श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! सत्यभामा मंगल – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 22” !!
भाग 2
देवी ! मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया …श्रीकृष्ण जैसे महान व्यक्तित्व के लिये मैने ऐसा सोचा ! कलंक लगाया ! मेरे भाई को मारा मणि के लिये ये सब कहा मैने , आह ! उनके मन में लोभ आएगा इस मणि के प्रति ? वो तो श्रीकृष्ण हैं ….इन्द्रासन भी उनके लिये तुच्छ है ! सत्राजित अपनी पत्नी से बोले जा रहा था ।
पर मुझ से अपराध हो गया उसी अपराध के कारण मेरा भाई काल का ग्रास बना ……..मैने कलंक लगाया श्रीकृष्ण के ऊपर !
नेत्रों से जल गिरनें लगे थे सत्राजित के ।
देवी ! मुझे ये मणि लौटा दी श्रीकृष्ण नें…….और मैं सुन रहा था – अक्रूर नें मुझे दण्ड देंने के लिये कहा तो श्रीकृष्ण नें मेरा अपराध ही नही माना……सहज मानवीय स्वभाव कहकर उन्होंने मुझे निर्दोष कह दिया ……..और मैं ? सत्राजित को ग्लानि हो रही थी ।
मैं क्या करूँ ? देवी ! मेरा साथ दोगी ?
हाँ , हाँ कहिये ! पत्नी नें कहा ।
ये स्यमन्तक मणि मेरे लिये अब बोझ है ……….मैं श्रीकृष्ण को ही सौंपना चाहता हूँ …..किन्तु ! देवी ! अपनी लाड़ली सत्यभामा का हाथ हम श्रीकृष्ण के हाथों में दे दें तो !
क्या वे स्वीकार करेंगे ? सत्राजित की पत्नी नें कहा ।
क्यों नही करेंगे ! भक्त की प्रार्थना भगवान को सुननी ही पड़ेगी !
गदगद् हो उठा था सत्राजित …….हमारे जामाता बनेंगे द्वारकेश ! मेरी पुत्री उनकी अर्धांगिनी बनेगी ……….महारानी !
तभी सामनें देखा सत्राजित नें …सत्यभामा खड़ी है और शरमा रही है ।
सत्राजित नें देखा…….सत्राजित की पत्नी, पुत्री की भाव भंगिमा से समझ गयीं…….और विश्व की ऐसी कौन कन्या होगी जो श्रीकृष्ण को पति रूप में नही चाहेगी ! आनन्द से उछल पड़े थे सत्राजित ।
हे द्वारिकाधीश ! आपसे मिलनें के लिये सपरिवार सत्राजित आये हैं !
यहाँ ? यहाँ क्यों ? सभा में बुलवाओ ! महल में मैं किसी से क्यों मिलूँ ? श्रीकृष्ण नें अपनें द्वारपाल से कहा …………जी ! द्वारपाल जानें लगा तो श्रीकृष्ण नें रोका ……….रुको ! भेजो उन्हें !
सत्राजित नें जैसे ही महल में प्रवेश किया साष्टांग धरती में लेट गया था ।
ये सब क्या है ? और यहाँ क्यों आये हो आप ?
श्रीकृष्ण नें सत्राजित से पूछा ।
हे द्वारकेश ! एक विनती है ……………..
हाँ , हाँ बोलो ………..श्रीकृष्ण बोले ।
ये मेरी पुत्री है सत्यभामा …..आप इसको अपनें वाम भाग में आसन दें ।
क्या ? श्रीकृष्ण चौंक गए थे सत्राजित की बात सुनकर ।
मैं अपनी पुत्री आपको देंने आया हूँ इसके साथ आपका विवाह हो …..और ये सम्बन्ध आप स्वीकार करिये !
सत्राजित बोला !
हे विदुर जी ! मैं उस समय वहीं था ……..मेरी और श्रीकृष्ण चन्द्र जु नें देखा तो मैं मुस्कुराया ………..वो भी मुस्कुराये ……………
तभी शहनाईयाँ बज उठी थीं…………….पुष्प बरसनें लगे थे नभ से ।
“ये कन्या के साथ”……स्यमन्तक मणि सत्राजित देनें लगे श्रीकृष्ण को …..तो बड़ी नम्रता से श्रीकृष्ण नें कहा…कन्या स्वीकार है ….पर ये मणि नही ……..आप ही रखिये इस मणि को……….ये कहते हुये श्रीकृष्ण नें सत्यभामा की ओर देखा……….वो तो बड़ी प्रसन्नता से भरी हुयीं थीं……मैने श्रीकृष्ण चन्द्र जु से कहा ………ये तीसरी हैं ।
मेरे द्वारिकाधीश हंसे…..अब देखते जाओ उद्धव ! कितनी और होती हैं।
उद्धव ये बात कहते हुये विदुर जी के सामनें भी हंस रहे थे ।
शेष चरित्र कल –


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