!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( षड् विंशति अध्यायः )
गतांक से आगे –
लेट गयी है विष्णुप्रिया अपने पर्यंक में …और नाना कल्पनाओं में अपने को रंग लिया है ।
मेरे प्राणेश आयेंगे । आयेंगे ? हाँ क्यों नही आयेंगे ! मुझ से प्रेम करते हैं …बहुत प्रेम करते हैं …तभी तो मुझे कह रहे थे – मेरे कपोल के अश्रुओं को पोंछते हुए कि – तू रोती बहुत है ।
आप रुलाते हो ….हाँ , क्यों रुलाते हो ? दया नही आती ? आपको जगत पर दया आती है …पूरे विश्व ब्रह्माण्ड पर अपनी कृपा बरसाते हो …पर मुझ पर ? अपनी ही प्रिया पर इतनी कठोरता क्यों ?
वो फिर द्वार की ओर देखती है ….वे आयेंगे । उठकर खड़ी हो जाती है …मुझे सोया हुआ देखेंगे तो चले जायेंगे …इसलिये मुझे बैठ जाना चाहिये । प्रिया का हृदय आज बहुत तेजी से धड़क रहा है ….मेरे स्वामी मुझे छुएँगे । उफ़ ! उनकी छुअन मुझे मार देगी ।
रोमांच हो रहा है प्रिया को । नव यौवन खिल रहा है इसका । सुरभित अंग अंग है …वो अपने अंगों को देखती है और स्वयं ही शरमा जाती है ।
द्वार किसी ने खटखटाया ….वो दौड़ी – मेरे प्राणेश आगये । पर नही ….द्वार खोला तो कोई नही था । वो बाहर देखती रही ….पर हवा के कारण द्वार हिला था । दुखी होकर भीतर आगई …फिर बैठ गई ….द्वार बन्द तो करके आऊँ …वो फिर उठी और द्वार बन्द कर ही रही थी कि ….”द्वार बन्द देखकर कहीं लौट गये मेरे प्रियतम तो ?
नही …खुला ही छोड़ देती हूँ ….वो द्वार खुला छोड़ कर फिर आकर बैठ गई । हवा तेज चल रही है आज ….बिजली भी चमक रही है …डर जाती है प्रिया बादलों की गर्जना से ।
आइये ना नाथ ! आइये , मुझे डर लग रहा है …आज अकेले में मुझे डर लगेगा ….आपके उन गौर वक्ष में आपकी ये दासी अपना सर्वस्व न्योछावर करना चाहती है …नाथ ! आइये ना ! प्रतीक्षा बढ़ती ही जा रही है …एक एक क्षण अब इसे युगों समान लग रहे हैं । क्या नही आयेंगे ? मान जाग गया मन में ….न आयें…अब मैं भी आपसे बात नही करूँगी । उफ़ ! ये प्रेम देवता जो कराये वो कम ही है । अद्भुत मानिनी बन गयी कुछ ही समय में ….विष्णु प्रिया उठी और अपने कक्ष का द्वार लगा लिया …..लेट गयी ….शून्य में तांकती है …फिर कुछ आहट हुई ….ध्यान से सुना उसने – कहीं उनके पदचाप तो नही ?
नही …..बिगाड़ दिया सजा हुआ वो बिस्तर …..मान बढ़ गया प्रिया का ।
अब नही , अब तो वे आयें …द्वार खटखटायें फिर भी न खोलूँगी ।
क्यों खोलूँ ? मेरे से आपका क्या मतलब ? आप तो बड़े कठोर हो …सो गये ? तो जाओ सो जाओ …मुझे भी कोई मतलब नही है ….मैं भी सो रही हूँ ….इतना कहकर विष्णुप्रिया करवट बदल कर सोने लगती है ….तभी फिर ….हवा के कारण द्वार हिलता है …..वो बेचारी फिर उठती है …दौड़ पड़ती है द्वार की ओर …..पर नही …अरे ! निमाई यहाँ कहाँ हैं …..वो तो कीर्तन करने गये हैं आज से रात्रि में उनका संकीर्तन चलेगा । रात भर वो नाचते रहे ….”हरि बोल” कहकर उछलते रहे ….और इधर बेचारी विष्णुप्रिया ने पूरी रात करवट बदल बदल कर बिता दी ।
भोर होने को है …..विष्णुप्रिया उठी …आज कुछ बिलम्ब हो गया उठने में ….भोर से कुछ पूर्व ही तो इस प्रिया को झपकी आई थी ….तभी उठना पड़ गया ।
शचि माँ गंगा नहाने गयीं हैं ….प्रिया अपने केशों को बाँध लेती है ….साड़ी का पल्लू कमर में खोंस लेती है …और आँगन-घर की सफाई …कि तभी ….निमाई आगये ….चौंकी प्रिया …आप घर में नही थे ? निमाई की आँखें लाल हैं …प्रिया देखती है – इसे रुष्ट होने का हक़ है ।
नही , मैं घर में नही था …..निमाई ने कहा ।
कहिये फिर कहाँ से आरहे हैं ? ये आपकी आँखें अरुण कैसे हैं ? आपका देह अलसाया हुआ क्यों है ? कहाँ रात बिता कर आये हैं ? बोलिये ? हे स्वामी ! आपसे कैसी प्रीति ?
इस देह को किसने छुआ ? बोलिये ? वो कौन रसवती है…जिसके साथ रात बिता कर आये हो ? जाओ पहले गंगा नहा कर आओ ।
निमाई ने विष्णुप्रिया का ऐसा रूप देखा नही था ….वो देखते रह गये ।
विष्णुप्रिया को इकटक देखने के बाद निमाई मुस्कुराये ….ओह! इन गौरांग की इसी मुस्कुराहट में तो जादू है ….सारी शिकायतें समाप्त हो गयीं ……
हे प्रिया ! इस तरह रुष्ट मत हो ….और तुम्हारे इन कमल समान मुख से ऐसे कटु वचन शोभा नही दे रहे । मैं तो रात्रि भर कृष्ण नाम संकीर्तन में मग्न था ….हाँ मुझे कृष्ण नाम रूपी मदिरा ने मत्त कर दिया …रात भर मत्त था ….उसी के परिणाम स्वरूप ये मेरे नेत्र अरुण लग रहे हैं । मैं क्या करूँ ?
ये कहते हुये निमाई ने अपनी प्रिया को हृदय से लगा लिया । ओह ! विष्णुप्रिया का मान समाप्त हो गया था । उसके हृदय में आनन्द की हिलोरें अब चल पड़ीं थीं ।
अकेले अकेले कृष्ण नाम मदिरा छकते हो …गलत बात है स्वामी ! क्या इस दासी को कभी नही चखाओगे ? प्रिया ने ये बात कही …तो निमाई बोले …ओह ! तो कल ही कृष्ण लीला हम लोग कर रहे हैं …यहीं पास में ….तुम माँ के साथ आना ।
लीला में आप भी कुछ बनेंगे ? प्रिया ने हास्य में पूछा ।
हाँ , मुस्कुराते हुए निमाई बोले ….पर तुम मुझे पहचान नही पाओगी ?
मैं नही पहचानूँगी ? लाखों में पहचान लुंगी आपको ।
निमाई मुस्कुराते हुये भीतर चले गये ….पर आप बनेंगे क्या ? प्रिया ने पूछा ।
देख लेना …अभी बताऊँगा तो फिर पहचान ही जाओगी ।
आप तो स्त्री भेष धारण करना अच्छे लगोगे …..विष्णुप्रिया खूब हंसी ।
जैसे ? निमाई ने पूछा ।
जैसे – श्रीराधारानी …..प्रिया ने जैसे ही ये कहा …..
हा राधे ! हा राधे ! कहते हुए निमाई फिर भावावेश में आगये थे ।
शेष कल –


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