रहने से वर्त्तमान काल खराब हो जाता हैं |
(४) सामान्य चित्त —: यह चित्त एक सामान्य प्रकृत्ति का होता हैं | इस चित्त में अच्छे , बुरे , दोनों ही प्रकार के विचार आते हैं | यह जब अच्छी संगत में होता हैं , तो इसे अच्छे विचार आते हैं और जब यह बुरी संगत में रहता हैं तब उसे बुरे विचार आते हैं | यानी इस चित्त के अपने कोई विचार नहीं होते | जैसी अन्य चित्त की संगत मिलती हैं , वैसे ही उसे विचार आते हैं | वास्तव में वैचारिक प्रदुषण के कारण नकारात्मक विचारों के प्रभाव में ही यह ‘सामान्य चित्त’ आता हैं |
(५) निर्विचार चित्त —: साधक जब कुछ ‘साल’ तक ध्यान साधना करता हैं , तब यह निर्विचार चित्त की स्थिति साधक को प्राप्त होती है | यानी उसे अच्छे भी विचार नहीं आते और बुरे भी विचार नहीं आते | उसे कोई भी विचार ही नहीं आते | वर्त्तमान की किसी परिस्थितिवश अगर चित्त कहीं गया तो भी वह क्षणिकभर ही होता हैं | जिस प्रकार से बरसात के दिनों में एक पानी का बबुला एक क्षण ही रहता हैं , बाद में फुट जाता हैं , वैसे ही इनका चित्त कहीं भी गया तो एक क्षण के लिए जाता हैं , बाद में फिर अपने स्थान पर आ जाता हैं | यह आध्यात्मिक स्थिति की ‘प्रथम पादान’ हैं होती हैं क्योकि फिर कुछ साल तक अगर इसी स्थिति में रहता हैं तो चित्त का सशक्तिकरण होना प्रारंभ हो जाता हैं और साधक एक सशक्त चित्त का धनि हो जाता हैं |
(६) दुर्भावनारहित चित्त —: चित्त के सशक्तिकरण के साथ-साथ चित्त में निर्मलता आ जाती हैं | और बाद में चित्त इतना निर्मल और पवित्र हो जाता हैं कि चित्त में किसी के भी प्रति बुरा भाव ही नहीं आता हैं , चाहे सामनेवाला का व्यवहार उसके प्रति कैसा भी हो | यह चित्त की एक अच्छी दशा होती हैं |
(७) सद्भावना भरा चित्त —: ऐसा चित्त बहुत ही कम लोगों को प्राप्त होता हैं | इनके चित्त में सदैव विश्व के सभी प्राणिमात्र के लिए सदैव सद्भावना ही भरी रहती हैं | ऐसे चित्तवाले मनुष्य ‘संत प्रकृत्ति’ के होते हैं | वे सदैव सभी के लिए अच्छा , भला ही सोचते हैं | ये सदैव अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं | इनका चित्त कहीं भी जाता ही नहीं हैं | ये साधना में लीन रहते हैं |
(८) शून्य चित्त —: यह चित्त की सर्वोत्तम दशा हैं | इस स्थिति में चित्त को एक शून्यता प्राप्त हो जाती हैं | यह चित्त एक पाइप जैसा होता हैं , जिसमें साक्षात परमात्मा का ‘चैतन्य’ सदैव बहते ही रहता हैं | परमात्मा की ‘करूणा की शक्ति’ सदैव ऐसे शून्य चित्त से बहते ही रहती हैं | यह चित्त कल्याणकारी होता हैं | यह चित्त किसी भी कारण से किसी के भी ऊपर आ जाए तो भी उसका कल्याण हो जाता हैं | इसीलिए ऐसे चित्त को कल्याणकारी चित्त कहते हैं | ऐसे चित्त से कल्याणकारी शक्तियाँ सदैव बहते ही रहती हैं | यह चित्त जो भी संकल्प करता हैं , वह पूर्ण हो जाता
शरीर के प्रति समझ चाहिए । गहरी संवेदना चाहिए। 🌸
उसकी हिफाजत का बोध चाहिए। और मैत्रीपूर्ण रूख चाहिए। वह बहुत बडी यात्रा पर सुखदुख का साथी है। वह साधन है। वह सीढ़ी है। इसलिए मेरी दृष्टि में जिसको भी समझ है वह शरीर के प्रति दुष्टता और शत्रुता का व्यवहार नहीं कर सकता है।
लेकिन दुनिया में ऐसे विक्षिप्त लोग हुए हैं और हैं, जिन्होंने अपने शरीर के साथ जो दुर्व्यवहार, जो हिंसा और जो ‘दमन’और जो उत्पीडन किया है, वह हृदय को रूदन से भर देता है और प्रार्थना से कि हे परमात्मा ! मनुष्य जाति को ऐसी आध्यात्मिकता से मुक्त कर ।
ऐसे पागलों का व्यवहार सिवाय इसके कि उन्होंने अपनी बुद्धि खो दी हो और किसी बात का प्रमाण नहीं है।
लेकिन ऐसे लोगों के भी दूषित प्रभाव पीछे छूट गये हैं और आज भी हमारा पीछा कर रहे हैं। इस तरह बीमार शिक्षाओं से स्वयं को मुक्त करें। ऐसे लोगों को पूजने की नहीं, वरन् उनकी चिकित्सा की आवश्यकता है।
और मैं आशा करता हूं कि कभी न कभी हम यह जरूर ही कर सकेंगे। शरीर के भोग से जो अशक्ति, असफलता, और असंतुष्टि पैदा होती है, उसकी ही तीव्र प्रतिक्रिया में शरीर से शत्रुता हो जाती है । इस भांति स्वयं के दोष शरीर पर थोप दिये जाते हैं, जो कि बिलकुल ही निर्दोष है।
मैं शरीर की शत्रुता पर खड़ी समस्त कृच्छ्र साधनाओं के प्रति सजग होने का निवेदन करता हूं, क्योंकि शरीर को जिस भांति आपने अब तक भोगा है, उसके कारण वैसी कृच्छ्र साधनाओं का एक प्रबल आकर्षण आपके भीतर भी हो सकता है।
यदि कोई व्यक्ति धन को देखकर लालच से भर जाय या किसी व्यक्ति के रूप को देखकर लोभ से और आकर्षण से भर जाय और अपनी आंखें फोड़ ले, तो उसे मैं पागल कहूंगा। क्योंकि आंखें न तो लोभ करने को कहती हैं, न राग करने को कहती हैं। आंखें तो कुछ भी नहीं कहती हैं। आप आंखों से जो उपयोग लेते हैं, वे उसी के लिए राजी हो जाती हैं।
शरीर तो एकदम आपका अनुगत है, शरीर तो एकदम सेवक है। वह तो सदा तैयार है, उसे जहां आप ले जायें। आप कहें नर्क चलो तो शरीर नर्क चलने को हाजिर है, आप कहें स्वर्ग चलो, तो शरीर स्वर्ग चलने को राजी है। सवाल शरीर का नहीं, वरन् आपके संकल्प का है। और स्मरण रखें, संकल्प के पीछे शरीर सदा चला जाता है। हम गलती करेंगे, अगर हम संकल्प को तो न बदलें और शरीर को कष्ट देने लगें और पीड़ा देने लगें और शरीर को नष्ट करने लगें।
शरीर के साथ किया गया दुराचार हिंसा का ही एक रूप है, आत्महिंसा का और उसका मैं समर्थन नहीं करता हूं। मैं आत्मप्रेम का समर्थन करता हूं और मुझे दिखायी पड़ता है कि ‘ स्वयं के प्रति हिंसा से अधिक मूर्खतापूर्ण और कुछ भी नहीं हो सकता है। ’
लेकिन आत्मप्रेम से मेरा प्रयोजन अहं-केंद्रित व्यक्तित्व से नहीं है। अहं-केंद्रित व्यक्ति तो कभी स्वयं को प्रेम करता ही नहीं, क्योंकि यदि वह स्वयं को प्रेम करता, तो अहंकार से मुक्त हो जाता, क्योंकि अहंकार अधिक पीड़ादायी तो कोई नर्क ही नहीं है। अहं-केंद्रित से व्यक्ति ही धार्मिक बन आत्महिंसा में प्रवृत्त होता है, क्योंकि इस भांति अहंकार की जितनी तृप्ति और पुष्टि होती है, उतनी और किसी भांति नहीं होती है।
तथाकथित त्यागियों, साधुओं और अर्ध महात्माओं में जो दर्प परिलक्षित होता है, वह इसी कारण । महात्मा होने के कारण वे अहंकारी हैं और अहंकारी होने के कारण महात्मा हैं।
परमात्मा की प्रकृति में कुछ भी ऐसा नहीं हो सकता है, जो आपके प्रति शत्रुतापूर्ण हो, कुछ भी ऐसा नहीं हो सकता है, जो आपके विरोध में खड़ा हो ।
लेकिन आप उसका उपयोग न करें या दुरुपयोग करें, तो बात ही दूसरी है। रास्ते पर पत्थर पड़ा हो तो जो जानते हैं, वे उसे सीढ़ी बना लेते हैं और जो नहीं जानते, उनके लिए बनी हुई सीढ़ी भी रास्ते में अटकाव, अवरोध हो जाती है।
जीवन में सब कुछ दृष्टि की बात है। और दृष्टि ही भ्रांत हो, तो बहुत बडा अन्तर पडता है। शरीर को शत्रु मानकर ही जो प्रारंभ करता है, उसके लिए वह शत्रु ही हो जाता है, तो आश्चर्य नहीं है। उसे मित्र मानकर प्रारंभ करें। उसे मित्र जानें। वह मित्र है। उसके प्रति विरोध – वैमनस्य जाते ही एक बोझ स्वयं से हट जाता है – एक तनाव से मुक्ति हो जाती है – एक शांति और विश्रांति का अनुभव होता है। करें और देखें ।
स्मरण रखें, शरीर तो केवल माध्यम है । वह किसी को कहीं नहीं ले जाता है। उसके प्रति सब दुर्भाव छोड़ें पक्षपातमुक्त होकर उसे देखेंगे, तो उसकी मूक सेवाओं के प्रति हृदय अनायास ही प्रेम से भर जाता है । फिर शरीर पर ही नहीं रुक जाना है। और गहरे भी चलना है।
Part 2/2
𝕆𝕊ℍ𝕆 | ℙ𝕣𝕖𝕞 𝕜𝕖 𝕡𝕒𝕟𝕜


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