!! उद्धव प्रसंग !!
{ मैं उन कृष्ण के माता-पिता को क्या कहता..?-उद्धव }
भाग-9
तर्हि द्रक्ष्याम तद्वक्त्रं सुनसं सुस्मितेक्षणम् ।
( श्रीमद्भागवत )
मैं क्या कहूँ उन कृष्ण के पूज्य पिता से !
ओह! वो नन्दराय तो “कृष्ण कृष्ण” कहते कहते कृष्णमय ही हो रहे थे ।
और जब उन्होंने ये कहा… उद्धव ! आश्चर्य तो ये है कि अभी तक मेरे प्राण इस देह में क्यों हैं !
उद्धव ! मैं इस बृज का सबसे बड़ा श्रीमन्त था… धन के चलते मात्र नही… कृष्ण जैसा पुत्र रत्न पाकर… पर आज ये नन्द इस विश्व का सबसे बड़ा निर्धन है… गरीब है ।
उद्धव ! मेरा सब कुछ खो गया…बचे हैं केवल ये प्राण.. और मेरा रोना ।
इतना कहकर वह पूज्य नन्दराय जी रोने लगे थे…मैं उस समय अज्ञानी की भांति उनकी बातें सुन रहा था… क्या करता ?
जब वह ये कहते हुए करुण विलाप करने लग जाते… कि मेरे प्राण व्याकुल हैं… कृष्ण विरह में… उद्धव ! ये घर मुझे कारागार जैसा प्रतीत होता है… कृष्ण को भुलाने के लिये… मैं घर से जब बाहर निकल जाता हूँ… पर कहाँ जाऊँ ? जहाँ भी जाता हूँ… मुझे कृष्ण की स्मृति चारों ओर बिखरी हुयी मिलती है ।
मैं रोते हुए… अकेले में किसी भी वृक्ष के नीचे बैठ जाता हूँ ..तो कृष्ण की हँसी मेरे कानों में गूँजती है… वृक्ष के ऊपर… कृष्ण मुस्कुराते हुए दीख पड़ता है… वहाँ से निकल कर जब यमुना के किनारे जाता हूँ… तो मुरली बजाता वह मुरली धर आँखों के सामने नाच उठता है ।
तब उद्धव ! हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कहते हुये मैं जब धरती में लोटने लग जाता हूँ… तब धरती में… उसके ही चरण चिन्ह दिखाई देते हैं ।
कोई देख न ले… इसलिये अपनी दशा को छिपाने के लिए मैं गिरिराज की तलहटी में जाकर बैठता हूँ… तो गिरिराज पर्वत भी बाँसुरी को सुनकर द्रवित हो गया था…वह शिला दिखाई देती है ।
वहाँ से भी निकल कर जब वन में प्रवेश करके… कुछ राहत सी दिखती है… पर वन का कोई भी ऐसा वृक्ष मुझे दिखाई नही देता… जिसमें वह त्रिभंग ललित खड़ा मुस्कुरा न रहा हो ।
मुझे सर्वत्र वही दीखता है… आकाश में चन्द्रमा को देखता हूँ…
तो उसमें भी कृष्ण का लालित्य… फूलों में कृष्ण का हास्य ।
कोयल के स्वर में… कृष्ण का ही स्वर सुनाई देता है… ।
और जब थक कर आकाश को देखता हूँ… तो आकाश में भी कृष्ण का ही रंग दिखाई देता है ।
ये कहते हुए पितृ नन्द राय ने मेरा हाथ पकड़ लिया था… और रोते हुये बोले थे… उद्धव ! तुम तो बृहस्पति के शिष्य हो… मुझे कुछ सांत्वना देने योग्य भाषा का प्रयोग करो… ताकि मेरे जलते हुए हृदय को कुछ तो शीतलता प्राप्त हो… बोलो ! उद्धव ! बोलो !
मैं क्या बोलता ! मैं कितना दरिद्री हो गया था आज…भाषा का दारिद्र्य !
मैं जब चला था मथुरा से… तो कितना सोचते हुए चला था ।
ये समझाऊंगा… ये कहूँगा… अरे ! मैं बृहस्पति का शिष्य हूँ… चुटकी में समझा दूंगा… मेरे लिए समझाना… उपदेश देना… बाएं हाथ का खेल है… कितना अहं था मेरे मन में ।
पर अब मैं यहाँ क्या बोलूँ ?
सर्वत्र ब्रह्ममय दीखे… ये तो भक्ति और ज्ञान की चरम अवस्था है ।
और जिस अवस्था को पाने के लिये बड़े बड़े योगी ज्ञानी पापड़ बेलते रहते हैं… उस अवस्था को तो नन्द बाबा और इन मैया यशोदा ने पा लिया है… ।
इन्हें सर्वत्र कृष्ण दीख रहा है… चेतन में ही नही… जड़ में भी… ।
गायों में भी, वृक्षों में भी, पर्वतों में भी, आकाश में भी, मिट्टी के कण में भी… ओह !…
अब ऐसे उच्चावस्था में पहुंचे हुए लोगों को मैं क्या सांत्वना दूँ ?
इन्हें ये कहूँ कि ये सब छोड़ दो… ?
मत सोचो कृष्ण के बारे में ?
उसको सोचना बन्द कर दो ?
मैं इनको ये कहकर सांत्वना दूँ ?
नही… ये तो पाप होगा ।
ब्रह्म की तड़फ़ मन में प्रकट हो…इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है ?
मैं और सन्त लोग जानते ही हैं कि कृष्ण ही परब्रह्म है ।
संसार के लोग धन के लिये व्याकुल हैं… मान प्रतिष्ठा के लिए मरे जा रहे हैं… पर धन्य हैं ये पूज्य नन्द और पूज्या माँ यशोदा ।
जो निरन्तर कृष्ण के चिन्तन में ही रोये जा रहे हैं… ओह !
मैं तो प्रत्यक्ष देख रहा हूँ… मनुष्य जीवन की सार्थकता नन्द बाबा और मैया यशोदा ने पा ली है ।
मैं उद्धव… आज धन्य हो गया… आज मुझे समझ में आरहा है कि मेरे प्राण प्रिय मित्र कृष्ण ने मुझे यहाँ क्यों भेजा ।
मेरा तो मन कह रहा है… मैं कहूँ नन्द राय से… आप रोइये ।
खूब रोइये… “कृष्ण कृष्ण” पुकारते रहिये… ओह ! आप जैसा भाग्यशाली इस पृथ्वी में कौन हुआ है !
पर…ये मर्यादा तो नही है ना !…
कि कोई रो रहा हो…विलाप कर रहा हो…उद्धव ! कुछ तो बोलना ही पड़ेगा तुम्हें ! उद्धव के मन ने… उद्धव को कहा ।
पर मैं क्या कहूँ !… मेरे पास आज शब्द नही हैं… भाषा नही है ।
कोई और अगर होता… नन्द और यशोदा की जगह पर… और पुत्र वियोग से रो रहे होते… तो मैं उन्हें आसानी से कह देता… अपना मन कहीं ओर लगाओ… आप अपने पुत्र से मन हटाकर कहीं और लगाइये… और मैं उनको उपाय भी बता देता ।
पर यहाँ मैं ऐसा नही कह सकता… क्यों कि इनका पुत्र ही भगवान है ।
भगवान को छोड़कर ये अपना मन कहाँ लगाएं ?
ओह !… मुझे ये क्या हो रहा है आज ?
मेरे कुछ समझ में नही आरहा ।
नन्द राय को सांत्वना देने योग्य भाषा तो देवी सरस्वती के भण्डार में भी नही है ।
पर उद्धव ! तुझे कुछ तो बोलना ही पड़ेगा ।
ऐसे चुप होने से कुछ नही होगा ।
कृष्ण ने समझाने के लिए ही तो कहा था ना… फिर तू इनको समझा !
पर मैं कैसे समझाऊँ ? क्या कह कर समझाऊँ ?
उद्धव अन्तर्द्वन्द्वों में खो गए थे ।
पूज्य नन्दराय रोते जा रहे हैं… उनके आँसू पनारे बनते जा रहे हैं ।
मुझे अपने हृदय से लगा लगाकर… वो पुकार रहे थे… उनकी आर्ति चरम सीमा को लांघ गयी थी ।
अब मेरा चुप बैठे रहना उचित नही था… या तो मुझे भी रोना पड़ेगा या कुछ न कुछ तो बोलना ही पड़ेगा… मैंने बोलने के लिए अपने आपको तैयार किया… ।
मैं इतना असहाय कभी नही हुआ था… मैं न तो इन पिता के समान कृष्ण के विरह में रोने का अधिकारी था… न इनको ज्ञान देने की मुझ में कोई योग्यता ही अब बची थी ।
पर मुझे बोलना था… मैं बोला –
आह ! हे नन्दराज ! और हे माँ यशोदा ! आपके जैसा भाग्यशाली इस जगत में आज तक कोई नही हुआ ।
भक्त और ज्ञानी तो बहुत हैं… पर आपके जैसा कोई नही हुआ ।
हे पिता नन्द जी ! इस पृथ्वी में अनेकानेक भक्त हुए… और उनके जन्म लेने से ये पृथ्वी भी धन्य ही हुयी ।
पर आप उन सब भक्तों में अनूठे हैं… आप उन सबमें सर्वश्रेष्ठ हैं ।
आपके समान समर्पित चित्त, वियोग व्याकुलता… प्रेम… ऐसा प्रेमी… जगत में कहाँ है ?
सही बात तो ये है कि आप जैसों को अपने वक्ष में पाकर ये धरित्री भी आज धन्य हुयी है… ।
इससे ज्यादा मेरे पास बोलने के लिए शब्द नही थे… कितनी जल्दी मेरे शब्द खत्म हो गए थे ।
कुछ समय तक उस नन्द महल में चुप्पी छाई रही…
फिर अपने आँसुओं को पोंछते हुए नन्द जी ने कुछ कहा ।
वत्स उद्धव !…ये कहते हुए पूज्य नन्द ने मेरे सिर में हाथ फेरा था ।
सुना था कि तुम बृहस्पति के शिष्य हो… बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हो… और तुम्हें देखकर ऐसा लगा भी था ।
पर तुम्हारी बातें सुनकर मुझे बहुत निराशा हुयी ।
तुम तो निरे बालक हो… ।
उद्धव ! अगर ऐसा नही होता… तो तुम हम जैसे अभागों के लिये मुँह पर ही ‘भाग्यवान” न कहते ।
अरे ! उद्धव ! जो अपने पुत्र के वियोग में मरणासन्न हो रहा है… वह भी भला कहीं भाग्यवान होगा ?
और पुत्र भी ऐसा वैसा नही…कृष्ण जैसा पुत्र पाकर भी हम आज अकेले हैं… ऐसों को तुम भाग्यशाली कह रहे हो ?
अरे ! थोड़ी बहुत भी जिसमें बुद्धि होगी… वो हमें तुरन्त कह देगा… तुम्हारे जैसा अभागा इस जगत में कोई दूसरा नही है ।
अरे ! उद्धव ! हम तो कहते हैं कि हमारे जैसा भाग्य हमारे दुश्मन को भी न मिले… !
उद्धव ! हमारे ऊपर तो विधाता ही विमुख हो गया है… ।
सही बात ये है कि हमें बड़भागी कहना तो हमारा मजाक उड़ाना ही है ।
इतना कहकर फिर सुबुकने लगे थे नन्द बाबा ।
ओह ! मैंने ऐसा क्या अनुचित बोल दिया ?
मेरा बोलना यहाँ शायद उचित नही था ।
पर मैंने कुछ गलत तो बोला नही… शास्त्र तो यही कहते हैं कि भगवान के लिए रोना… तड़फ़ना… भाग्यवानों के ही भाग्य में लिखा है ।
और जिसके हृदय में कृष्ण के लिए रोना और तड़फ़ना है… वही भाग्यवान है… उद्धव जी विचार करते हैं ।
पर मेरी बातें तो पुण्यश्लोक नन्दबाबा की वेदना को और बढ़ा गयीं ।
“मैं उद्धव” दिग्भ्रांतों की तरह विचारों में खोने लगा था ।
ओह ! अब समझ में आई मेरी बात… मैं कृष्ण को ऐश्वर्य के साथ देखता हूँ… पर ये लोग कृष्ण को माधुर्य के साथ देखते हैं ।
मेरे लिये कृष्ण परम ऐश्वर्यवान हैं… परदेवता हैं… पर इनके लिए कृष्ण.. इनका सुकुमार बालक है… ये इनकी मधुरता है ।
मैं मुग्ध तो हो रहा हूँ…
नन्द और यशोदा के माधुर्य को देख कर…पर इनके साथ “एक” नही हो पा रहा ।
बस यही सोचते हुए उद्धव बैठे हैं…इनकी समझ आज लुप्त-सी हो गयी है ।
उद्धव, नंदराज के कृष्ण प्रेम को, गरिमा के साथ, बुद्धि से ग्रहण तो कर पा रहे हैं… पर हृदय से स्वाद नही ले पा रहे ।
प्रेम को बुद्धि से “वाह वाह” कहने की अपेक्षा हृदय से “आह आह” कहें…तब सार्थकता है ।
शेष चर्चा कल…
सूर पथिक! सुनि मोहि रैन- दिन बड़ो रहतु जिय सोच
मेरो अलक लडैतो लालन ह्वै हैं करत संकोच ।


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