श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “वृन्दावन का निस्वार्थ प्रेम” – उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 75 !!
भाग 1
नाथ ! आप इतने विकल क्यो हो रहे हैं उन ब्रजवासियों को लेकर …उन्हें द्वारिका में ही बसा लीजिए ना …..सोलह हजार एक सौ आठ तो आपकी हम सब रानियाँ हैं हीं , फिर लाखों में आपके सन्तान भी हैं ….ये बेचारे वृन्दावन के लोग आपके साथ रह लेंगे तो हमें भी क्या आपत्ति है ….आप बसा लीजिए इन्हें भी द्वारिका में ।
महारानी कालिन्दी ने जब देखा वृन्दावन वासियों की लेकर प्रेमोन्मत्त दिखाई दे रहे हैं उनके नाथ…तो अपनी भावना कह दी ।
क्या आपत्ति हो सकती है इन रानियों को भी …कुब्जा जैसी को तो बसाया है रानी बनाकर उनके नाथ ने …फिर ये तो सीधे सादे अपने बृजवासी थे ।
श्रीकृष्ण सोचने लगे …आहा ! गोपियाँ द्वारिका में रहें …मेरे ग्वाल बाल द्वारिका में रहें….और हम लोग मिलते जुलते रहें …मेरा मनसुख मेरा श्रीदामा तोक मधुमंगल ….मेरी गोपियाँ …और मेरी राधा …..मेरी राधा द्वारिका में रहेंगी ? क्यो नही रहेंगी …रुक्मणी भी आगयी थीं उन्होंने भी कहा …रुक्मणी की और देखा श्रीकृष्ण ने …कुछ देर देखते ही रहे फिर बोले थे …नही रुक्मणी …तुम नही जानती हो …वो राधा है …बहुत मानिनी है ।
कितनी भी मानिनी सही ….पर आप ही तो उनके प्रियतम हैं ना , फिर आपके साथ क्यो नही रहना चाहेंगीं । रुक्मणी की बात पर श्रीकृष्ण सोचने लगे थे ।
वैसे ये सम्भव है ? श्रीकृष्ण अपने शिविर में बैठे यही सोच रहे हैं ।
अमावस्या आज थी …सूर्यग्रहण का स्नान साथ में ही किया था द्वारिका के लोगों ने और वृन्दावनवासियों ने । अपनी भानुनन्दिनी के कोमल कर को पकड़ श्रीकृष्ण ने भी डुबकी लगाई थी ।
रुक्मणी आदियों ने इस दृश्य को देखा ….पर श्रीकृष्ण को कौन कुछ बोल सकता था …..
वसुदेव और देवकी के साथ कहाँ थे श्रीकृष्ण वो तो अपने बाबा नन्द और मैया यशोदा के साथ थे ……मनसुख श्रीदामा तोक इन लोगों के साथ ही हंसते खेलते रहे …..बलभद्र, इनके बड़े भाई भी इन्हें स्मरण में नही आए थे ।
हाँ , माता रोहिणी को देखकर श्रीकृष्ण ने अपनी मैया यशोदा को कहा था ….मैया ! द्वारिका में तेरा लाला रोहिणी माता को ही देखकर जी रहा है ….इनको देखता हूँ तो लगता है तुझे ही देख रहा हूँ । रोहिणी चरण वन्दन करती हैं मैया के गले लगकर रोती हैं ।
सब कुछ भूल गए हैं कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ….उन्हें न अपनी रानियों का ध्यान है न अपने माता पिता वसुदेव देवकी का । वो बस खो गए हैं वृन्दावन के प्रेम में ! वृन्दावन वासियों के साथ एक हो गए हैं । अब कल सब चले जाएँगे ….जो जो जहां से आया है वहीं जाएँगे ।
ये अभी आते नहीं अपने शिविर में …किन्तु वृन्दावन शिविर में वसुदेव देवकी और रोहिणी जी चली गयीं थीं इसलिए श्रीकृष्ण वहाँ से आगये थे । …..रानियाँ मिल चुकी हैं ……श्रीराधा और गोपियों से मिलकर प्रेम तत्व क्या है इस पर सम्वाद भी हो चुका है इन सब का ।
( साधकों ! इसका विस्तार “श्रीराधाचरितामृतम्” में, मैं कर चुका हूँ …आप उसमें पढ़ सकते हैं )
शिविर में आकर ये प्रेमावतार विकल हो उठे थे ……तब महारानी कालिन्दी ने उन्हें कह दिया था कि द्वारिका में ही बसा लो ना इन सब को ।
प्रेम हृदय का विषय है …..इसमें बेचारी बुद्धि का स्थान कहाँ है ! ये समस्त के बुद्धि प्रदाता हैं …पर आज ….क्या करें ….प्रेम देवता सबसे बड़ा देवता है …वो ब्रह्म से भी तो बड़ा है ।
उसी समय , अकेले ही मन में उत्साह लिए वृन्दावन शिविर के लिए चल पड़े थे श्रीकृष्ण ।
पीताम्बर धरती से लग रही हैं पर इन्हें इस पीताम्बरी की स्थिति से क्या मतलब …इनका हृदय व्याकुल था आज हाँ आस थी शायद महारानी कालिन्दी की बात मान लें मेरे ये लोग ।
अरे ! कृष्ण ! वसुदेव देवकी रथ से वापस अपने द्वारिका शिविर में आ रहे थे …
देवकी ने रथ रुकवाया …अरे कृष्ण ! पर कृष्ण को कहाँ खबर अपनी …उन्हें तो आज अपना प्रेम ही दिखाई दे रहा था …..”नगर बसा दूँगा द्वारिका में , वृन्दावन नाम का नगर”…उनमें केवल यही लोग रहेंगे ……..मैं नित्य जाऊँगा मैया बाबा के पास ।
ये बात शिविर में पहुँचते ही जब बाबा नन्द मिले तो श्रीकृष्ण ने अति उत्साह में बता दिया था ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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