श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! पाण्डवों का वनवास – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 57 !!
भाग 2
हे पाण्डवों ! क्षमा करो दुर्योधनादि मेरे पुत्रों को , और मैं अपनी पुत्रवधू द्रौपदी से भी क्षमा माँगता हूँ कि उसका जो अपमान हुआ है इस सभा में उसे वो भूल जाए , आप लोगों को मैं दुर्योधन के दासत्व से मुक्त करता हूँ , मैं सब कुछ लौटा रहा हूँ आप लोगों को , आप लोगों का राज पाठ , सम्पत्ति , सब कुछ , धृतराष्ट्र के इतना कहते ही दुर्योधन अपने पिता से ही रुष्ट हो उठा था , शकुनि को लगा पाण्डव तो हार कर भी जीत गए , सब कुछ तो इनके पास आगया फिर से ।
जो हुआ उसे एक दुस्वप्न मान कर भूल जाओ ! गान्धारी ने अब युधिष्ठिर से हाथ जोड़कर कहा।
युधिष्ठिर ने गान्धारी से कहा , आप माता हैं इसलिए कृपा कर हमें हाथ न जोड़ें , आशीष दीजिए माता आप तो , मैंने क्षमा किया अपने भाइयों को , धर्म रूप युधिष्ठिर सहज होकर बोल रहे थे ।
खेल है , हार जीत तो लगी रहती है इसमें , इसलिए जो हुआ उसे हम भी भूल रहे हैं ।
हम भी भूल गए , शकुनि फिर आगे आया , अब तो आप वापस इन्द्रप्रस्थ के राजा हो गए हो सब कुछ पूर्व की तरह आपके पास राज , सम्पदा सब है ।
एक बाज़ी और , अंतिम बाज़ी और हो जाये । शकुनि ने फिर अपना जाल बिछाया ।
नही, बिल्कुल नही , अर्जुन बोला और अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर का हाथ पकड़ कर सभा से निकलने लगा , द्रौपदी भीम आदि सब जाने लगे ।
महाराज ! मेरी इतनी बात भी नही मानी जाएगी ! अरे ! एक बाज़ी खेलने में क्या हो जाएगा ।
दुर्योधन बोल उठा था ।
युधिष्ठिर स्वयं रुक गए , अर्जुन चलने का आग्रह कर रहे थे पर ।
अर्जुन ! महाराज की क्या आज्ञा है उसे तो सुना जाए । युधिष्ठिर फिर रुक गए ।
कोई बात नही युधिष्ठिर ! अपने अनुज दुर्योधन की बात मान लो , खेल लो एक बार और ।
ये धृतराष्ट्र ने पुत्र मोह के कारण कह दिया था ।
तुम स्वतन्त्र हो पुत्र युधिष्ठिर ! तुम चाहो तो प्रणाम करके सभा से जा सकते हो ।
भीष्म पितामह ने सावधान किया था , पर तात ! जो होना है होगा , विधि का विधान कौन टाल सका है । रुक गए युधिष्ठिर , फिर चौसर बिछाए गए , जो अब हारेगा उसे बारह वर्ष वनवास और तेरहवाँ वर्ष का अज्ञात वास होगा , अज्ञात वास में छुप कर रहना है , अगर पता चला तो फिर वनवास में , तेरह वर्ष के वनवास में ।
ये बाजी भी हारे पाण्डव , वनवास में जाने की तैयारियाँ होने लगीं , कुन्ती माता ने जब समाचार पाया , जुआ का सारा प्रसंग उन्होंने जाना तब उनको बड़ा दुःख हुआ था ।
वो भी अब जाना चाहती हैं वनवास , अपने पुत्रों के साथ ।
उद्धव ! मैंने ही उन्हें रोका था मैंने ही कहा था आप हस्तिनापुर में रहें , कुन्ती मेरी बात का सम्मान करती थीं , विदुर ! तुम नीतिज्ञ हो , तुम धर्म को जानते हो और उसका भली प्रकार से पालन भी करते हो , इसलिए मैं तुम्हारी बात मान रही हूँ , ये कहते हुए रो पड़ी थीं कुन्ती ।
विदुर जी ने ये बात उद्धव को बताई ।
उद्धव अब बोले – आप धर्म को जानते ही नही हैं आप तो धर्म के स्वयं अवतार हैं ।
आपकी बात मानी जाती , या आपकी बात महाराज धृतराष्ट्र पुत्र मोह का परित्याग करके मान लेते तो ये सब कुछ होता ही नही ।
नही उद्धव ! मैं अब ऐसा नही मानता , मैं मानता हूँ सब कुछ मेरे श्रीकृष्ण की लीला है ….फिर लीला तो लीला है , विदुर जी इतना बोलकर मौन हो गए थे ।
अब पाण्डव वनवास के लिए चल पड़े, साथ में द्रुपद दुलारी भी है ।
शेष चरित्र कल –
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