!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( सुरत रंग – “लटकत फिरत जुवति रस फूली” )
गतांक से आगे –
उपनिषद कहती है – “वह रस है” – रसो वै सः । फिर आगे कहती है ….उसी “रस”को पाकर वह “रस” आनन्द प्राप्त करता है । रस , रस को पाकर ? जी । क्यों कि वह रस आनन्द को पाने के लिए दो रूपों में अपने को विभक्त करता है । दो रूपों में विभक्त हो वह रस आनन्दी रूप हो जाता है ।
साधकों ! ये मेरे और आपके वाक्य नही हैं …ये वेद वाक्य हैं ।
इसका अर्थ ये हुआ कि “रस”ही परात्पर तत्व है …”रस” से बड़ा कोई तत्व नही है । फिर आगे प्रश्न उठता है कि …रस अपने को दो रूपों में क्यों विभक्त करता है ? उपनिषद उत्तर देती है …क्यों कि अकेले रमण सम्भव नही है । विहार के लिए दो ही चाहिये । दो बनकर परस्पर के सम्बन्ध से वह “रस”, आनन्द प्राप्त करता है ।
इसी परस्पर सम्बन्ध का नाम प्रेम है । प्रेम का परस्पर में जो स्वाद है वही तो “रस” है । इसका अर्थ ये हुआ कि “रस” ही सर्वोच्च तत्व है ….उसी को ब्रह्म भी कहा गया है । योगी लोग परमात्मा भी उसी को कहते हैं …और भक्तों का भगवान भी वही है ।
वो रस निराकार है , जैसे ब्रह्म सत्ता निराकार है , ऐसे ही । वो आकार लेता है …वो अपने से अपनी आह्लाद शक्ति को प्रकट करता है …..फिर उसी से विहार करता है । अजी ! विहार तो फिर विहार है ……वही सम्पूर्ण में फैल जाता है …सर्वत्र वही वही होता है …..रस और आह्लाद का मिलन ! ओह ! यही रास विहार है ।
लटकत फिरत जुवति रस फूली ।
लता भवन में सरस सकल निशि , पिय संग सुरत हिंडोरैं झूली ।।
जद्यपि अति अनुराग रसासव , पान विवस नाहिंन गति भूली ।
आलस वलित नैंन विगलित लट , उर पर कछुक कंचुकी खूली ।।
मरगजी माल सिथिल कटि बंधन , चित्रित कज्जल पीक दुकूली ।
श्रीहित हरिवंश मदन सर जर्जर , विथकित श्याम सजीवन मूली । 77 ।
लटकत फिरत जुवति रस फूली ……….
राधा बाग में गौरांगी ने आज का पद गायन किया …आज श्रीहित चौरासी का सतत्तरवाँ पद था ।
बाबा कहते हैं ….इस रस से बड़ा कोई तत्व नही है ….उस तत्व की आल्हादिनी से बड़ी कोई शक्ति नही है । ये दोनों परस्पर विहार करते हैं …तो आनन्द प्रकट होता है ….उसी नित्य विहार से प्रकट आनन्द की कुछ छींटें जगत में पड़ती हैं ….तो जीव उन आनन्द के बूँदों को ही पाकर मत्त हो जाता है । बाबा कहते हैं ….विचार करो ….एक सामान्य – सांसारिक “प्रेम रस” में इतना आनन्द और मत्तता है तो उस सिंधु में कितनी होगी ? वो नित्य विहार है ….वो अद्भुत और अनिर्वचनीय है । जिसमें नाना रूपों में वह रस अपनी उन्मुक्त क्रीड़ा कर रहा है । एक ही साथ कई कुंजों में लीलाएं चलती हैं ….किसी कुँज में वो श्रीबाँके बिहारी बना है तो किसी कुँज में वो श्रीराधा बल्लभ , किसी कुँज में श्रीराधा रमण बनकर सब सखियों को मोह रहा है । अब बताओ ….एक रस नाना रूपों में दर्शन दे रहा है या नही ? बाबा ये कहते हुए बहुत हंसे कि – भेद कहाँ हैं ? सब खाँड़ ( मीठा) के रूप हैं । तत्वतः सब रस हैं । आहा ! उसी रस का ये विहार-विलास है ।
गौरांगी ने वीणा के सुमधुर तारों को छेड़कर श्रीहित चौरासी जी के पद को गाया । अब बाबा इसी पद का ध्यान कराते हैं । सब ध्यान कीजिए ।
!! ध्यान !!
“लता भवन” फूल उठी है ।
ये लता भवन लताओं से निर्मित है ….माधवी लता , तमाल आदि इतने घने छाये हैं …कि कुँज ही बन गया था । उसमें पुष्पों की संख्या हजारों में है ..और सब के सब खिल गये हैं ….उससे सुगन्ध बह रही है । उस कुँज में मोर इधर उधर घूम रहे हैं ….कभी कभी मत्त होकर पंखों को फैला देते हैं ….ये एक दो मोर नही कई मोर हैं …जब सब मोर यही करते हैं तो जो शोभा श्रीवन की बनती है वो अनुपम है । कुँज के दोनों तरफ छोटे छोटे जल कुण्ड भी हैं …उन कुण्डों में फबारे चल रहे हैं …जल के फुब्बारे …चकित होने की बात ये है कि यहाँ जल रंग बदलते हैं ….उस कुण्ड में कुछ हंस किलोल कर रहे हैं …जोड़े में हैं हंस । उसी जल कुण्ड में हिरण के बालक जल पीने आते हैं और खेलते हैं । वृक्षों में पक्षी हैं …अनेक पक्षी हैं …कोयल ,पपीहा , तोता …सब प्रिया जी के नाम का गान कर रहे हैं । आहा ! क्या दिव्यता बन गयी है श्रीवृन्दावन की ।
प्रभात की वेला है ….
पक्षियों के गान से, शीतल हवा के चलने से प्रिया जी की नींद खुल गयी है ।
श्याम सुन्दर सोये हुए हैं …प्रिया जी उठती हैं …उनके उठते ही सुगन्ध की मानों बयार सी चल पड़ती है …उसी बयार के कारण पूरा श्रीवन समझ जाता है कि हमारी रासेश्वरी उठ गयीं हैं ।
प्रिया जी अपने वस्त्रों को सम्भालती हैं ….पीताम्बर आगयी थी प्रिया जी के अंग में और नीलांबर ओढ़ के सो रहे हैं श्याम सुन्दर । वो मन ही मन मुस्कुराती हैं ..पीताम्बर ओढ़ा देती हैं श्याम सुन्दर को और तुरन्त नीलांबर अचक से लेकर स्वयं ओढ़ लेती हैं …ओह ! सब कुछ तो उलझा हुआ है …लटें उलझीं हैं …उन्हें सुलझाती हैं प्रिया जी ! श्याम सुन्दर को देखती रहती हैं …वो सो रहे हैं ….किन्तु इनकी माला उनकी माला में उलझी हुयी है …वो झुक जाती हैं श्याम के ऊपर ….और अपनी माला सुलझाने लगती हैं …उस समय वो अत्यंत निकट हैं अपने प्रीतम के ….केश-लटें श्याम सुन्दर के मुख पर गिर जाती हैं …पर वो नही चाहतीं कि श्याम सुन्दर जागें …बेचारे रात भर तो सुरत संग्राम में लगे रहे …अभी भी सुरत सुख के चिन्ह श्रीअंग में दिखाई दे रहे हैं …श्यामा जू देखती रहती हैं …फिर अचक से कपोल को चूमते हुए उस शैया से उतर जाती हैं । इनके मन में आनन्द भर गया है ….प्रीतम के साथ जो सुख लूटा है इन्होंने उसे कौन वर्णन कर सकता है …ये स्वयं भी नही । ये अकेली कुँज में घूमती हैं ….फूलों को चूमती हैं ….मोर पंख गिरे हैं चारों ओर उन्हें उठाकर अपने सिर में लगाती हैं ….फिर जल कुण्ड में जाकर अपने मुख को निहारती हैं …हंस पास में आते हैं ….तो अपनी माला तोड़कर मोती चुगा देती हैं ।
प्रिया जी अब बाहर आगयीं हैं …कुँज से बाहर ….
सखियाँ थीं …..किन्तु अकेली श्रीराधा को रसमत्त घूमते देखा तो छुप गयीं । ये सखियाँ तो अपनी स्वामिनी की इच्छा पर ही अपनी इच्छा रखतीं हैं ना !
अहो ! एक लता है उस लता की ओट में हित सखी छुपी हुई है ….वो प्रिया जी की इस प्रेममत्तता का दर्शन करती है और अपनी प्रिय सखी को उसका वर्णन करके बता रही है ।
अरे देखो ! देखो !
हमारी लाड़ली आज आनन्द के कारण कितनी प्रफुल्लित दिखाई दे रही हैं ।
ये लटक लटक कर चल रही हैं ।
कारण ?
हित सखी कहती है – कारण एक ही है …अरी सखी ! रात भर अपने प्रीतम के साथ इन्होंने सुरत सिन्धु में अवगाहन किया है …उसी के कारण तो देखो – प्रेम के हिंडोरे में ये झूल रही हैं ।
श्रीराधिका जू जल कुण्ड से कमल तोड़ती हैं ….पर तोड़ते हुए वो जल में ही गिर पड़ती हैं ….अब ये पूरी भींग गयी हैं …स्वयं पर हंसती हैं ….मत्तता और बढ़ गयी है ….जल में भींगने के कारण और मत्त हो गयीं हैं ।
“रात भर प्रेम का आसव जो पीया है” ….हित सखी समाधान करती है । एक दो बूँद में ही ये प्रेम, मत्त बना देता है ….अरी सखी ! हमारी स्वामिनी ने तो पूरा का पूरा रस आसव ही गटक लिया है ….तभी तो इनकी ये दशा हो रही है । देखो , इनके तन विवश हैं । नेत्रों में अभी आलस है ….अलकावलि छूटी हुयी है ……
हित सखी ये कहते हुए परम आनन्द में डूब रही है ।
जल कुण्ड में जल को उछाल रही हैं प्रिया जी ……मोरों ने देखा तो वो भी पास में आगये …प्रिया जी की लीला देखकर वो भी मुग्ध हो गए हैं ।
देखो , चोली खुली है …अंग भींगने के कारण प्रिया जी के स्वर्ण कलश समान वक्ष दिखाई दे रहे हैं …ये सब रात्रि के सुरत रंग हैं …जिनमें ये रंगी हुयी हैं ।
अब प्रिया जी जल कुण्ड से बाहर आगयीं , और बैठ गयीं ….गले में माला है …वो माला भी मसली हुई है ….कटि बंधन ढीला है । हित सखी आनंदित होकर कहती है …इनके नीलांबर वस्त्र में काजल और पान की पीक लगी हुई है …ये सब संकेत हैं कि …..हित सखी हंसती है ये कहते हुए ।
पर लाल जी कहाँ है ?
अन्य सखियाँ पूछती हैं ।
वो भीतर मूर्छित पड़े हैं । हित सखी हंसते हुए बताती है ।
इन्हीं ने मूर्छित किया होगा ? सखियों के ऐसा कहने पर हित कहती है …ना , स्वामिनी ने तो उन्हें जिलाया है ….मूर्छित तो कामदेव कर गया था ….पर हमारी करुणामयी सरकार इतनी करुणा से भरी हैं …कि इन्होंने देखा कि ..कामदेव इन्हें परास्त करने आया है …अचेत बना दिया है ..तब इन्होंने अपने अधर रस का पान करा, इन्हें जिलाया । और एक बार नही , बार बार ।
फिर अब क्यों मूर्छित हैं ?
हित सखी बोली …..
अब तो अति सुख के कारण , अति आनन्द के कारण , और अति रस वर्षण के कारण ।
प्रिया जी उछलते हुये एक मोर के बच्चे को गोद में उठा लेती हैं ।
सखियाँ इस झाँकी का वर्णन कर मुग्ध हो रही हैं ।
पागलबाबा अब कुछ बोल नही रहे ।
रस जब बढ़ जाता है तब मौन छा जाता है ।
गौरांगी इसी आज के पद का गायन करती है ।
लटकत फिरत जुवति रस फूली ………
शेष चर्चा कल –


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