उद्धव गोपी संवाद
(भ्रमर गीत)
७३, ७४ एवं ७५
सुनति सखा के बेंन,नेंन भरि आए दोऊ।
विवस प्रेम आवेस,रही नाहिंन सुधि कोऊ।।
रोंम रोंम प्रति गोपिका,भई सांवरे गात।
कलप तरोरूह सांवरौ,ब्रज वनिता ही पात।।
– उलहि अंग अंग ते –
भावार्थ:
अपने प्रिय सखा ऊधौ जी के वचन सुनते ही श्यामसुंदर के दोनों नेत्रों में जल भर आया। प्रेम के आवेश में विवश हो गये और शरीर की सुध बुध भूल गए। उनका रोम रोम गोपियों से ओतप्रोत हो गया और गोपियां उनके सांवरे रूप जैसी हो गई। कृष्ण स्वयं कल्पतरु हो गये और गोपिकाएं सब कल्पतरु के पात बन गई ऐसा लगा कि अंग अंग में आपस में उलझ गए।
ह्वै सचेत,कहि भले सखा,पठएं सुधि ल्यावन।
औगुन हमरे आंनि, तहां ते लगे दिखावन।।
उन में,मो मे हे सखा,रंचक अंतर नाहिं।
ज्यों दीखत मो माहिं वे,त्यों हों हूं उन माहिं।।
-तरंगनि बारि ज्यों –
भावार्थ:
तब भगवान सचेत होकर ऊधौ से कहने लगे कि सखा मैंने तुम्हें अच्छा गोपियों की सुधि लेने के लिए भेजा,जो वहां जाकर तुम सब मेरे अवगुण लेकर मुझे ही दिखाने लगे अथवा मुझे ही अवगुण बताने लगे।
हे ऊधौ,उन गोपियों के अंतर्मन में मैं ही हूं और वे मेरे अंतर्मन में हैं, उनमें और मुझमें जरा भी अंतर नहीं है। जैसे वे मुझमें समाई हुई है, वैसे ही मैं उनमें समाया हुआ हूं।
गोपी रूप दिखाई तबै,मोहन बनवारी।
ऊधौ भ्रमहि निवारि,डारि पुनि मोह की जारी।।
अद्भुत रूप विहार कौ,लीन्हों बहुरि दुराई।
” नंददास” पावन भयौ,सो यै लीला गाई।।
-प्रेम रस पुंजनी –
भावार्थ:
मोहन ने ऊधौ जी को,गोपी और बनवारी अर्थात दोनों का एक ही रूप दिखा दिया। और ऊधौ का सारा भ्रम दूर कर दिया। फिर मोह का जाल ऊधौ के ऊपर डाल दिया। ऐसे अद्भुत रूप को दिखा करके फिर ऊधौ को भ्रम में डाल दिया। अंत में इस भ्रमर गीत के रचयिता श्री नंददास जी कह रहे हैं कि यह अद्भुत लीला गाकर मैं पवित्र बन गया हूं।
आज यह भ्रमर गीत (उद्धव गोपी संवाद) समाप्त हुआ।
अंत में मेरी समस्त वैष्णव जनों से यही विनती है कि भावार्थ लिखने के दौरान मुझसे जो भी भूलचूक हुई हो,जो भी त्रुटि हो गई हो तो मुझे अलपबुद्धी समझ कर क्षमा करेंगे 🙏
🙏🌹सादर जय श्रीकृष्ण 🌹🙏


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