उद्धव गोपी संवाद
( भ्रमर गीत)
६७ एवं ६८
कै ह्वैं रहौं द्रुम -गुल्म,-लता,बेली बन माहीं।
आवत जात सुभाइ,परै मो पै परछाहीं।।
सोऊ मेरे बस नहीं,जो कछु करों उपाई।
मोहन होहिं प्रसन्न जो,यै वर मांगो जाईं।।
– कृपा करि देहिं जो –
भावार्थ:
ऊधौ जी ब्रज गोपियों का कृष्ण के प्रति अनन्य भाव भक्ति,अनन्य प्रेम देखकर, स्वयं भी भाव विभोर हो गए हैं और अपने आप से कह रहे हैं कि मैं यहां के बनों में इन लताओं में कोई लता बन जाऊं ताकि आते जाते सुबह शाम इन गोपियों की, कान्हा की और सभी ब्रजवासियों की परछाईं भी मेरे ऊपर पड़ जाये तो मेरा जीवन सफल हो जाय। लेकिन यह मेरे बस में नहीं है,यह सब तो मोहन ही मेरे ऊपर प्रसन्न होकर कृपा करें तो मैं उनसे यही वर मांगू कि मुझे यहां की लता पता ही बना दो।
पुन कहि सब तें साधु-संग,उत्तम है भाई।
पारस परसें लौह, तुरंत कंचन ह्वै जाई।।
गोपी प्रेम प्रसाद सों,हों ही सीख्यौ आई।
ऊधौ ते मधुकर भयो, दुविधा ज्ञान मिटाई।।
– पाइ रस प्रेम कौं –
भावार्थ:
ऊधौ जी फिर कह रहे हैं कि सब से उत्तम साधुओं का संग होता है।ये गोपियां भी सही मायने में साधू ही हैं, जैसे लोहे को पारस छू ले तो वह सोना बन जाता है,ठीक उसी प्रकार मैं भी इन गोपियों के प्रेम रूपी प्रसाद से ही सीख पाया हूं।और ऊधौ से मधुकर हो गया हूं,इनका प्रेम रस पाकर मेरा दुविधा रूपी ज्ञान सब मिट चुका है।
शेष कल 🙏🙏🙏🙏🙏


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