!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 38 !!
प्रेम में “मैं” कहाँ ?
भाग 2
महर्षि शाण्डिल्य नें वज्रनाभ को समझाया ….
….अहंकार बाधक है प्रेम मार्ग में ।
तो क्या गोपियों के मन में अहंकार आया ?
हाँ वज्रनाभ ! महर्षि नें कहा ।
कैसा अहंकार गुरुदेव ? और फिर क्या श्रीश्याम सुन्दर नें उन्हें छोड़ दिया……त्याग दिया ? एक ज्ञानी और योगी की भाँती इन प्रेमियों का भी पतन हो गया ?
नही वज्रनाभ ! नही ……..योगियों की तरह और ज्ञानियों की तरह प्रेमियों का पतन नही होता ……क्यों की प्रेमियों को सम्भालनें वाला स्वयं उसका प्रेमास्पद उसके साथ होता है ….उसके पीछे होता है ।
वो गिरनें नही देगा तुम्हे………अगर गिर भी गए तो वह तुम्हे अपनी बाँहों में भर लेगा…….हाँ वज्रनाभ !
पर उस अहंकार के रहनें तक वो इतना रुलाएगा ……कि तुम्हारा समस्त “मैं” भाव……बहा देगा…….निर्मल बना देगा तुम्हे वो ।
पर ऐसा हुआ क्या था उस रास मण्डप में ?
वज्रनाभ के प्रश्न बार बार पूछनें पर महर्षि आगे का चरित्र सुनानें लगे ।
श्याम सुन्दर ! ओ श्याम सुन्दर !
हाँ क्या है ?
श्याम सुन्दर ! मेरे केश बिखर गए हैं इन्हें बाँध दो !
श्याम सुन्दर ! ओ ! फिर दूसरी गोपी नें पुकारना शुरू किया ।
मेरे नाचते नाचते पसीनें आरहे हैं……अपनी पीताम्बरी से हवा कर दो !
श्याम सुन्दर उस गोपी को हवा करते हैं ….
..पहली गोपी के बालों को सुलझा देते हैं ।
“मेरे तो पैर दूख रहे हैं……मुझ से नही नाचा जाएगा “
बोलो ! बोलो ! नाचना है क्या मुझे ?
.श्याम सुन्दर से ही पूछती है वो गोपी ।
हाँ …..तुम अच्छा नाचती हो ……..श्याम सुन्दर मुस्कुरा के कहते ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –


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