!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( वृन्दावन, ऊपर से वसन्त ! -Ç “मधुरितु वृन्दावन” )
गतांक से आगे –
उफ़ ! वैसे ही वृन्दावन उसमें भी वसन्त , और वसन्त भी पगलाया !
कहते हैं कामदेव का सेनापति है वसन्त ….इसे चित्त को उद्विग्न करने में आनन्द आता है …तभी तो असंख्य खिले गुलाबों को ये अपना शस्त्र बना कर चलाता है । और मनुष्य के चित्त को उद्विग्न कर देता है । वसन्त आज वृन्दावन में छा गया है ….माधवी और चम्पा और चमेली के फूलों को खिलाकर ये वातावरण को और मत्त कर रहा है ….लग रहा है वृन्दावन में की अब मत्तता छाने वाली है ….लताएँ भी अपने आलम्बन वृक्षों को अपनी आकांक्षाओं की , अपनी अपनी उमंगों की कलियों को आकुल करने में पीछे नही रहतीं । वृन्दावन में लग रहा है कि अबीर उड़ने वाला है …पूरा श्रीवन धमार गाने वाला है ….ये तैयारी हो रही है ….चित्त को उद्विग्न करने की ….किसके चित्त को ? युगल के चित्त को …अब आप कहोगे चित्त तो माया राज्य की बात है …कामदेव माया जगत में है ….तो आप अभी इस वृन्दावन रस मार्ग को समझे ही नहीं …..जैसे वृन्दावन सच्चिदानन्द है ऐसे ही यहाँ आने वाला वसन्त भी मायिक नही है ….ना चित्त माया जगत का है …यहाँ सब कुछ सच्चिदानन्द ही है …ये बात बिना समझे आप इस रस मार्ग को समझ नही पायेंगे । यहाँ कामदेव की बात आती है निकुँज में तो ऐसा मत सोचना कि हमारे अन्दर सवार मायिक कामदेव निकुँज में भी वही कामदेव है ….नही , निकुँज का कामदेव भी सच्चिदानन्द ही है …ये भी इसी रस का ही एक हिस्सा है ।
वृन्दावन में अब वसन्त छा गया है ….वसन्त एक उमंग है …उत्साह है …रस है इस ऋतु में …लगता है सब कुछ प्रेममय हो गया है । वृक्ष, लता , पक्षी नदी सब कुछ प्रेम मय ….देखो जी ! वृन्दावन वैसे ही प्रेम की भूमि और उस पर वसन्त और आगया ….अब क्या होगा !
आज राधा बाग में , चार पाँच थाल में …अबीर गौरांगी ने रख दिये हैं सजाकर ।
पर होली नही है इन दिनों …….मैंने पूछा ।
गौरांगी हंसते हुए बोली- हरि जी ! “सखियन के उर ऐसी आई”…..निकुँज में सखियाँ ही युगल की इच्छा शक्ति हैं …यहाँ ऐसा नही है …कि ऋतु आये तब लीला हो …यहाँ जब फाग खेलने की इच्छा होती है …तभी वसन्त आजाता है ।
टेसू के फूलों का रंग भी निकाल कर रख लिया है गौरांगी ने ….उसकी सुगन्ध पूरे राधा बाग में फैल रही है …जिससे वातावरण में मत्तता छा गयी है ।
पागलबाबा देखते हैं तो आनंदित होते हैं …..”आज वसन्त राग में ही पद का गायन हो”…..बाबा कहते हैं ….जितने रसिक आयेंगे उनको अबीर लगा देना ।
तभी श्रीजी मन्दिर के गोसाईं वर्ग राधा बाग में आगये थे ….वो सब श्रीजी की चूनरी लाये थे …बड़े प्रेम से बाबा को ओढ़ा दिया तो बाबा गदगद हो कर उन सबके चरण छूने लगे ।
शाश्वत कहता है – सिद्ध के लक्षण हैं ….वो सदैव झुका रहता है ।
पर बाबा ने जब ये सुना तो बोले ….देखो , महन्तों को प्रणाम करने में भले ही प्रमाद कर जाओ ..किन्तु पुजारियों , गोसाईंयों को अवश्य प्रणाम करना चाहिये …क्यों की ये श्रीविग्रह का स्पर्श करते हैं ….उनकी सेवा करते हैं । फिर ये तो हमारी श्रीकिशोरी जी के पुजारी हैं ….ये कहते हुये श्रीजी मन्दिर के गुसाइयों की चरण रज लेकर फिर अपने माथे से भी लगाने लगे थे ।
आज तो श्रीजी मन्दिर के गवैया आये हैं ..ढ़फ भी लाये हैं …..और सारंगी भी साथ है ।
राग वसन्त में आज का पद गाया जायेगा ….इसलिए गौरांगी ने भी वीणा सम्भाली है ।
नित्य के रसिक जन आगये हैं …..सब आज कुँज में अबीर आदि देखकर आनंदित हो गये …आज का पद ही वसन्त का है …..सत्ताईसवाँ पद है आज । सारंगी में वसन्त राग बज उठा था ..उस समय अबीर शाश्वत समस्त रसिकों को लगा रहा था । आहा ! वसन्त राग में ही एक उन्माद है …लगता है अबीर उड़ रहा है ……जय हो , जय हो , सब कहने लगे थे ।
मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर , राजत नागरी नव कुशल किशोर ।।
जूथिका युगल रूप मंजरी रसाल , विथकित अलि मधु माधवी गुलाल ।।
चंपक बकुल कुल विविध सरोज , केतकी मेदनी मद मुदित मनोज ।।
रोचक रुचिर बहे त्रिविध समीर , मुकुलित नूत नदिर पिक कीर ।।
पावन पुलिन घन मंजुल निकुंज , किशलय शयन रचित सुख पुंज ।।
मंजीर मुरज डफ मुरली मृदंग , बाजत उपंग वीना वर मुखचंद ।।
मृगमद मलयज कुमकुम अबीर , वंदत अगरसत सुरंगित चीर ।।
गावति सुन्दरी हरि सरस धमारि , पुलकित खग मृग बहत न वारि ।।
श्रीहित हरिवंश हंस हंसिनी समाज , ऐसैं ही करौं मिलि जुग जुग राज ।27 ।
मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर ………….
आहा , इस पद के गायन में अद्भुत रस आया था …..ऐसा लग रहा था वही वृन्दावन , सच्चिदानन्द वृन्दावन , जहां नित्य उत्सव , नित्य उमंग-उत्साह , नित्य ही होता रहता है । सारंगी बजती रही …..अब बाबा इस पद का ध्यान करायेंगे । सब करें ।
!! ध्यान !!
वसन्त की सुन्दर ऋतु है ….हवा चल पड़ी है वृन्दावन में , वसन्त की मादक हवा ….यमुना बह रही हैं ….पक्षी गण कलरव कर रहे हैं ….सखियाँ उन्मत्त हो गयी हैं ….धमार का गायन आरम्भ हो गया है ….अबीर गुलाल लेकर युगल के पास चल पड़ी हैं सखियाँ । सुन्दर कुँज में युगल विराजे हैं ….उस कुँज की शोभा लताओं से और लताओं में खिले पुष्पों से हो रही है …वैसे सही में इन कुंजों की शोभा तो युगल के कारण ही है ….युगल मन्द मुस्कुराते हुये सिंहासन में विराजमान हैं….उनके हाथों में कमल पुष्प है ….जिसे वो घुमा भी रहे हैं …फूलों की चंद्रिका श्रीराधिका ने धारण कर रखी है और फूलों का ही मुकुट श्याम सुन्दर ने । कोयल पंचम स्वर में गा रही है ..जिसे सुनकर पूरा श्रीवन प्रफुल्लित है ….मुस्कुरा जाते हैं श्याम सुन्दर तो सखियाँ बेसुध हो जाती हैं और जब श्रीराधिका मुस्कुराती हैं तो श्याम सुन्दर बेसुध हो जाते हैं । वसन्त अब अपना रूप दिखा रहा है ….जिसके कारण श्याम सुन्दर अपनी प्रिया के निकट और निकट आजाते हैं ….वृन्दावन रसोन्मत्त हो रहा है …वृन्दावन में एक सुगन्ध फैल रही है …जो सबके नासिका में जाकर चित्त को विकल बना रही है ….कहाँ से आरही है ये सुगन्ध ! अजी ! ये सुगन्ध प्रेम की है ….जो वृन्दावन की भूमि में रिस रही है ….सखियाँ उन्मत्त हो गयी हैं …..तब हित सखी प्रेम के उन्माद में भर कर वो इस प्रेम भूमि का वर्णन कर रही है …और कह रही है …सखी ! वैसे ही ये वृन्दावन प्रेम रस से मत्त रहता था …आज तो इस पर वसन्त और चढ़ गया ।
लता वृक्षों से लिपट रही है …..देख ! देख सखी देख ! हित सखी कहती है …..
सखी ! वैसे ही वृन्दावन में आनन्द बना रहता है …पर वसन्त के आने पर तो आनन्द और और बढ़ गया है ……देख ना सखी ! हमारे युगल सरकार कितने सुन्दर लग रहे हैं ….नवीन शोभा से इनका रूप और दमक रहा है । नीलांबर साड़ी और पीताम्बर धारण किए हुये दोनों काम देव और रति को भी मात दे रहे हैं । दूसरी सखी कहती है ….करोड़ों काम बोल ..और करोड़ों रति बोल …हित सखी हंसी तब भी इनकी बराबरी नही हो सकती ।
देख इस वृन्दावन को …..सुन्दर मंजरी वाले वृक्ष और लताओं में मंजरी जब खिलती है तो उसकी सुगन्ध से वृन्दावन कितना महक उठा है । और इतना ही नही ..सफेद चमेली और पीली चमेली दोनों ही खिल रहे हैं …और दोनों की सुगन्ध अलग अलग है । दूसरी सखी पूछती है …कैसे ? तो हित सखी उत्तर देती है – जैसे हमारे श्याम सुन्दर और प्रिया जू ….
माधवी और गुडहल …इन दोनों में भी भँवरों ने अपना आधिपत्य जमा लिया है …देख रही है सखी ! इसमें से भी जो सुगन्ध वृन्दावन में फैल रही है …उससे आनन्द और बढ़ ही तो रहा है ।
चम्पा और मोरछली ….हित सखी कहती है ….और यमुना के किनारे ये अनगिनत कमल जो खिले हैं ….इसकी शोभा तो देखते ही बन रही है । दूसरी सखी कहती है ….देखो , देखो ….केतकी और मेदिनी दोनों कितने सुन्दर लग रहे हैं …..ये कामदेव ने खिलाये हैं …कामदेव बड़ा ही प्रसन्न हो रहा होगा । ये सुनकर हित सखी फिर उन्माद ग्रस्त होकर बोलती हैं ….सुन्दर रुचिकर वायु भी बह रहा है….आहा ! और जब त्रिविध बयार चलती है ….तो तोता शुक और कोयली बोल उठती हैं …कितना आनन्द आरहा है ।
अब सखियों का ध्यान यमुना में स्थिर हो जाता है ….यमुना भी कितनी प्रसन्न है ना ! इसके पुलिन में अनेक अनेक कुँज हैं ….ये कुंजें एक से बढ़कर एक हैं …..तभी सामने के कुँज में सखियों की दृष्टि गयी तो युगल सरकार वहीं विराजे हैं …..सखियों ने देखा ….हित सखी आनन्द में उछलते हुये बोली …अरी सखी ! देख तो इस कुँज में तो युगल सरकार के सामने मुरज ,ढोल ,मंजीरा ,डफ वीणा और मुरचन्द रखे हुए हैं …..आज वसन्तोत्सव मनाया जायेगा ..ऐसा लगता है …..तभी हित सखी के देखते ही देखते वहाँ अनन्त सखियाँ आगयीं और और वहाँ रखे वाद्य बजाने लगीं ….उन वाद्यों की ध्वनि से वृन्दावन गूंज उठा था ।
तभी – सखी देख ! हित सखी फिर उछली ….प्रिया प्रियतम एक दूसरे में कस्तूरी चन्दन की कीच छिड़क रहे हैं …..कुमकुम और चोबा भी डाल रहे हैं …जिससे इनके वस्त्र लाल पीले हो गये ….कितने सुन्दर लग रहे हैं ।
पर इतना ही नही ….अब तो अति आनन्द के कारण सभी सखियाँ उछलने लगीं ….उन्मद हो गयीं …क्यों की युगल सरकार दोनों ही धमार गाने लगे थे । सखियाँ देह सुध भूल गयीं जब युगल का गायन इनके कानों में पड़ा तो ….पक्षी स्तब्ध , वृक्ष लताएँ उन्मद हो गये । कोई कोई पक्षी तो काँप रहे थे ….अति भाव की दशा में । और यमुना रुक गयीं ….यमुना का प्रवाह रुक गया …क्या गा रहे हैं देख तो सखी , श्याम सुन्दर गाते हैं तो श्याम सुन्दर की जंघा में अपने सुकोमल कर से प्रिया ताल देती हैं …और जब प्रिया गातीं हैं तो श्याम सुन्दर ताल देना भी भूल जाते हैं ।
समस्त सखियाँ आनंदित हैं ….आनन्द सिंधु में डूब ही गयीं हैं …पर अपने को सम्भालते हुये कहती हैं …इस वृन्दावन के रस सरोवर में नित्य विहार करने वाले हे हंसनी और हंस …तुम दोनों ऐसे अनन्त काल तक विहार करो । अद्भुत ! आशीष देती हैं …ऐसे ही तुम सदा सनातन राज करो ।
पागल बाबा अबीर छींटते हैं …युगल सरकार के ऊपर … ये भी आशीष दे रहे हैं ।
आहा ! जो आनन्द बरसा उसे शब्दों में कहाँ कहा जायेगा !
गौरांगी ने वसन्त राग में फिर गायन किया इसी पद का ।
“मधुरितु वृन्दावन आनन्द न थोर”……..
जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे ! जय जय श्रीराधे !
रसिक समाज बोल उठा था ।
आगे की चर्चा अब कल –


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