!! उद्धव प्रसंग !!
{ “बाबरी मैया यशोदा” }
भाग-7
यशोदा बार बार यौं भाखे…
(श्री सूरदास)
धीरे से द्वार खोला था नन्द महल का, मनसुख ने ।
पर द्वार खोलने से पहले उद्धव को मनसुख ने बताया था…
पहले हम लोग दिन भर यहीं पड़े रहते थे… रात में भी बड़ी मुश्किल से नन्दमहल को छोड़कर जाते थे… हमारे लिए कृष्ण भी रोता था… जब हम जाते थे.. अपने अपने घर में ।
पर अब कोई नही आता मैया यशोदा के पास ।
क्यों ? आना चाहिये… आप लोगों के मित्र की माँ हैं ये !
उद्धव जहाँ भी समझाने का मौका मिले… चूकते नही हैं ।
उद्धव ! अब तो सुबह होते ही हम लोग मथुरा के मार्ग में चले जाते हैं… ये देखने के लिए कि, आज तो कृष्ण आएगा ही… हाँ… जाते समय मैया को बोल जाते हैं कि मैया ! आज तो अवश्य आएगा तेरा पुत्र… और लौटते समय… फिर यही बोलते हुए अपने घर चले जाते हैं… कि आज भी नही आया तेरा लाला ।
उद्धव ! यही है नन्द महल !
उद्धव बाहर से ही देख रहे हैं… एक अलग ही ऊर्जा है इस महल में… इस महल के अणु परमाणु प्रेम से सिक्त लगते हैं… ।
उद्धव देख रहे हैं ।
मनसुख ! अरे ! मनसुख !… तू यहाँ ?
मनसुख को देखते ही… मैया यशोदा सब कुछ भूल गयी कि उसका पुत्र तो मथुरा गया है ।
तू नही गया आज गौ चराने कृष्ण के साथ ।
मनसुख ने जाकर मैया यशोदा के चरण छुए थे… पर ये बोला कुछ नही ।
देख ना मनसुख !… सर्दी बढ़ गयी है… वो यमुना में नहाता होगा… उसे व्यसन है… जल देखते ही नहाना शुरू कर देता है ।
अब इतनी सर्दी पड़ रही है… ।
और उसका बड़ा भाई भी गम्भीर नही है… दाऊ… वो भी उस कृष्ण की बातों में आ जाता है… उसे तो रोकना चाहिए ना !
पर तू क्यों नही गया… आज कृष्ण के साथ ?
मनसुख क्या उत्तर दे इसका… ।
अच्छा ! कोई बात नही..पर इस बूढ़ी मैया का एक काम तो कर देगा ना ?… हाँ ..क्या काम है मैया ? मनसुख ने पूछा ।
देख ना ! अपनी काली कमरिया यहीं छोड़ के चला गया… कुछ याद नही रहता उसे… ।
ये ले, और जा… जल्दी जा… और दाऊ को भी कह देना… शाम को गौ चराके जल्दी आजाये… आजकल सर्दी ज्यादा पड़ रही है… ठीक है ?
इतना कहते हुए काली कमरिया मनसुख को दे दिया मैया ने ।
और हाँ… सुन ! मैं भी ना ..भूल गयी !…बूढ़ी हो गयी हूँ ना !
हाँ… अब याद आया… ये काली कमरिया शाम को आते समय मेरे कृष्ण को ओढ़ाकर ले आना… ठीक है… याद से… दाऊ को कह देना… ।
जा ! अब… जल्दी जा…
अरे ! खड़े होकर मेरा मुँह क्या देख रहा है… जा ! ।
तभी सामने देखा… नीलवर्ण का एक किशोर… बिल्कुल कृष्ण की तरह मोर पंख धारण किये हुए… पीताम्बरी ओढ़े हुए ।
गले में वनमाला… माथे में गोरोचन का तिलक और केसर का चन्दन… यशोदा मैया देखती रही ।
ये मेरा कृष्ण तो नही है… पर कृष्ण जैसा ही लग रहा है… ओह ।
मनसुख ! ये कौन है ?
मैया ने मनसुख से ही पूछा ।
ये कृष्ण का मित्र है… मथुरा से आया है… उद्धव नाम है इसका ।
पर मेरे कृष्ण का मित्र मथुरा से क्यों आया ?
बूढ़ी मैया की अब याददाश्त भी कमजोर हो गयी है… ।
कृष्ण तो मथुरा गया है ना ? मनसुख ने धीरे से कहा ।
कृष्ण मथुरा गया है ! कृष्ण मथुरा गया है !
इन शब्दों को बार बार दोहराती है मैया यशोदा ।
हाँ… कृष्ण तो मथुरा गया है ।
तभी नेत्रों से अश्रु गिरने शुरू हो जाते हैं मैया के ।
सर्दी आगयी है… वहाँ भी तो यमुना है…वहाँ भी नहाता होगा ना… वो थोड़े ही मानेगा किसी की ।
दाऊ भी कहाँ रोकता है उसे… ।
मेरे कृष्ण को मथुरा में सर्दी लग जायेगी… इतना कहते हुए बैठ जाती है मैया यशोदा… और रोने लगती है ।
मैं उद्धव… कृष्ण का सखा…
हे माँ ! आपके चरणों में, मैं उद्धव प्रणाम करता हूँ ।
उद्धव ने यशोदा के चरणों में प्रणाम किया ।
बड़े गौर से देखा यशोदा ने उद्धव को…फिर सिर में हाथ फेरती हुयी बोलीं…उद्धव ! बता ना ! कैसा है मेरा लाला ?
यही है वो आँगन… जो कभी कृष्ण की किलकारियों से गूँजा रहता था ।
पर आज सूना है… ।
यही है वो आँगन, जहाँ मेरा बेटा नाचता था… और मैं ताली बजाकर उसे नचाती थी… 5 वर्ष का जब था ।
यही है वो आँगन .।…यशोदा उठीं… और आँगन में जाकर खड़ी हो गयीं… ।
उद्धव ! इसी आँगन में एक बार मचल गया… कहने लगा… चन्दा दे… फिर कहने लगा… माखन दे… ।
अपने आँचल से मुँह ढंकते हुए… यशोदा हँसीं…
फिर कहने लगा था… मैया व्याह करा दे ।
उद्धव ! “व्याह करा दे”… ये कहता हुआ वो जिद्द करने लगा था ।
इसी आँगन में लोट गया था… अपने पैर पटक पटक कर रो रहा था…
यशोदा की हँसी और नेत्रों से आँसू… दोनों एक साथ चल रहे हैं ।
बहू ला दे… व्याह करा दे ।
हँसते हँसते, रोते रोते… यशोदा मूर्छित ही हो गयीं ।
उद्धव और मनसुख दौड़े… और मैया को सम्भाला ।
कौन ? तू कौन है ?
अब कुछ होश आया है मैया यशोदा को ।
मैं उद्धव… कृष्ण सखा ।
अच्छा ! अच्छा !
पर मैं बहरी थोड़े ही हूँ… धीरे बोल !
और हाँ… मेरा कन्हैया सो रहा है… तुम जोर से बोल रहे हो ना… जाग जाएगा…बड़ी मुश्किल से सुलाया है उसे मैंने ।
यशोदा बोले जा रही है ।
पर आपका कृष्ण यहाँ है ?
उद्धव ने इतना ही बोला था ।
मेरा कृष्ण मुझे छोड़ कर कहीं नही जाता ।
देख पालने में सो रहा है…यशोदा ने कहा ।
कहाँ है पालने में ? उद्धव ने पूछा ।
मनसुख दूर खड़ा होकर… रो रहा है ।
ये रो क्यों रहा है ? मनसुख ! तू रो क्यों रहा है ?
अरे ! ये काली कामरिया तेरे हाथ में ?
फिर यशोदा को याद आया… अरे ! मैं भी कितनी भुलक्कड़ हो गयी हूँ… पालने में कहाँ होगा अब कन्हैया… वह तो गौ चराने गया है… मनसुख ! तू गया नही !…जा ! कन्हैया भूल गया आज काली कमरिया… आते समय सर्दी लग जायेगी ना उसे…
मनसुख रोता हुआ आया… और मैया का हाथ पकड़ कर बोला…
मैया ! तेरा निष्ठुर लाला मथुरा चला गया है… वो यहाँ वृन्दावन में नही है… ।
वो मथुरा चला गया… हाँ… सही कह रहा है ये वो मथुरा चला गया ।
तू कहाँ से आया है ? फिर उद्धव से पूछती हैं यशोदा मैया ।
मथुरा से आया है ये कृष्ण का मित्र है… मनसुख ने बताया ।
ओह !… अपने पास बैठाती हैं यशोदा उद्धव को ।
देवकी है ना कृष्ण की माँ…
फिर रो पड़ीं यशोदा… मैं तो सोचती थी कि मैं हूँ कृष्ण की माँ ।
पर मुझे महाराज नन्द जी ने मथुरा से आकर बताया कि… कृष्ण तो देवकी का बेटा है… मैं तो उसकी धाय माँ हूँ… बस पालन पोषण करने वाली माँ ।
ये कहते हुए आँसुओं से यशोदा का पूरा वस्त्र ही भींग गया था ।
मेरा लाला संकोची है… बहुत संकोची है… उसे भूख लगती है ना… तो कहता नही है किसी से…।…उद्धव ! देवकी से कहना कि मेरे लाला का ध्यान रखे… मेरे कृष्ण के “ना” कहने पर भी उसे खिलाये… संकोच के चलते वो भूखा रह जाता है ।
कहीं मेरा कृष्ण मथुरा में भूखा तो नही होगा ?
उसे वहाँ माखन तो मिलता है ना ?
देवकी उसके लिए अपने हाथों से माखन निकालती है ना ?
नही तो… मैं चलने के लिए तैयार हूँ… मथुरा मैं जाऊँगी ।
पर मेरे कृष्ण का ख्याल रखे देवकी… उद्धव ! देवकी से कहोगे ना ?
उद्धव ! किंकर्तव्य विमूढ़ से हो गए ।
क्या कहें इस ममतामई माँ को !
किस शब्द से सांत्वना दें…
उद्धव को अपने शब्दों की निर्धनता पर, अपने ही ऊपर दया आरही है ।
इतने बड़े शब्दों के धनी… बृहस्पति के शिष्य के पास… आज इस कृष्ण की मैया को सांत्वना देने के लिए कोई शब्द नही है ।
अद्भुत ! ये क्या है… यहाँ का कण कण कृष्णमय है… यहाँ तो बस शरीर ही है इन ग्वालों का… शरीर ही है यशोदा का… शरीर ही है गोपियों का… पर इन सबमें बस रहा है कृष्ण ।
इनकी वाणी में कृष्ण… इनके कर्म में ..कृष्ण… उनके मन में कृष्ण ।
कृष्णमय है ये वृन्दावन… यहाँ के लोग हैं कृष्णमय ।
उद्धव क्या बोलें ? क्या बोलकर सांत्वना दें… ?
तभी नन्द महाराज ने प्रवेश किया… महल में ।
शेष चर्चा कल…
सन्देशों देवकी सौं कहियो !
हौं तो धाय तिहारे सुत की, माया करत ही रहियो ।
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