!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्वाविंशति अध्याय:)
गतांक से आगे –
कृष्ण बोलो , हे प्रिया ! कृष्ण कहो ,
कृष्ण ही हैं सार , कृष्ण ही हैं सर्वस्व , जीवन धन वही तो हैं ।
हे प्रिया ! कृष्ण के सिवा सब मिथ्या है सब झूठ ।
निमाई भी माँ के साथ बाहर आगये थे ….विष्णुप्रिया बाहर रो रही थी ….उसने सब सुन लिया था गया तीर्थ में उनके प्राणेश्वर के साथ क्या क्या घटना घटी थी ।
प्रिया की ओर देखकर गया से आने के बाद निमाई पहली बार बोले थे …
कृष्ण जीवन , कृष्ण मरण , कृष्ण ही हैं प्राणधन ….इसके सिवा और क्या ?
शचि देवि ने देखा – विष्णुप्रिया कातर दृष्टि से अपने पति को देख रही थी …..
शचि निमाई को सम्भाल कर भीतर ले गयी …प्रिया भी भीतर ही चली आई थी ।
माँ ! मेरा श्राद्ध कर्म पूरा हो गया था …हम लोग वापस अपने निवास में आगये थे ….मैंने ही कहा अपने मित्रों से ….आप लोग अब कहीं घूमना चाहो तो घूम लो ….मैं भोजन बना दूँगा । वो मान नही रहे थे पर मैंने ही उन्हें भ्रमण के लिए भेज दिया …और स्वयं भात और दाल बनाने लग गया ।
अपनी माँ शचि को निमाई गया तीर्थ का शेष वृत्तान्त बताने लगे थे ।
तभी – पण्डित निमाई !
मधुर आवाज मुझे फिर सुनाई दी । मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वही सन्यासी थे ..श्रीईश्वर पुरी जी ।
उनको देखते ही फिर मुझे रोमांच होने लगा था ….मैं भाव में पूर्ण डूब गया था । मैंने वहीं से साष्टांग ढोग लगाई ….पर उन कृपालु सन्यासी ने मुझे दौड़कर अपने हृदय से लगा लिया था …माँ ! उनका वो प्रेमपूर्ण स्पर्श …..मैं रो उठा ….मेरे नेत्रों से सावन भादौं की तरह जल बरसने लगे ….
पण्डित निमाई ! आखिर चाहते क्या हो ? उन दयालु सन्यासी ने मुझ से पूछा ।
श्री कृष्ण को चाहता हूँ …श्रीकृष्ण के दर्शन मुझे मिलें ….बस इतनी कृपा करिये नाथ !
ये नही कुछ और माँगों ….धन दे दूँ ? ना धनं, न जनं ….नही प्रभु ! मुझे धन जन कुछ नही चाहिये …बस कृष्ण से मिला दीजिये …मुझे श्रीकृष्ण के दर्शन हों ऐसी कृपा कीजिये ।
ये कहते हुए निमाई की फिर हिलकियाँ बंध गयीं थीं …..माँ ! उसी समय उन सन्यासी श्रीईश्वरपुरी जी ने मेरे कान में एक कृष्ण मन्त्र फूंक दिया ….गोपी जन बल्लभाय नम: इस मन्त्र के मिलते ही मुझे तो पता नही क्या हुआ ! मैं उन्मत्त हो गया …मैं सिर पटकने लगा …भूमि पर लोट पोट होने लगा ….पर वो सन्यासी महात्मा वहाँ से चले गये थे । पर मेरी ये स्थिति और और विकट होती जा रही है ….निमाई अपने अश्रुओं को पोंछकर शचि देवि से बोले ….तू तो मेरी माँ है अब तू ही बता , मैं क्या करूँ ? मुझे क्या करना चाहिये जिससे मुझे कृष्ण मिलें …माँ ! कृष्ण मिलेंगे ना ? बोल माँ ?
शचि देवि ने सिर में हाथ रखा निमाई के , और कह दिया ….हाँ , तुझे श्रीकृष्ण मिलेंगे । निमाई इतना सुनते ही उठकर खड़े हो गये ….माँ ! सच , वो मुझे मिलेंगे ? शचिदेवि रो रही हैं ….फिर तू क्यों रो रही है ? तभी विष्णुप्रिया बोल उठी …..उससे अब ये सब सहन नही हो रहा था ….माँ ! आप क्यों इन सब बातों को आगे बढ़ा रही हो ? अरे , किसी वैद्य को बुलाओ ..इन्हें दवा आदि दो …इनको झाड़ फूंक कराओ ….इनके नाम का कुछ जाप कराओ । माँ ! मेरी प्रार्थना है किसी अच्छे पण्डित को बुलवा कर अनुष्ठान करवाओ । शचि देवि ने देखा विष्णुप्रिया अज्ञात भय के कारण भयभीत थी …..और ये स्वाभाविक भी था ।
शेष कल –


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