जय श्री राधे राधे जी।
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जगद्गुरु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी महाप्रभुजीके प्राकट्योत्सव की मंगल वधाई के अवसर पर !
एक समय श्री महाप्रभुजी श्री गोकुल मे विराज रहे थे।
वहां एक वैष्नव मिश्री (साकर) की गाडी भरके श्री यमुनाजी के किनारे आया। उसके मन मै यह मनोरथ था कि श्री ठाकूरजी को मिश्री बहोत प्रिय है। क्योकि उसमे सब रस के रूप है। इसलिये श्रीमहाप्रभुजी श्रीठाकुरजी को एक दो बार मिश्रीका भोग धराते है। यह सोचकर वो मिश्री की गाडी भरकर लाया था।
श्री महाप्रभुजी शमी (छोकर) के वृक्ष के निचे विराज रहे थे।
सवसे पेहले आके उस वैष्णव ने श्री महाप्रभुजी को दण्डवत किए और बोला हे कृपानाथ मै यह मिश्री की गडी आपश्री को भेट करना चाहता हु। श्रीमहाप्रभुजी ने कहा सब मिश्री यहां लाओ।
वैष्णव ने सब मिश्री लेके श्री महाप्रभुजी के सन्मुख कर दी। फिर श्री महाप्रभुजी ने आज्ञा की कि इस सब मिश्री के छोटे छोटे टुक करो। इस प्रकार सब मिश्री के छोटे छोटे टूक कर सिद्ध किये।
फिर सब मिश्री श्री महाप्रभुजी ने अपने श्री हस्त से श्री यमुनाजी मे पधरादी। श्री ठाकुरजी और श्री स्वामनीजी (राधाजी) को अंगीकार करा दी। ये देखकर उस वैष्णव को लगा कि मेरा श्रीनाथजी और श्रीनवनीतप्रियाजी को अंगीकार कराने को मनोरथ पुर्ण नही हुआ। उसका मुख उतर गया वह बहुत अस्वसथ हो गया। उसे मन मे लगा कि मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ की श्री महाप्रभुजी ने तो जरा भी मिश्री अंगीकार नही की और ना श्रीनाथजी को ना श्री नवनीतप्रियाजी को अंगीकार कराये बिना सब मिश्री श्री यमुना जी मे पधरा दी। यह चिंता उस वैष्णव को सताने लगी।
यह देख कर श्री महाप्रभुजी ने उस वैष्णव से कहा कि तु उदास क्यो हो रहा है। उस वैष्णव ने नम्र भाव से विनती करी कै हे कृपानाथ मुझको आपका दर्शन हुआ येही बहुत भाग्य की बात है। मै उदास क्यो होऊंगा।
श्री महाप्रभुजी ने कहा की श्री यमुनाजी मै तेरी मिश्री पधरायी तु इस लिये उदास हुआ है। यह सुनकर वैष्णव ने कहा महाराज आप जो भी करो हो वो हमारे जैसे को भलो विचार के ही करो हो। हमारी बुद्धी तो लौकिक द्रष्टी को देख कर विचारे है। हम तो इस बारे मै अनजान है।
फिर श्री महा प्रभु जी ने कहा के तुम संदेह मत करो तुमहारी सब मिश्री इसमे अंगीकार करायी है। क्योंकि श्रीनाथजी, श्रीनवनीतप्रियाजी और सब ब्रज भक्तो के साथ पधारके अंगीकार करेंगे। तुमको इस बात का ज्ञान नही तुमको मै इन सबके अलौकिक दर्शन कराऊंगा।
यह कह कर श्रीमहाप्रभुजी ने हाथ मे जल लेके वेद मंत्र पढ़ा। उस वैष्णवकी आंख पर छांटा। फिर उस वैष्णव कि द्रष्टी दिव्य हो गयी। और उसने देखा तो श्रीनाथजी सात स्वरूप सहित और स्वामनीजी के साथ सब ब्रज भक्तो सहित मिश्री अंगीकार कर रहे थे।
इस प्रकार दर्शन कराके पिछे दर्शन अद्श्य कर दिये।
इस प्रकार के दर्शन करके वैष्नव का रोम रोम आन्नद से भर गया।
उसने फिर श्री महाप्रभुजी को दण्वत किए और विनती की महाराज अपनी कृपा मुझ पर सदा रखना। मेरा सब मनोरथ आपश्रीने पूरा किया।
दो दिन वह वैष्णव वही रहा मन का समाधान करके वापिस आगरे आ गया और श्री ठाकुरजी की सेवा मे लीन होके पुरे स्नेह से सेवा करने लगा।
श्री वल्लभाधीश की जय हो!
जय श्री कृष्ण जी।
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