!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( षट्चत्वारिंशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
प्रिया ! बहु ! चल गंगा स्नान करके आते हैं …..
ब्रह्ममुहूर्त का समय है …अभी अंधकार ही है ….इसी समय शचि देवि नित्य गंगा नहाने जाती थीं …विष्णुप्रिया दो दिनों से गयी नही …वो अस्वस्थ है …ज्वर ग्रस्त है ….वैद्य जी कल आये थे उन्होंने कुछ औषध लिख कर दिया …किन्तु विष्णुप्रिया नही खाती …..शचि देवि ने जिद्द की थी किन्तु प्रिया औषध नही लेगी । कान्चना ने भी समझाया था पर विष्णुप्रिया ने ली ही नही औषध ।
प्रिया ! चल गंगा स्नान कर आते हैं ।
शचि देवि को स्मरण है कि उसके पति श्रीजगन्नाथ मिश्र जी जब जब ज्वर ग्रस्त होते थे वो गंगा नहाते थे ..और नहाते ही वो स्वस्थ हो जाते …वो कहते थे …गंगा में समस्त औषधीय तत्व विद्यमान हैं …ये बात शचि देवि स्मरण करती हैं …और विष्णुप्रिया को गंगा चलने के लिए कहती हैं ।
विष्णुप्रिया शान्त भाव से अपनी सासु माँ के पीछे चल देती हैं ।
आज बहुत भीड़ है …….गंगा घाट में पहुँचकर चारों ओर शचि देवि देखती हैं …आज क्या है ? पूर्णमासी या अमावस्या ? या एकादशी ? पर इनमें से आज कुछ नही है ……फिर इतनी भीड़ क्यों ? वो भी ब्रह्ममुहूर्त में …..शचि देवि ! देखो गंगा के उस पास ….एक ब्राह्मण ने कहा ।
इस समय पचहत्तर वर्ष की अवस्था है शचि माता की ….फिर भी वो उचक कर देखती हैं ….गंगा पार “कुलिया गाँव” में बहुत भीड़ है ….हजारों लोगों का हुजूम उमड़ रहा है …..लोग चिटियों की तरह लाईन लगाये जा रहे हैं …..क्या है वहाँ ? शचि देवि फिर पूछती हैं ।
क्यो , तुम्हें पता नही ….रात में ही तुम्हारे निमाई कुलिया गाँव में आये हैं ।
ये जैसे ही सुना विष्णुप्रिया ने ….वो उठकर खड़ी हो गयी …..उसने इधर देखा न उधर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था उसमें अपने पैर रखकर खड़ी हो गयी ….”गौर हरि” हरि बोल” यही संकीर्तन चल रहा था वहाँ …मृदंग की थाप पर सहस्रों लोग नाच रहे थे ….विष्णुप्रिया उचक कर देख रही है ….उसे अपने स्वामी को देखना है ….पर उस भीड़ में वो कहाँ से दीखते । लोगों ने शचिदेवि को देखा तो बातें करने लगे …विष्णुप्रिया को देखा तो एक दूसरे को बताने लगे …किन्तु प्रिया को इन सबसे क्या लेना देना था …उसे तो अपने स्वामी को देखना था ….बार बार गिरी भी है …किन्तु उसे देखना है …..हाँ , उसे दीखे ….वो उछल पड़ी …माँ ! वो रहे स्वामी …..पर मुखारविंद नही दिखाई दिया ….बस लोगों के मध्य में मुन्डित केश …..वो वही देखती रही उसके नेत्रों से अश्रु बहते रहे …..विष्णुप्रिया दो घड़ी भर वहाँ खड़ी रही ….जब तक उसके स्वामी गौरांग देव संकीर्तन करते रहे तब तक । “आज रात्रि को नवद्वीप आयेंगे गौरांग देव” ….शचि देवि ने ये सुन लिया था ।
सखी ! मैं उनके रूप को देख न पाई …बस उनका मुण्डित केश ही दिखाई दिये । उनमें अपूर्व तेज था …वर्तुल बन गया था तेज का ….वो नाच रहे थे ….उनके आजानु बाहु ऊपर उठे हुए थे ।
मेरी प्रिया सखी ! उन्हीं आजानु बाहु में वे तुम्हें भरेंगे …..तुम्हें प्रेम करेंगे ।
विष्णुप्रिया की बातें पूरी हुई नही थी कि कान्चना बीच में ही बोल पड़ी ।
चौंक गयी ये सुनते ही विष्णुप्रिया …..उसने हर्ष मिश्रित दृष्टि से अपनी सखी को देखा ….ये बात ही ऐसी थी कि विष्णुप्रिया की पूर्व स्मृतियाँ जाग गयीं ……”तुम मुझे बड़ी प्यारी लगती हो ….ये कहते हुए मेरे नाथ ने मुझे अपने बाहों में भर लिया था”…..सखी ! तेरे मुँह में घी शक्कर ….क्या ये सच होगा ? वो मुझे फिर अपने बाहों में भरेंगे ? उनके वक्ष में मुझे विहार करने का सुख फिर प्राप्त होगा ? ये सोचते सोचते विष्णुप्रिया फिर उन्मादिनी हो गयीं थीं ।
तुम ये क्या कह रही हो प्रिया से ? कान्चना! झूठी आस मत दिखाओ ….शचि देवि ने कान्चना के कान में आकर कहा था तब रोते हुए कान्चना भी बोली थी ….माँ ! क्या करोगी तो …ये तुम्हारी बहु मर जाएगी …..वर्ष वर्ष हो गये …इसने अपने हृदय की बात मुझ से भी नही कही है …शचि माँ ! बोलने दो मुझे ….झूठी ही आस सही कुछ समय के लिए तो सुख का अनुभव कर लेगी बेचारी ….कान्चना रोते हुये बोल रही है ….वैद्य जी भी कह रहे थे ….कि इसके मन का गुबार बाहर निकालो । शचि माँ ! ये स्वस्थ होगी …नही तो मन ही मन कुढ़ती रहेगी …और एक दिन देह त्याग देगी । शचि माँ समझ गयीं सच्ची सहेली है ये …इससे लाभ ही होगा प्रिया को …..ऐसा विचार कर दोनों को एकान्त में छोड़ दिया ।
गौर विरह को कैसे पार करूँगी सखी ! हंसती है अब विष्णुप्रिया ….तू मुझे बहला रही है …मैं समझ रही हूँ …..उन्माद समाप्त हुआ प्रिया का …कान्चना को अपने समीप बैठाकर विष्णुप्रिया अब चर्चा कर रही है । मुझे वे नही मिलेंगे ? मिलने की बात तो छोड़ो अब तो दर्शन भी नही होंगे मुझे ….वो सन्यासी हैं ….सन्यासी पत्नी मुख को नही देखता । इसलिए सखी ! आलिंगन उनका सहवास ये सब इस विष्णुप्रिया के भाग्य में विधाता ने लिखा ही नही है ।
किन्तु मुझे डर लग रहा है ……एक एक दिन करके मास बीत गए …मास करते हुए वर्ष बीत गये ….लेकिन गौर हरि नही मिले …..मेरा हृदय जल जल के राख हो गया किन्तु वो नही मिले ….उनका विरह प्राणों में शूल बनकर चुभ रहा है …निरन्तर चुभ रहा है …सखी ! उसका दर्द इतना भयानक होता है कि लगता है मर जाऊँ ….किन्तु …..विष्णुप्रिया इतना कहकर मौन हो जाती है ….वो फिर शून्य में तांकने लगती है ……
सखी ! मर तो मैं नही सकती ……फिर एकाएक विष्णुप्रिया बोलना शुरू कर देती है ।
मरते समय तनिक असावधानी से मेरे नाथ का चिन्तन अगर मुझे नही हुआ तो मेरी साधना तो सब व्यर्थ चली जायेगी ….और सखी ! मरने पर मैं रो नही पाऊँगी ….ये कहते हुये फिर विष्णुप्रिया हंसने लगी थी …..हाँ , रोने में जो सुख है वो और कहीं नही है ….दर्द होता है , मीठा दर्द …उफ़ ! ये कृपा भी किसी किसी पर बरसती है प्रियतम की ….सखी ! मुझ पर ये कृपा बरसी है । और अगर मैं मर गयी तो रो रो कर मैंने जो साधना की है उसका क्या होगा फिर ?
फिर प्रेमोन्माद की स्थिति में विष्णुप्रिया पहुँच गयी थी ।
कान्चना का भी रो रो कर बुरा हाल है ।
शेष कल –


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