!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( पन्चपन्चाशत् अध्याय: )
गतांक से आगे –
विष्णुप्रिया , शचि देवि जब तक थीं तब तक ये लोगों से मिलतीं थीं….किन्तु जब से महाप्रभु गौरांग भगवान जगन्नाथ में समा गये तब से तो इन्होंने लोगों से मिलना बिल्कुल ही बन्द कर दिया ….गौरांग देव के भक्त आते थे …कान्चना अब साथ ही रहने लगी थी…और वंशी वदन ….इनको लोग पकड़ लेते , इनके चरणों में गिर जाते ….इनसे अनुनय विनय करते कि एक बार विष्णुप्रिया जी के दर्शन करा दो …पर ये सम्भव नही था क्यों की विष्णुप्रिया कठोर साधना में लगी हुईं थीं …सोलह अक्षरों के महामन्त्र का एक सौ आठ बार जाप करतीं और एक दाना चावल का दूसरे मिट्टी के पात्र में रखतीं ….सुबह से ही यही प्रारम्भ होता फिर दोपहर तक एक मुट्ठी चावल ही गिनती में आ पाते …उसी को बनातीं …फिर भोग लगातीं …उसमें से भी कान्चना वंशी वदन को प्रसाद देतीं फिर बचा हुआ स्वयं ग्रहण करतीं ….बाहर जाना ही इन्होंने बन्द कर दिया था …गंगा स्नान को भी नही जातीं थीं ….वंशी वदन ही गंगा जल ले आता उसी से ये स्नान करतीं थीं ।
किसी से कोई वार्ता नही ….सदैव “गौर हरि” का ही नाम ….उन्हीं का ध्यान ….और कुछ नही ।
अद्वैत आचार्य अभी तक जीवित हैं …इनकी आयु सौ से भी ऊपर जा चुकी है …..देह अत्यन्त जर्जर हो गया है ….पर गौरांग देव का ये भी निरन्तर चिन्तन ध्यान करते रहते हैं ।
आज इन्होंने अपनी पत्नी सीता देवि से कहा …सीता ! थोड़ा जाओ ना विष्णुप्रिया अकेली है …बेचारी कैसे रहती होगी तुम देखकर आओ ना । अपने पति की बात सुनकर सीता देवि विष्णुप्रिया के पास जातीं हैं …यहाँ किसी को प्रवेश नही हैं किन्तु सीता देवि के प्रति मातृ भाव विष्णुप्रिया भी रखतीं थीं….इसलिए इनको आने दिया गया ।
सीता देवि ने जैसे ही विष्णुप्रिया को देखा तो रो पड़ीं …..जर्जर देह हो गया है ….अत्यन्त दुर्बल हो गयीं हैं …..किन्तु मुख मण्डल में तेज है …अपूर्व तेज ….मानों कोई महायोगिनी हों । सीता देवि को देखते ही विष्णुप्रिया ने प्रणाम करना चाहा पर सीता देवि ने उठा कर अपने हृदय से लगा लिया ….भीतर गयीं सीता उस कक्ष में गयीं जहां विष्णुप्रिया रहती हैं …एक कुश का बड़ा सा आसन है उसी पर सोती हैं ये कोमलांगी । ये देख कर सीता देवि रोने लगीं थीं ….तब विष्णुप्रिया ने कहा था ……माता ! क्यों रो रही हैं आप ? मत रोईये । मेरे नाथ ने सन्यास लिया क्या उनका कोमल देह नही था …वो भी तो कण्टक में ही सोते थे …वनों में नंगे चरण चलते थे …माँ ! अब मैं तो नारी जात हूँ ….बाहर निकल कर वनों में गुज़ारा करना ये मेरे लिए मर्यादा नही है …इसलिये मैंने ये क्षेत्र सन्यास लिया है ….मैं यहीं रहूँगी ….मैं यहीं रहकर तप करूँगी …मेरे नाथ के मन में अपार करुणा भरी थी समस्त जीवों के प्रति ….इसलिए तो उन्होंने अपने परिवार अपनी पत्नी आदि के विषय में भी नही सोचा ….सोचा समस्त जीव के विषय में ….स्वयं ने दुःख भोगा …अपने परिवार को दुःख में रखा किन्तु लाखों करोड़ों जीवों का कल्याण किया ।
विष्णुप्रिया सीता देवि के सामने जब बोल रहीं थीं ..उस समय सीता देवि बस अपलक प्रिया को देख रहीं थीं , उन्हें निमाई याद आरहे थे, वो भी आचार्यअद्वैत के पास आकर यही भाषा बोलते थे।
सोचो माँ ! अपनी पत्नी , अपने बालक , अपने माता पिता इनके विषय में तो सब सोचते हैं …किन्तु मेरे नाथ ने तो “समस्त” के लिए सोचा । मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी उनके करुणा से अभिभूत हो जाते थे ….माँ ! मेरे नाथ जब “हरि बोल” कहकर अपने आजानुबाहु को ऊपर उठाकर अश्रुपात करते तब हिंसक प्राणी भी अपनी हिंसा छोड़ देते । माँ ! अपूर्व करुणा के अवतार थे मेरे प्रभु । फिर विष्णुप्रिया रुक गयीं ….कुछ देर गौरांग देव की याद में खो गयीं ।
माँ ! वो सिर्फ मेरे प्रभु नही थे …वो सबके प्रभु थे …वो पुण्यात्मा पापात्मा सबके थे ..वो समस्त प्राणियों के थे ….मैंने उनके नेत्रों में सदैव करुणा ही देखी है माँ ! वो कभी कभी मुझ से कहते थे ….हे विष्णु प्रिये ! ये संसार दुःखालय है …मुझे एक ही चिन्ता भीतर से खाये जाती है कि इन जीवों का उद्धार कैसे होगा ? ये तो कलियुग और है इसमें वर्ण व्यवस्था तार तार हो रही है , और होती जायेंगीं । वर्णाश्रम अनुसार कोई नही चलेगा न चल पायेगा । फिर इनका उद्धार कैसे ?
विष्णुप्रिया ये कहते कहते सीता देवि की गोद में लेट जातीं हैं ….सीता देवि के हृदय में अद्भुत वात्सल्य उमड़ पड़ता है …..वो सिर में हाथ फेरतीं हैं ।
माँ ! फिर एक दिन नाथ आये और आकर बोले ….हरि नाम संकीर्तन से कलि के दोषों को मिटाया जा सकता है । ये कहते हुए वो अत्यधिक प्रसन्न थे ….फिर एक दिन मुझ से बोले ….ये किसी ने आज तक क्यों नही सोचा …हरि नाम से कलियुग में सतयुग की स्थापना की जा सकती है ….पता है विष्णुप्रिये ! हरि नाम के समान और कोई साधन नही है । ये बात कहते हुए उनके नयनों में कितनी चमक थी …वो समस्त जीवों को लेकर कितने गम्भीर थे ….वो कभी कभी ये कहते थे ….कि बेचारे जीव ..विवाह करना , सन्तानोत्पत्ति फिर उन्हें सांसारिक शिक्षा , फिर वृद्धावस्था फिर काल का ग्रास बन गया । यही जीवन है ? फिर जन्म लेना …ओह ! विष्णुप्रिया आज बोले जा रहीं हैं ….सीता देवि शान्त भाव से उन्हें सुनती रहीं । समझाने के लिए आईं थीं पर विष्णुप्रिया से बहुत कुछ समझ कर ये चली गयीं ।
नाम जाप में रत हैं विष्णुप्रिया , उनके सामने सोलह अक्षर “हरे कृष्ण” महामन्त्र नृत्य कर रहे हैं….वो देह भान भूल कर नाम रस में ही डूबी हुई हैं । तभी एकाएक वो भागीं गंगा घाट की ओर …वंशी वदन और कान्चना रोते हुये उनके पीछे भागे ….विष्णुप्रिया जाकर खड़ी हो गयीं गंगा घाट में …..कदम्ब वृक्ष था जिससे निमाई गंगा में कूदते थे …उसी वृक्ष को आड़ लगाकर बैठते थे …इसी वृक्ष से बातें करते थे ….वो आज सूख गया …विष्णुप्रिया को ये ध्यान में ही भान हो गया था …तो ये इस वृक्ष को भी विदा करने आईं थीं ….वृक्ष को छूआ विष्णुप्रिया ने उसे अपने हृदय से लगाया ….फिर महामन्त्र का उच्चारण करते हुए भाव में डूब गयीं ।
तभी – वंशी वदन ! जी , आगे आया वो शिष्य ।
इस वृक्ष से क्या मेरे नाथ की मूर्ति बना सकते हो ? विष्णुप्रिया ने पूछा ।
हाँ , बना सकता हूँ ……तो बनाओ और अपने आँगन में जो नीम का वृक्ष है उसी के नीचे उस मूर्ति की स्थापना होगी । विष्णुप्रिया ने कहा । और अपने घर की ओर वो चल दीं ।
समय आया वो भी ….सुन्दर मूर्ति वंशी वदन ने तैयार कर दी ….गौरांग देव का ये विग्रह अद्भुत बन गया था । तू मूर्ति भी बना लेता है ? विष्णुप्रिया ने प्रसन्नता व्यक्त की । नही , मैं तो ब्राह्मण हूँ मुझे कहाँ मूर्ति बनानी आती है …मुझे तो महाप्रभु ने ही प्रेरणा दी और बन गयी ।
बड़े धूमधाम से विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की गयी थी …पूरा नवद्वीप आनंदित हो उठा था । विष्णुप्रिया को उस समय आवेश भी आगया था ….विग्रह दिव्य थी और अब तो उसमें गौरांग देव भी प्रविष्ट हो गये थे ।
आज गौर पूर्णिमा है ….फाल्गुन पूर्णिमा को गौर पूर्णिमा भी कहते हैं गौरांग देव के अनुयायी ।
इसी दिन गौरांग देव माता शचि देवि के कुक्षि से प्रकट हुए थे …आज के दिन पूरा नवद्वीप झूम रहा था ….भक्त लोग आ रहे थे और गौरांग देव के सामने आरती धूप दीप नैवेद्य आदि अर्पण कर रहे थे ….आनन्द छाया हुआ था भक्तों में ….तभी विष्णुप्रिया अपने कक्ष से उतर कर मन्दिर में आईं …और भक्तों को संकेत किया कि हरि नाम संकीर्तन करो …झाँझ मृदंग तुरन्त ले आया वंशी वदन ….और भक्त लोग संकीर्तन में झूमने लगे थे ।
विष्णुप्रिया गौरांग देव के मन्दिर में गयीं …वहाँ जाकर उन्होंने विग्रह को बड़े ध्यान से देखा ….फिर देखते देखते त्राटक के समान उनके पलक रुक गये ….कान्चना को संकेत किया …मन्दिर का द्वार बन्द कर दो …कान्चना ने द्वार बन्द कर दिया । बाहर भाव के उन्माद से भक्त लोग हरि नाम संकीर्तन कर रहे हैं ….एक घण्टे हो गए ..मन्दिर बन्द है …दो घण्टे ..पाँच घण्टे ….कान्चना चिल्लाई …मन्दिर का द्वार खोला ….पर द्वार मानों भीतर से ही बन्द था …कान्चना ने तोड़ दिया ….पर ये क्या ? विष्णुप्रिया भीतर नहीं हैं । कान्चना पागलों की तरह चिल्लाई ….अपना सिर पटकने लगी …..पर विष्णुप्रिया कहीं नही हैं ।
भक्त लोग रात भर रोते रहे …….तब ……
हे गौर भक्तों ! मैं अपने नाथ के श्रीविग्रह में समा गयीं हूँ ….मेरे नाथ भगवान जगन्नाथ में समा गये ऐसे ही मैं भी अपने नाथ में ही समा गयी । हम दोनों अलग नही हैं एक ही हैं ।
ये सुनते ही अत्यन्त विरह कातर हो कान्चना ने अपने देह त्याग दिये …वंशी वदन रोता चिल्लाता रहा ..नवद्वीप के लोग ये सुनकर अश्रु प्रवाहित करने लगे । युगल मिलन अब हो गया था विष्णुप्रिया और गौरांग का । दोनों अब मिले थे ….अब मिले ? नही , ये दोनों मिले ही थे …बाकी सब तो लीला थी । लोक शिक्षा देने के निमित्त ये लीला अस्तित्व द्वारा रची गयी थी । अब महामाया रूपा विष्णुप्रिया और नारायण स्वरूप श्रीगौरांग देव लीला के विश्राम होने पर दोनों अब एक हो गये थे ।
साधकों ! इसी के साथ आज ये “श्रीविष्णुप्रिया जी का पावन चरित्र यहीं विश्राम लेता है “।
हम भी श्रीविष्णुप्रिया जी से यही प्रार्थना करते हैं कि …”थोड़े विरह के अश्रु हमें भी दे दो “।
और इस चरित्र के अन्त में , मैं तो यही कहूँगा ……
हे विष्णुप्रिया जी !
“तोमार चरणे आमि कि बलिते जानि”
आप महाप्रभु की प्रिया हो …आपके श्रीचरणों में ये बालक “हरि” क्या चढ़ाये…नही जानता । बस ये शब्द पुष्प आपके चरणों में ।
आपकी जय हो , हे गौर प्रिया ! आपकी सदाहीं जय हो , जय हों।

Author: admin
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