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July 8, 2025 9:43 am

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!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!- अष्टाविंशति अध्याय : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!- अष्टाविंशति अध्याय : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!

( अष्टाविंशति अध्याय: )

गतांक से आगे –

मैं ऐसे नही जाऊँगी पृथ्वी लोक ! प्यारे , मुझे पृथ्वी लोक ले जाना है तो साथ में श्रीवृन्दावन , गिरिराज पर्वत यमुना ये सब भी जायेंगे ….तभी मैं पृथ्वी लोक जाऊँगी ।

मैं श्रीवृन्दावन के बिना रह नही सकती ….मैं यमुना के बिना कैसे रहूँगी ….मुझे ये सुन्दर सुन्दर कुँज चाहिये ।

हुआ ये कि निमाई श्रीराधिका के भेष में ही थे ….भेष में ही नही उसी भाव में स्थिर थे ….विष्णुप्रिया को जैसे ही हृदय से लगाया तो उन्हें ये बात स्फुरण हुई । इसलिये श्रीराधा का ही आवेश इनको आगया ।

मैं श्रीवृन्दावन जाऊँगी …क्यों की श्रीवृन्दावन मेरे प्राण हैं ….
सखी ! तू कुछ बोलती क्यों नही है ? निमाई ने प्रिया को झकझोरा …बेचारी प्रिया …जैसे तैसे तो अपने प्रियतम निमाई का सुखद आलिंगन पा रही थी । तभी निमाई को ये आवेश आगया था ।

शचिदेवि ने आकर सम्भाला …निमाई तो मूर्छित ही हो गये थे । शचि देवि ने निमाई की साड़ी उतार दी …काजल पोंछ दिया …माथे की बिन्दी हटा दी ….केश जो जूड़ा बने थे उन्हें बिखेर दिया …धोती पहना दिया । पर विष्णुप्रिया का दाहिना अंग फड़क रहा है ….ये शुभ नही है …इसलिये ये डर रही है । माँ ! माँ ! दाहिना अंग का फड़कना अशुभ है क्या ? ….शचिदेवि ने अपनी इस भोली बहु को देखा …इसकी आँखों में भय था …..दाहिना अंग तो शचिदेवि का भी फड़क रहा है …..पर ये कहे किससे ? बहु को भी कह देगी कि मेरा भी दाहिना अंग फड़क रहा है तो ये और भयभीत हो जाएगी ।

माँ ! आपके ज्येष्ठ पुत्र ने भी सन्यास लिया था ?

ये प्रश्न आज विष्णुप्रिया क्यों कर रही है ? शचि देवि का हृदय काँप गया …

शचि देवि क्या बोले ….वो सच नही बोल सकती ..शचिदेवि ये नही कह सकती कि बेटी ! इसी तरह उस दिन भी मेरा दाहिना अंग फड़का था जब विश्वरूप ने सन्यास लिया था ।

प्रिया ! ये प्रश्न क्यों कर रही हो ? शचि देवि ने पूछा ।

नही,
मैं कल कृष्ण लीला में ये बात सुन रही थी कि आपके ज्येष्ठ पुत्र ने भी सन्यास लिया था और ……..

और क्या ? बोल और क्या प्रिया ? कि अब आपके इन पुत्र की बारी है । शून्य नेत्रों से प्रिया अपनी सासु माँ को बोलती है …..वो इस समय अपने में नही है ….भयभीत है …बहुत भयभीत है ….ये प्रश्न करते हुये ये काँप रही है ……शचिदेवि ने तुरन्त विष्णुप्रिया को पकड़ कर अपनी छाती से लगा लिया …..प्रिया ! ऐसे अशुभ बोली मत बोल ….निमाई सन्यास नही लेगा ।
रोते हुये शचि देवि प्रिया को यही कह रही थीं । पर शचि देवि का हृदय भी आज क्यों कह रहा है कि निमाई सन्यास लेगा । क्यों ?

तभी –

श्रीवृन्दावन , श्रीवृन्दावन , श्रीवृन्दावन …निमाई उठे हैं ….
उनके अन्त:करण में श्रीवृन्दावन छा गया है …वो बारम्बार यही नाम पुकार रहे हैं ।

वो गिरीगोवर्धन , वो यमुना , वो वन कुँज ….वो मेरा श्रीवृन्दावन । वो श्रीवृन्दावन जहां मेरे कृष्ण रास करते हैं ….माँ ! मुझे वहीं जाना है ….मुझे आज्ञा दो माँ ! मुझे जाने दो । निमाई अपने माता के चरणों में गिर गये हैं ….वो बारम्बार प्रार्थना कर रहे हैं । ये देखकर विष्णुप्रिया कोने में जाकर रो रही है ….पर निमाई शान्त नही हुये ….मुझे अब श्रीवृन्दावन भेज दो …मुझे अब श्रीवृन्दावन जाने दो ….निमाई की यही रट है ….सम्भालती है शचि देवि , पर हा वृन्दावन , हा वृन्दावन कहते हुये निमाई फिर मूर्छित हो जाते हैं ।


रात्रि की वेला हुई …संकीर्तन आज मुरारी गुप्त के यहाँ है …ये भी निमाई के परम भक्त हैं ।

मुरारी गुप्त के यहाँ भक्त लोग जुटने लगे थे …पर निमाई नही आये …तो मुरारी स्वयं गये , घर में निमाई की स्थिति बड़ी विलक्षण बनी हुई थी सात्विक भाव के सभी लक्षण निमाई में विद्यमान थे ।

मुरारी को देखते ही शचि माता ने कहा …मुरारी ! अब तुम्हीं सम्भालो …इस निमाई का उन्माद तो दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है । अब वृन्दावन जाऊँगा कह रहा है । मुरारी ने सम्भाला निमाई को …और कुछ देर में वो सम्भल भी गये ।

मुरारी निमाई को लेकर अपने घर आये ….भक्तों का जमावड़ा बना हुआ था ….निमाई को देखते ही …हरि बोल , हरि बोल , हरि बोल ….मृदंग और झाँझ भक्तों के बज उठे थे ।

संकीर्तन की ध्वनि से निमाई को आनन्द आया ….वो उछलने लगे ….वो मुट्ठी बाँध कर हुंकार भरने लगे । निमाई की स्थिति विचित्र थी ।

ये सब दो घड़ी भर ही चल पाया ….कि निमाई धरती पर मूर्छित हो गिर गये ।

सब लोग जल का छींटा मुख में देने लगे थे ….पर आज निमाई “कृष्ण” ना कहकर “वृन्दावन वृन्दावन” कह रहे थे …..उठकर बैठ गये …..स्थिति दयनीय है इस समय निमाई की….उनके अन्दर दैन्यता का उदय हो गया था ……मुझे वृन्दावन जाना है …आहा ! मुझे वृन्दावन में प्रवेश करना है …मुझे गिरी गोवर्धन का स्पर्श करना है …मुझे यमुना में डुबकी लगानी है ….मुझे कृष्ण वहीं मिलेंगे ….हाँ वो मुझे वृन्दावन में ही मिलेंगे । वृन्दावन , जो प्रेम की भूमि है …वृन्दावन जो भावमय देश है ….वृन्दावन जो भक्ति कि पावन धरा है ….वहाँ किसी धर्म का पालन नही किया जाता वहाँ केवल प्रेम धर्म है …वहाँ का प्रेम धर्म ही सभी धर्मों पर आरूढ़ है ….क्या आवश्यकता है अन्य धर्मों की जब प्रेमधर्म हो तो …..ये धर्म , निमाई अपने यज्ञोंपवीत को दिखाते हैं – ये धर्म है स्मार्त धर्म , पर प्रेम धर्म के आगे ये कुछ नही है …..निमाई आवेश में हैं ….और आवेश में ही वो अपने यज्ञोंपवीत को तोड़ देते हैं ….इसकी क्या आवश्यकता , प्रेम धर्म के आगे ये कुछ नही है …..मैं ब्राह्मण नही हूँ ….निमाई हुंकार भरते हैं …मैंने तोड़ दी जनेऊ …नही नही मैं क्षत्रिय भी नही हूँ ….मैं वैश्य कहाँ हूँ ….ना शूद्र हूँ ….निमाई आवेश में फिर कहते हैं ….मैं ब्रह्मचारी भी नही ….मैं गृही भी नही ….मैं न वानप्रस्थाश्रम में हूँ …और न सन्यासी ।

निमाई प्रभु ! फिर आप क्या हैं ? भक्तों ने पूछा ।

उठे निमाई नेत्रों अश्रु फिर बह चले …..मैं तो श्रीराधा के पति के भक्तों का दास हूँ …नही नहीं उनके दासों का भी दास हूँ ।

ये कहते हुये निमाई सबके पैर छूने लगे थे ……सबसे आशीर्वाद माँग रहे थे श्रीवृन्दावन जाने का ।


आकाश में बादल गर्जना कर रहे हैं …..प्रिया ! लगता है कुछ अनहोनी होने वाली है …..देख इस तरह बादल कभी गरजे नही थे …वर्षा होगी आज तू कपड़े उठा ले ….शचि देवि ने अपनी बहु से कहा । शचि देवि की बहु विष्णुप्रिया का हृदय आज काँप रहा है ….उनकी दाहिनी आँखें अभी भी फड़क ही रही हैं । विष्णुप्रिया कपड़े उठा लेती है …..और नीचे आजाती है …….ओह ! इस शियार को भी अभी रोना था ! विष्णुप्रिया चारों ओर देखती है । शियार इसी के घर की मुँह करके रो रहा है ….वर्षा भी तो …आज की वर्षा ऐसी लग रही है …मानों आकाश रो रहा है ….पर क्यों ? अज्ञात कुछ घटने वाला है !

जगत का भले ही मंगल हो …..पर विष्णुप्रिया के लिए तो अब अमंगल ही था ।

शेष कल –

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