!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( द्विपन्चाशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
शचि माता अत्यन्त वृद्धा हो गयी हैं ….उसके ऊपर पुत्र वियोग ने उनके देह को और जर्जर कर दिया है । अन्न जल का त्याग कर बैठीं हैं ये ।
आचार्य अद्वैत की पत्नी सीता देवी आज आईं और शचि देवि के पास बैठकर उनसे बहुत देर तक वार्ता करती रहीं …विष्णुप्रिया से भी मिलीं …विष्णुप्रिया वियोग की चरम स्थिति को पार कर चुकी हैं …उनके रोम रोम से “ गौर हरि “यही नाम प्रकट होता है ….विष्णु प्रिया को देह भान नही रहता किन्तु इसके बाद भी अपने आपको देह में लाकर वो अपनी सासु माँ की सेवा करती हैं ….सीता देवि ये सब देखकर बिलख उठी हैं …ये समझ गयीं हैं कि अब माता शचि देवि देह त्याग कर देंगी । इसलिये वो पूछती हैं माता से ….आपकी कोई इच्छा है ? उस समय विष्णुप्रिया भी वहीं है और प्रिया की सखी कान्चना भी ।
बस एक इच्छा है ….कि नीलान्चल जाकर एक बार निमाई चन्द्र का मुख देख लेती ।
विष्णुप्रिया ने सुना कान्चना ने भी सुना ….और ये सुनकर ये दोनों सीता देवि के मुख की ओर एकटक देखने लगीं ….सीता देवि आचार्य अद्वैत की पत्नी हैं …आचार्य अद्वैत नवद्वीप के प्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं …..ये जो कह देंगी वही होगा ।
तो हमें शचि देवि की इस इच्छा को पूरी करनी ही चाहिये ….
सीता देवि के मुख से ये सुनते ही शचि देवि तो आनंदित हो गयीं उनमें इतनी शक्ति भी आ गयी कि उठकर बैठ गयीं ….सीता बहन ! बहुत उपकार होगा तुम्हारा ।
विष्णुप्रिया को भी सुख मिला ये सुनकर ….तो तुम भी जाओगी ? हाँ , तुम्हें तो जाना ही पड़ेगा ….सीता देवि ने विष्णुप्रिया से भी कह दिया । अब तो प्रिया को जो सुख मिला उसका वर्णन असम्भव ही है । रोम रोम पुलकित था ….सुख के अश्रु बह चले थे नेत्रों से ….मैं अपने नाथ के दर्शन करूँगी ? ओह ! आनन्द की इस अद्भुत वेला में विष्णु प्रिया से खड़ा नही हुआ जा रहा …..उसने अपनी सखी कान्चना के स्कन्ध में हाथ रखा और स्वयं को सम्भाला ।
मैं भी जाऊँगी । कान्चना ने कहा ।
तुम चलोगी ? वर्षों बाद कुछ विनोद करने का भाव प्रिया के नेत्रों में दिखाई दे गया था ।
तुम को कौन सम्भालेगा ? कान्चना भी मटकते हुये बोली थी ।
सीता देवि ने अनुभव किया कि – गौरांग से मिलने की बात से ही इन विरह से मृतप्राय लोगों में जीवन का संचार शुरू हो गया है । ओह !
सीता देवि को ये उचित भी लगा कि माता एक बार , अन्तिम बार अपने पुत्र को देख लेंगी …और पत्नी अपने पति को ….सीता देवि ने तुरन्त अपने पति को कहकर इन लोगों के नीलान्चल में जाने की व्यवस्था भी कर दी ….साथ में कुछ लोग भी चलने के लिए तैयार हो गये । और यात्रा प्रारम्भ भी हो गयी ।
विष्णुप्रिया प्रमुदित है …..उसके पाँव धरती पर कहाँ हैं …..वो जब जब अपनी सखी को देखती है उसके गालों को पकड़ कर खींचती है ….कान्चना अपनी सखी को इतना आनंदित देखकर वो स्वयं परम सुख का अनुभव कर रही है ।
कैसे मिलूँगी मैं उनसे ? ओह ! मेरे प्राण अटक न जायेंगे ….मेरी तो सखी ! धड़कनें ही रुक जायेंगी । वो मुझे देखकर प्रसन्न होंगे ? बहुत प्रसन्न होंगे प्रिया ! बहुत । हट्ट ! कुछ सोचते हुए विष्णुप्रिया शरमा गयी है ….यात्रा में वो पक्षियों को देखती है ….नदी नद सबको देखती है किन्तु सबमें उसे अपने प्राण गौरांग ही दिखाई दे रहे हैं …अकेले अकेले ही हंसती है विष्णुप्रिया ….”तुझे गले लगा लेंगे” ….कान्चना छेड़ती है ….विष्णुप्रिया का मुख मण्डल ये सुनते ही लाल हो जाता है …वो फिर शरमा कर अपना मुख घूँघट से ढक लेती है ।
वो मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे ? हाँ , हाँ ……कान्चना अब ये कहते हुये रुक जाती है ….विष्णुप्रिया क्या भूल गयी कि उसके पति ने सन्यास ले लिया है ?
भगवान जगन्नाथ के दर्शन किये इन लोगों ने ….भीड़ बहुत थी मन्दिर में …माता शचि देवि को सम्भालकर दर्शन कराया ….किन्तु विष्णुप्रिया को भगवान जगन्नाथ में गौरांग देव के ही दर्शन होते हैं ….वो अपने आँखों को मलती है ….फिर भी उसे गौरांग ही दिखाई देते हैं ।
दर्शन करने के पश्चात् ये लोग गौरांग देव से मिलने “गम्भीरा” जाते हैं ….वहाँ कुछ भक्त हैं जो बाहर ही खड़े महामन्त्र का संकीर्तन कर रहे थे…..ये भक्त माता शचि देवि को पहचानते थे ….तुरन्त गये भीतर और जाकर कहा ….कि गौरांग प्रभु की माता जी आईं हैं …..गौरांग देव संकीर्तन में मग्न थे पहले तो उन्हें कुछ भान ही नही था …जब दूसरी बार और तीसरी बार कहा तो गौरांग देव ने सुनकर पूछा कि – कौन कौन आया है ? भक्त ने बाहर जाकर देखा फिर – माता पत्नी और सखी …..वो बताने लगा भीतर आकर गौरांग देव को ।
सखी ! मेरा मन घबरा रहा है …..मैं कैसे दर्शन कर पाऊँगी ….मैं तो हाय उनको देखते ही मर गयी तो ! वो मुझे देखेंगे …उनकी दृष्टि मुझ अपावन पर पड़ेगी ? इस तुच्छ दासी पर उनकी कृपा दृष्टि पड़ेगी । मैं धन्य हो जाऊँगी …मैं कृतकृत्य हो जाऊँगी । मुझे अब और क्या चाहिये ।
विष्णुप्रिया बोलती जा रही है ……कान्चना देख रही है भीतर से वो भक्त आगया है ।
माता जी ! आप चलिए भीतर , वो भक्त शचि देवि का हाथ पकड़ कर ले जाने लगा ।
विष्णुप्रिया भी भीतर जाने लगीं तो …..आप नहीं । रोक दिया विष्णुप्रिया को ।
ओह ! ये तो वज्रपात था विष्णुप्रिया के ऊपर ……वो रुक गयी उसे लगा धरती खिसक गयी है आसमान उसके ऊपर गिर गया है …..शचि देवि रुकीं ….ये मेरी बहु है …ये जायेगी भीतर …तुम जानते नही ये गौरांग देव की पत्नी हैं …….कान्चना भी चिल्लाई ।
भक्त हाथ जोडकर बोला …मैं जानता हूँ ….किन्तु गौरांग प्रभु की यही आज्ञा है कि ….सन्यासी हूँ मैं स्त्री मुख देखना निषेध है । विष्णुप्रिया हंसी ……उन्माद चढ़ने लगा प्रिया को …..वो बोली ….माता ! आप जाइये । मैं नही जाऊँगी ….मैं वैसे ही पापिन हूँ ….मुझे देखकर उन्हें पाप लगेगा …उनका धर्म ! उनका सन्यास धर्म नष्ट हो जायेगा …..मैं उनके धर्म को नष्ट नही करूँगी ।
कान्चना हिलकियों से रो पड़ी …..पगली ! क्यों रोती है …विष्णुप्रिया प्रसन्न है…..यहाँ की धूल ले जाएगी विष्णुप्रिया और इसी धूल को माथे में लगाती रहेगी …..भैया ! पूछ लेना अपने प्रभु से कि एक स्त्री सन्यासी के पग धूल लेने की अधिकारिणी तो है ?
शचि देवि ये सब देखकर अब नही जाना चाहतीं भीतर , अपने निमाई पुत्र के पास ….किन्तु विष्णुप्रिया उन्हें भेजती है …कान्चना अब टूट गयी है ….वो रोती ही जा रही है …विष्णुप्रिया शून्य हो गयी है । उसकी इतनी इच्छा भी उसके नाथ ने पूरी नही की ……उफ़ !
शेष कल –

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