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July 7, 2025 3:12 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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कृष्ण का मंत्र भाग 2 से 6[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा( भाग २ )कृष्ण का मंत्र भाग 2 से 6

कृष्ण का मंत्र भाग 2 से 6[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा( भाग २ )कृष्ण का मंत्र भाग 2 से 6

[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग २ )

सोने की नगरी द्वारिका …. गोमती का तट है…. हर तरफ हरियाली है .. सुंदर सुंदर वृक्ष लता पता से भरा हुआ है गोमती का तट .. द्वारकाधीश अपनी चार पटरानियो के साथ टहलते हुए आए है…. मंद मंद पवन बह रही है… कमल , चंदन , वैजन्ती की सुगंध ने पूर्ण वातावरण में अल्हाद भर दिया है…. रसिक शेखर कुछ विनोद करते हुए चल रहे है और चारो रानियां खिलखिलाकर हसती हुई उनके साथ चल रही है…. इतने में एक बंदर वृक्ष से नीचे उतर कर आता है उसके हाथों में वृक्ष के कुछ फल है … जैसे ही द्वारिकाधीश के सामने आता है उनके चरणों में वो फल रख देता है… रनिया उस बंदर के सामने आते ही भय से श्रीनाथ के पीछे चली जाती है…. वो मरकट कृष्ण को प्रणाम कर फिर वृक्ष पर चढ़ जाता है… कृष्ण बस उसकी कृति देख मुस्कुरा रहे थे…. महारानी रुक्मिणी पुछती है नाथ ये बंदर कैसे आया और फल देकर गया है.???.. कृष्ण ने वो फल उठाए और उसी बड़े से वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बैठ गए…. रानियों को भी इशारे से बैठने को कहा… चारो रानियां भी बैठी… कृष्ण शांत है .. बड़ी ही मधुर मुस्कान उनके चेहरे पर… कहते है ये मेरा मित्र है त्रेतायुग में यही फल लाकर हमे खिलाता था… आज फिर उसको मुझे देखते ही स्मरण हुआ इसीलिए फल देकर प्रणाम कर चला गया… निष्काम सेवा आज भी कर रहे है ….. रुक्मिणी पूछती है पर नाथ अब तो द्वापरयुग है… आपका नया अवतार है तो इनको जन्म नही मिला… कृष्ण कहते है… मिला है प्रिए… पर मेरी सेवा करते हुए उन्होंने हमेशा मरकट का जन्म ही मिले ताकि हमेशा हनुमान के साथ रह सके ये वर मांगा था…. इसीलिए वो फिर मरकट ही बने है…. हर एक की इच्छा अनुसार और कर्म के अनुसार जन्म मिलता है…. सत्यभामा बड़े प्रेम से द्वारिकानाथ की और देखती है और पुछती है…. नाथ आप ही श्री राम थे ना… और सीता श्री राधा थी…?? श्रीनाथ मुस्कुराकर गर्दन हा में हिलाते है… तो नाथ बाकी सब भी आपके साथ इस युग में है….?? कृष्ण कहते है … हा प्रिय भामा ! जब जब मैं अवतार लेता हु तब तब मेरे प्रिय भी मेरे साथ अवतरित होते ही है…. मेरा अवतार कार्य करने हेतु ही सब मेरी सहायता करते है… जामवंती बड़े ही उल्हास से पुछती है तो बताएं ना नाथ वो कोन कोन है जो राम अवतार में आप के साथ थे और आज भी है….
( शेष भाग कल )
[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग ३ )

द्वारिकानाथ अपनी चार पटरानियो के साथ गोमती के तट पर बैठे है… रुक्मिणी, जामवंती, सत्यभामा, कालिंदी चारो रानियां अति प्रसन्नता के साथ अपने प्राण प्यारे स्वामी की ओर निहारती हुई…. जानना चाहती है की कौन कौन त्रेता युग से द्वापर युग में आए है…. प्रेम गीता सुनने के उपरांत इनके हृदय में शुद्ध प्रेम की धारा निरंतर बहती है यही कारण है की अपने प्रिय की और बाते जानने में ये रनिया ललायित है… जामवंती रानी ने जैसे ही पूछा नाथ कौन कौन है जो राम अवतार में आप के साथ थे और आज भी है….?? द्वारकाधीश बड़े प्रेम से मधुर मनोहारी स्मित करते हुए उनकी और देखते है…. चारो रानियां स्थिर चित्त से बैठी है उनकी और देख रही है अपने प्राण को श्रवण इंद्रिय में समेट लाई है जैसे… इतनी उत्सुकता है उनकी अपने प्रिय की वाणी सुनने में….. कृष्ण कहते है… अच्छा तो पूरे हृदय से सुनो… मैं जब जब इस पृथ्वी पर जन्म लेता हो तब तब मेरे जन्म का उद्देश यही होता है की मैं धर्म की रक्षा करू… अधर्म का नाश करू… सारे संसार के प्राणी मात्राओं का रक्षण करू और दुष्ट राक्षसों का संहार करू… मनुष्य को अपने कर्तव्य, कर्म, प्रेम, ज्ञान सिखाऊ…. इन सबका योग्य समतोल कैसे करना चाहिए इसका मैं स्वयम उदाहरण बनू…. हर मनुष्य का जीवन एक उद्देश से निर्मित है … उसे उसके उद्देश तक पहुंचाने का काम मैं करता हूं….
राम अवतारमें मैने कर्तव्य और त्याग सिखाया था…. कृष्ण अवतार में मैं प्रेम और ज्ञान सीखा रहा हु… हर अवतार में मैंने संसार को सीख दी है… राम अवतार में मेरी व्यक्ति रेखा बिलकुल शांत , स्थिर गंभीर थी… मेरा रंग गोरा बड़ी बड़ी काली काली आंखें… गोल चेहरा घुंगराले केश… मध्यम ऊंचाई राजकुमारों जैसा सुंदर और तेजस्वी रूप… स्मित हास्य ऐसा की देखकर मनुष्य ही नही मुक प्राणी भी मोह जाए…. ये कहते हुए जब रनिया देख रही है तो उन्हें द्वारिका नाथमे वही राम का मोहक रूप नजर आ रहा है… रानियां मुग्ध हो रही है…. ये मैं हूं राम ..!!…पश्चात मेरी सीता जिसने बोहोत दुख उठाए थे… मेरे साथ वनमें रही…. मेरे विरह में कितने अश्रु बहाए थे …. मुझसे अनन्य अगाध प्रेम करते हुए मुझसे दूर रही ओर फिर भी मुझसे इतना प्रेम करती रही की उनसे बड़ी कोई पतिव्रता तीनों लोकों में नही है… आज भी वही मेरी आत्मा है इस अवतार में श्री राधा बनी है… आज भी वही प्रेम वही विरह वही प्रतीक्षा ….. चुप हो गए थे कान्हा …. आँखोसे अश्रु बहने लगे थे…. फिर कहते है…. यही तो है प्रेम जो प्रतीक्षा करता है…. चारो रानियो के भी नयन भर आते है… अपने आप को संभालते है द्वारिका नाथ… थोड़ा शांत होते है फिर कहते है… दाऊ भैया मेरे जेष्ठ तब लक्ष्मण थे मेरे अनुज थे…. तब भी उनको बोहोत क्रोध आता था… पर मुझसे इतना प्रेम की भातृ प्रेम का आदर्श बन गए इस संसार में….
( शेष भाग कल )
[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग ४ )
१४/८/२२

कृष्ण अपने राम अवतार की स्मृतियों में है…. बड़े प्रसन्न है सुनते हुए… आगे कहते है मेरी माताएं कितनी वात्सल्य से भरी हुई ममता का साक्षात मूर्तिमंत रूप…. इतना प्रेम इतना प्रेम करती थी की मुझे भी अपने सौभाग्य पर गर्व होने लगता था…. जिन्हे माता पिता का प्रेम और स्नेह मिले उनसे अधिक भाग्यशाली तो स्वर्ग के देवता भी नही है… मुझे तो तीन तीन माताओं का प्रेम मिल रहा था… सबसे अधिक प्रेम तो माता कैकई करती थी मुझसे…. हमेशा कहती राम मेरे पुत्र मैने क्यू तुझे जन्म नही दिया…. तू मेरे कोख से क्यू नही जन्मा राम….!! कितनी भोली थी मेरी माता कैकई…. शुद्ध हृदय का भाव था उनका की मैं उनके उदरसे जन्म लू…. तो मैने इस अवतारमे उनके ही पेट से जन्म लिया… रनिया आश्चर्य चकित हो कर बोली माता देवकी…?? कृष्ण कहते है … हा माता देवकी ….. रुक्मिणी रानी बीच में ही पुछती है तो … मैया यशोदा कौन है .. ?? रानियों की अधीरता अपनी जगह है… श्रीनाथ मुस्कुराते हुए कहते है…. मैया यशोदा ही माता कौशल्या है जिनकी अधूरी ममता…वो वात्सल्य वो प्रेम जो माता मुझ पर लूटना चाहती थी उसी कारण मैं मैया यशोदा का कान्हा बना…. सारे अवतारों में जितना वात्सल्य प्रेम मिलना था मुझे वो सब मैया यशोदा ने इस अवतार में मुझ पर लुटाया है…अपने वात्सल्य, प्रेम, ममता से मुझे धन्य कर दिया है…. तीनों लोकों का स्वामी मैया के चरणों की धूल से धन्यता का अनुभव करता है… राम अवतार में हर पल तरसी थी मेरी माता अपने प्राण प्यारे पुत्र को प्रेम करने केलिए … माता का ममता भरा आचल तरसता रहा अपने पुत्र के लिए… इसीलिए माता कौशल्या बनी है मैया यशोदा… और माता सुमित्रा बनी है रोहिणी मैया… जिनके उदर से दाऊ भैया का जन्म हुआ… क्यू की लक्ष्मण की भक्ति देख सुमित्रा माता कहती थी लक्ष्मण ऐसा पुत्र बनना जो अपने बड़े भाई से इतना प्रेम करे , उसकी इतनी सेवा करे की संसार उस पुत्र की माता के सौभाग्य पर गर्व करे… मेरे ममता का कर्ज चुकाना पुत्र अपने राम भैया की पूरे मन और श्रद्धा से सेवा करना… तो हर जन्म मैं तुझे ही अपने पुत्र के रूप में चाहूंगी….. माता सुमित्रा इनका प्रेम तो अलौकिक था… अपने पुत्र को समर्पित कर दिया था माता ने क्या कहूं…. आँखे भर आती है द्वारिकाधीश के…. अपनी माताओं के प्रेम को स्मरण कर हृदय धड़कने लगता है…. एक माता ही होती है जो निस्वार्थ प्रेम की वर्षा करती है…. उसके प्रेम वात्सल्य को शब्दों में नही उतारा जा सकता है…. चुप हो जाते है कुछ क्षण……
( शेष भाग कल )
[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग ५ )
१५/८/२२

द्वारिका नाथ अपनी माताओं की स्मृतियों में खोए देख रुक्मिणी पूछती है… क्षमा नाथ पर एक शंका उत्पन्न हुई है मन में आज्ञा हो तो पुछु….?? कृष्ण थोड़ा जागरूक होते हुए कहते है … हा हा प्रिये पूछो… क्या शंका है…?? रुक्मिणी कहती है .. नाथ आपने कहा की कैकई माता श्री राम को सबसे ज्यादा प्रेम करती थी… पर उन्होंने ही तो राम को १४ साल वनवास में भेजा था…जनक कुमारी सीता और लक्ष्मण को भी वनवास भोगना पड़ा…. उनकी वजह से ही तो श्री राम के पिता और तीनों रानियों के पति महाराज दशरथ ने पुत्र वियोग में तड़प तड़प कर अपने प्राण गवा दिए थे…. ऐसी स्त्री कैसे किसी से प्रेम कर सकती है…. ये बात सुनते ही कृष्ण के हृदय को जैसे चोट लगी हो ऐसे चीत्कार उठे… नही नही रुक्मिणी ऐसा नहीं है… माता कैकई तो ममता का पावन रूप है… माता माता होती है… उनके वात्सल्य पर सन्देह नहीं करते…. मेरी माता कैकई ने तो कितना प्रेम दिया है मुझे… मैं राम तो उन्ही के हाथों से भोजन करता था… माता कौशल्या खिलाती पर जब तक माता कैकई मुझे अपने हाथों से भोजन ना कराए मेरा तो पेट ही नही भरता था…. कितना बड़ा हो गया था मैं फिर भी मेरी माताएं मुझे स्नान करती , भोजन कराती, प्रेम से सुलाती… क्या क्या बताऊं आप रानियों को मैं…. हम चार भाई थे पर सब का ध्यान बस मेरी और ही होता था… माताएं पिताश्री इनके साथ साथ मेरे तीनों भाई भी मुझसे इतना प्रेम करते थे की मेरे ही सुख की कामना करते थे…. मेरे भाई ही मेरे परम भक्त परम प्रेमी थे…. उनकी वाणी , विचार ,व्यवहार, कर्म सब मेरे सुख के लिए समर्पित थे…. और सब मेरी माताओं ने ही संस्कार दिए थे…. कैकई माता का ही तो प्रेम था जो भरत मेरा प्रिय भाई मेरा परम भक्त था… ऐसा भाई और ऐसा भात्रु प्रेम ना भूतो ना भविष्यति है… सत्यभामा बीच में ही बोलती है…. हा कैकई माता तो अच्छी थी पर उनकी वो दुष्ट दासी थी ना मंथरा उसने उनकी मति भ्रष्ट कर दी थी… बड़ी दुष्टा थी कहते है…. एक युग बीत गया पर उसका नाम संसार में किसीने नही रखा…. मैने तो सुना था की जब कोई दुष्ट स्त्री इस तरह किसके संसार को उद्वस्त करती है तो उसे मंथरा कहा जाता है…. क्या ये सत्य है नाथ…?? अपने प्रिय पति की और देखते हुए सत्यभामा रानी पुछती है…. तभी कालिंदी रानी कहती है …. हे नाथ कृपा कर आप मंथरा की पूर्ण कहानी सुनाए…. कृष्ण मुस्कुराते हुए हा में गर्दन हिलाते है…. जामवंती रानी भी कहती है हा नाथ हम जानना चाहते है… कोई स्त्री इतनी दुष्ट कैसे हो सकती है … श्री राम जैसे प्रेम पूर्ण शांत स्वरूप परमात्मा का कोई द्वेष कैसे कर सकता है….?? नाथ कृपा कर मंथरा का पूर्ण स्वरूप समझाए ताकी हमारे साथ साथ संसार भी जान पाए की मंथरा क्या थी…..
( शेष भाग कल )
[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग ७ )
१८/८/२२

श्याम सुन्दर का रूप तेजस्वी गौर वर्ण हो गया था…. जब जब युग बदलता है तब तब कान्हा ने रूप बदला है… आज राघव की भूमिका में दिखायी दे रहे है…. आगे सुनाते है…. ये जो मंथरा थी, ये दासी तो थी पर दाई भी थी माता कैकयी की इसीलिए राज महल में लोग उसे मान देते और माता कैकयी उसे माता का स्थान देती…जो बाते नही जचती उनकी उन बातों को अनदेखा करती… मंथरा वाक चातुर्य में माहिर थी…. अपने तर्क वितर्क से वो अपनी बात सामनेवाले को मनाकर ही छोड़ती…. अकसर स्वार्थ पूर्ण लोग इस तरह व्यवहार करते है… मंथरा राज कुमारी के मन और बुद्धि पर अपना प्रभाव डालती … मीठी मीठी बाते करके अपने प्रेम का प्रदर्शन शब्दों में करके राजकुमारी को ये अनुभव कराती की वो उनके लिए कितना समर्पण करती है… मंथरा कितना प्रेम करती है राजकुमारी से… जन्म से वही उनकी देख भाल अपनी पुत्री जैसी कर रही है… ये कपटी वृत्ति होती है जो बार बार बुद्धि से तर्क देकर ये सिद्ध कराती है की वो ही संसार में सबसे अधिक प्रेम करती है…. मंथरा बाल्य अवस्था से राजकुमारी कैकयी पर इसी प्रकार अपना अधिकार जताती थी…. उसे कोई भी राज कुमारी के निकट आना भाता ही नही था… ये उसका ना प्रेम था ना ममता थी ना वात्सल्य था… ये उसका अभिमान था… के मुझसे अधिक प्रेम राजकुमारी को कोई नहीं करता… मुझे ही राजकुमारी की बड़ी चिंता होती है , इनकी पूरे मन और समर्पण से मैं ही देख भाल करती हु….इस प्रकार अपने मन में कुटिल भाव से वो राजकुमारी की सेवा कर रही थी…. अब सुनो मेरी माता कैकयी कैसी थी…. कान्हा का मुखमंडल ये कहते ही दमक उठा… आज भी वो माता कैकयी से कितना प्रेम करते है ये स्पष्ट उनके मुख पर दिख रहा था… वो भाव उनके हृदय का वो माता के प्रति प्रेम… छिप नही रहा था… रानियों के मन में आ रहा था कितने प्रेमपूर्ण है ये कान्हा… नही नही राघव, राम… सब के हृदय भी प्रेम से भर रहे थे…. बताएं नाथ कैसी थी माता कैकयी…?? रुक्मिणी ने पूर्ण श्रद्धाके साथ पूछा…. चमकते हुए मुखमंडल पर स्मित की लकीर पूनम के चंद्रमा की छबि दिखा रही थी…. कान्हाने मन मोहन मुस्कान के साथ सब की और एक दृष्टि डाली… और कहा… प्रिय रानियों सुनो प्रेम गीता में आपने प्रेम का समर्पण सुना था… अब ममता का समर्पण का अनुभव करोगी…. कहते हुए आंखे बंद हो गई थी कान्हा की… फिर धीरे से आंखे खोलते हुए कहा… मेरी माता कैकयी बोहोत ही सुंदर थी… रूपवती थी ऐसा रूप था माता का की त्रेतायुग में शायद ही कोई उनके जैसी सुन्दर कोई हो… केवल रूप ही नही था… गुणों की भी खान थी माता कैकयी… सारी कलाओं में माहिर थी… नृत्य कला, चित्र कला, उसके साथ साथ युद्ध कला में भी माहिर थी… अश्व चलाना… रथ चलाना… तलवार बाजी… धनुष्य विद्या इन सब में बोहोत कुशल थी… सर्व गुण संपन्न थी मेरी माता कैकयी… फिर भी हृदय अत्यधिक कोमल था मेरी माता का अहंकार का लवलेश तक नहीं था.. इतनी प्रेमपूर्ण थी की सबसे निस्वार्थ प्रेम करती इसीलिए तो माता कैकयी उनके माता पिता भाइयों की सबसे लाडली सबसे दुलारी थी… कैकया राज्य की जनता भी राजकुमारी से बोहोत प्रेम करते थे… युद्ध के समय किसी शूरवीर की तरह ये राजकुमारी सबसे आगे रहकर अपने राज्य का सौरक्षण करती थी… ऐसी पराक्रमी योद्धा होते हुए भी हृदय में दया करुणा और प्रेम का सागर भरा हुआ था… ऐसी अद्भुत थी माता कैकयी…..
( शेष भाग कल )
[4/5, 10:41 PM] Niru Ashra: कृष्ण की मंथरा
( भाग ६ )
१७/८/२२

अपनी रानियों की जिज्ञासा देख द्वारिका नाथ आनंदित है…. नायक, नायिका की भूमिका को सारा संसार पसंद करता है… पर नकारात्मक भूमिका करने वालों को कोई जानना नही चाहता… उनमें रुचि नहीं दिखाई जाती पर ये रानियां प्रेम गीता में डूब कर आई है अब इनका हृदय परम शुद्ध पवित्र बन चुका है… द्वारिकाधीश भली भांति जानते है इस बात को…. कृष्ण कहते है अच्छा तो चलो आपको मंथरा की कहानी सुनाता हूं…. तभी रुक्मिणी कहती है एक क्षण रुके नाथ बाकी सारी रानियों को भी बुला लूं…. ताकि सब ये कथा सुन सके… कृष्ण मुस्कुराते है … कहते है ठीक है…. बुला लो…. रानी तुरंत एक दासी को भेजती है महल की ओर संदेशा लेकर की सबको गोमती तट पर महाराज बुला रहे है…. कुछ ही क्षणों में सारी रानियां प्रसन्न चित्त से पधारी है… अब सारी रानियां उस वृक्ष को गोल मंडल बना कर बैठी है बीच में कन्हैया बैठे है…. आज तो ये रनिया उनकी गोपियां लग रही है… श्यामसुंदर को घेरे हुए बैठी है… अब द्वारिका के नाथ नही है अब तो ये गोपियों के कान्हा है जो फिर से प्रेम भरा नया ज्ञान देने जा रहे है… सब एकाग्र मन और चित्त से कान्हा की ओर देख रही है… कान्हा कहते है…. आज आप सभी को मंथरा की कहानी सुनाता हूं…. कैकया राज्य के राजा थे अश्वपति कैकाया नरेश… इसी राज्य के नाम से महाराज अश्वपाति ने अपनी पुत्री का नाम रखा था कैकयी…. ये अश्वोके महा नायक थे राजा थे इसीलिए इन्हें अश्वपति कहा जाता था… इनको एक वर प्राप्त था जिससे उन्हें सारे प्राणी पशु पक्षियों की भाषा समझ आती थी… कैकया नरेश के सात पुत्रों थे और एक ही पुत्री थी कैकई इसलिए वो अति लाडली थी सबकी…. कैकया राज्य की महारानी की प्रिय दासी थी मंथरा जो जन्म से राजकुमारी कैकयी की देखभाल करती थी… बाल्य कालसे मंथरा राजकुमारी को बोहोत प्रेम करती थी… लाड़ दुलार करती उनकी सेवा करती हर पल उनके साथ ही रहती….मंथरा का रूप कुछ इस प्रकार था… काली आंखे बड़ी बड़ी थोड़ी बाहर निकली हुई थी… रंग काला सावलासा था… नाक सीधी और नथुनिया फूली हुई… थोड़े दांत भी बाहर निकले हुए… काले घुंगराले केश….शरीर पुष्ट था ऊंचाई भी काफी थी… मंथरा दिखने में इतनी सुंदर तो नही थी पर राज महल में रहकर और महारानी की प्रिय दासी थी महारानी उसे अपनी सखी की तरह रखती थी… उसपर मंथरा ने राजकान्या कैकयी का पूर्ण पालन पोषण का दायित्व भी संभाल रखा था… इस कारण वो बड़े थाट में रहती थी… राजवस्त्र परिधान करती अलंकार परिधान करती जिससे उसे लगता की अब वो बोहोत सुंदर दिखती है…. अहंकार भी बोहोत था मंथरा में सारी महल के दास दासियो पर अपना ठोस जमती थी… रानी की प्रिय होने के कारण कई उसकी शिकायत नहीं करता… मंथरा स्वभावतः बोहोत चतुर , चालाक, बुद्धिमान, कपटी और अहंकारी थी…साथ ही वो लोभी लालची भी थी और राज ऐश्वर्य में आरामदाई भोग विलास में जीवन व्यतीत करना यही उसके जीवन का उद्देश था… जिसे वो राजकुमारी कैकयी के सहयोग से पूरा करना चाहती थी…. कान्हा बड़े ही धीर गंभीर स्वर में सुना रहे थे जैसे कान्हा नही राघवेंद्र खुद सुना रहे हो…. सारी रानियां भी बड़े ध्यान से सुन रही थी…….
( शेष भाग कल )

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