श्रीकृष्णचरितामृतम्
( “अपनों के मध्य कन्हैया”- उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 74 )
भाग 1
आज सौ वर्ष पूरे हो गए ओह !
मनसुख के हृदय से लगे कन्हैया बोल रहे हैं ।
सौ वर्षों तक मैं परायों के साथ रहा …मनसुख भैया ! आज मुझे लग रहा है मेरा कोई है ।
वही अपनेपन की सुगन्ध ….निस्वार्थ प्रेम , सुख देनें की भावना सतत ….लेने की भावना नगण्य ….ये वृन्दावन में ही है ….श्रीकृष्ण अभी भी मनसुख के हृदय से लगे हुए हैं ….कहूँ तो चिपके हुए हैं …..वो स्वयं अपने प्रिय सखा मनसुख से अलग नही होना चाहते ।
लाला ! मैया भी आयी है ! मनसुख ने कन्हैया के कान में धीरे से कहा था ।
मैया !
मनसुख का हाथ पकड़ लिया श्रीकृष्ण ने वो मैया का स्मरण करते ही बोले – सच ! मैया आई है ! मनसुख चल मैया के पावन चरणों में ही जाकर बैठते हैं , उसके हृदय में उमड़ रहे वात्सल्य सिन्धु में अवगाहन करते हैं ……ये द्वारकेश पावन हो जाएगा ।
महाराज ! रथ लाऊँ ? दारुक ने सुना की ये कहीं जानें की बात कर रहे हैं ।
दारुक की और तो देखा भी नही श्रीकृष्ण ने मनसुख का हाथ पकड़ कर बोले …..भागते हैं । आज ब्रज के वही चपल कन्हैया ही बन गए थे द्वारिकाधीश ……दोनों सखा भागे ।
मनसुख हंसा …तू बिल्कुल नही बदला कन्हैया , वैसा ही है जैसा पहले था ।
हाँफते हुए मनसुख बोला …….
ये आनन्द तुम लोगों के साथ ही आता है …..अपनों के साथ ।
मनसुख ! याद है , मैंने मटकी फोड़ी थी फिर मैया मेरे पीछे भागी , मैं भागता गया ….तू मेरे साथ था , तुझे याद है ना ? दौड़ते हुए श्रीकृष्ण भी बोल रहे थे ।
रात्रि की शीतल हवा कुरुक्षेत्र की और ये लीला बिहारी अपने सखा के साथ दौड़ रहे हैं ….दौड़ इसलिए रहे हैं की अपनों के पास ये शीघ्र पहुँचना चाहते हैं ।
“ये है”……मनसुख अब रुका , शिविर दिखाया …..श्रीकृष्ण हाँफते हुये बैठ गए थे …..लिखा था वृन्दावन शिविर । वो पढ़कर श्रीकृष्ण भावुक हो उठे ….मनसुख ! वृन्दावन , वृन्दावन , इस नाम में भी कितना उन्माद भरा है ना । ये नाम भी मैं अकेले में कभी लेता था तो मेरी प्रेम समाधि लग जाती थी …..आहा ! श्रीकृष्ण और मनसुख शिविर के बाहर ही बैठ गए हैं ।
लोग आ ही रहे हैं , भीड़ बढ़ती ही जा रही है कुरुक्षेत्र में , और आनें वाले लोग जब श्रीकृष्ण को देखते हैं तो रुक जाते हैं ….कोई पहचान जाता है तो दूसरे को बताता है ….यही हैं द्वारिकाधीश ।
अरे मनसुख ! तू बाहर बैठा है ….चल भीतर सो जा …तू सोया भी नही है …..
बाबा नन्द उठ गए थे , मनसुख की तेज आवाज ने उन्हें उठा दिया था….वो बाहर आए और जैसे ही मनसुख को भीतर चलने के लिए कहा ……..कन्हैया उठे , कन्हैया को देखा नन्दबाबा ने …
क्रमशः …
शेष चरित्र कल-
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