!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रिपन्चाशत् अध्याय: )
गतांक से आगे –
शचि माँ अपने पुत्र से मिलकर लौट आईं ……उन्होंने लौटते ही सबसे प्रथम विष्णुप्रिया की आँखों में देखा था …..पर प्रिया की आँखों में कोई शिकायत नही ….हाँ , कान्चना को शिकायत थी वो जगन्नाथ धाम से नवद्वीप तक गौरांग के लिए बोलती रही ….विष्णुप्रिया ने कई बार उसे चुप रहने के लिए कहा …पर वो नही मानीं । हाँ , गौरांग देव ने अपना एक भक्त भेज दिया था सेवा के लिये इसका नाम था “वंशी वदन” । शचि देवि के साथ ही इसको लगा दिया था गौरांग देव ने ।
अब दो हो गये थे सेवक एक वृद्ध ईशान जो नवद्वीप में ही थे …..और एक ये जो जगन्नाथ धाम से साथ ही चले थे – वंशी वदन ।
नवद्वीप आगये…..किन्तु शचि देवि का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था ….नवद्वीप आते ही माता शचि देवि ने अन्न का पूर्ण त्याग कर दिया था …..विष्णुप्रिया बहुत कहतीं किन्तु शचि देवि की अब कोई इच्छा नही थी । ये जीवन को चलाना ही नही चाहतीं अब । इस तरह पाँच दिन व्यतीत हो गये …..विष्णुप्रिया गहन विरह में होने के बाद भी वो स्वयं माता की सेवा में लगी रहीं …..एक बार रात्रि में …शचि देवि ने अपनी बहु विष्णुप्रिया को बुलाया …..विष्णुप्रिया “गौर हरि” नाम का जाप कर रही थी …वो तुरन्त उठ कर आगयीं । माँ ! आपने बुलाया ? अपने पास बिठाती हुई शचि देवि ने विष्णुप्रिया के सामने हाथ जोड़े और रोने लगीं ……माँ ! आप ये पाप क्यों चढ़ा रही हैं मेरे ऊपर ? मैं बहु हूँ , आप मेरी माता हैं …अपना वरद हस्त मेरे ऊपर रखिये ।
प्रिया ! मेरा पुत्र निमाई निष्ठुर नही है ….ये कहते हुए माता की हिलकियाँ फिर बंध गयीं ।
हाँ , हाँ प्रिया ! उस दिन जब मैं गयी , निमाई के पास गयी थी तब मैंने उसे बहुत डाँटा …उसके भक्त लोग उसके साथ थे फिर भी मैंने डाँटा । तब उसने रोते हुये मेरे पाँव पकड़ लिए थे और कहा था ….माँ ! जगत को विरह का दर्शन कराने के लिए ही हम दोनों का जन्म हुआ है …माँ ! वस्तुतः विष्णुप्रिया मुझ से अलग नही है न मैं उससे अलग हूँ । जगत को पापों से मुक्ति मिले ……जीव को उसके भयानक प्रारब्ध सनातन सुख नही लेने देंगे ….तो उन प्रारब्धों को मिटा कर कैसे जीव आनन्द सिन्धु में बहे ? इसका उपाय यही था कि – करुण रस में सब भींग जायें …रोयें …खूब रोयें …रोने से ही चित्त पिघलता है ….चित्त के पिघलने से हमारे प्रारब्ध भी मिटने शुरू हो जाते हैं ….रोता हुआ जीव “हरि नाम” का आश्रय ले ले ….तो वो परम प्रेमा भक्ति का तुरन्त अधिकारी हो जाता है …..माँ ! विष्णुप्रिया और हम इसी निमित्त इस धरा पर आये हैं ….लोग मुझे देखें तो रोयें ….मेरी प्रिया के विरह पूर्ण जीवन को देखें तो रोयें …..माँ ! तुम्हें क्या लगता है मुझे पता नही है कि मेरी प्रिया मेरे लिए दिन रात रो रही है …..तुम्हें क्या लगता है माँ ! क्या प्रिया के तप से मैं परिचित नही हूँ ?
शचि माँ ये कहते बोलीं ……बेटी प्रिया ! उस समय मेरा निमाई रो गया था और अन्तिम में यही कहा उसने …..माँ ! क्या करें रोने के लिए हम दोनों ने जन्म लिया है । और लोगों को रोना सिखाना है हमें …..ये रुदन ही एक साधना है ….जो इस जीव को अपने भगवान से मिला देती है ।
ये कहकर शचि देवि सुबुकने लगीं थीं ।
मैंने हाथ इसलिये जोड़े कि तू कहीं मेरे पुत्र निमाई के विषय में कुछ कठोर न सोच ले ….तू महान पतिव्रता है बहु !
विष्णुप्रिया ये सुनकर बस रोने लगीं ….मैं तो उनके चरणों की दासी हूँ माँ ! दासी के मन में शिकायत कहाँ ? दासी तो स्वामी की इच्छा में ही अपनी इच्छा मिला देती है ना ! मेरी कोई सोच नही है अब ….मेरे स्वामी जो करेंगे वही हो ।
इतना सुनने के बाद शचि देवि को सन्तोष हुआ …..दूर खड़ा है वंशी वदन । ये ब्राह्मण बालक है ..परम भक्त है । शचि देवि अपने पास उसे बुलाकर विष्णुप्रिया के सामने उसका परिचय देती हैं …..फिर कहतीं हैं ….तेरे स्वामी की आज्ञा है …..क्या आज्ञा ? विष्णुप्रिया पूछती है ।
माँ ! मुझे आप दीक्षा दीजिये । वो वंशी वदन विष्णुप्रिया के चरणों में गिर गया था ।
हाँ , यही आज्ञा है तुम्हारे लिये ….इसको स्वयं निमाई ने दीक्षा न देकर मेरे साथ भेज दिया और कहा ….विष्णुप्रिया को कहना इसे दीक्षा दे …..और हरि नाम जपने की विधि बताये ।
विष्णुप्रिया कुछ नही बोलतीं ….वो बस उस भावुक भक्त वंशी वदन को देखती हैं ।
तभी शचि देवि की साँसे उखड़ने लगीं ……विष्णुप्रिया घबड़ाई ….तो शचि देवि ने प्रिया का हाथ पकड़ कर कहा ….रोना मत ….अब मैं जा रही हूँ ……विष्णुप्रिया सिर पटकने लगी …मुझे सब छोड़कर जा रहे हैं …मैं हूँ हीं ऐसी ।
प्रिया ! सुनो मेरी बात , डोली बनाकर मुझे गंगा घाट में ले जाओ ……शचि देवि बोलीं । विष्णुप्रिया मना करती है ….वो बारम्बार कहती है – नही माँ ! मेरे साथ रहो …..पर शचि देवि उसे कहतीं हैं ….बेटी ! मेरी बात मान …अब इस बूढ़ी को जाने दे ….ईशान ! वंशीवदन ! मेरे लिए डोली बनाओ । रोते हुये दोनों ने डोली बनाई ….ये बात नवद्वीप में हवा की तरह फैल गयी ….लोग शचि देवि के घर में आने लगे ….कान्चना अपने घर से भागी हुई आई ……पर उसने विष्णुप्रिया को नही देखा ….वो खोजने लगी …वो आवाज देने लगी ……तभी – गैरिक वस्त्र धारण करके ….हाथ में झाँझ लिए मस्तक में ऊर्ध्व तिलक …..हरि बोल , गौर हरि , यही गाते हुए वो शचि माँ के कक्ष से निकली । ये रूप विष्णुप्रिया का आज तक किसी ने नही देखा था …हजारों लोग चल पड़े थे विष्णुप्रिया के पीछे ….सब लोग “हरि बोल” का संकीर्तन कर रहे थे । सेवक ईशान और वंशी वदन डोली में शचि माँ को लेकर गंगा तट पर आगये । आज विष्णुप्रिया को गौरांग देव का आवेश आगया था ….वो गा रहीं थीं वो नाच रहीं थीं ….उनको सम्भालने के लिये कान्चना और अन्य सखियाँ भी थीं । गंगा घाट में शचिदेवि को रखकर संकीर्तन हुआ …सबके नयन बह रहे थे …और गंगा स्नान करके शचि देवि ने महामन्त्र का उच्चारण किया और …….
शचि माता की जय जय जय ….नवद्वीप के लोग बोल उठे ।
शचि माता के अन्तिम संस्कार में विष्णुप्रिया बहुत रोई थी ….वो रोते रोते मूर्छित हो गयीं थीं।
शेष कल –

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