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August 3, 2025 9:11 am

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!! उद्धव x !!-{ ज्ञान और प्रेम का अद्भुत शास्त्रार्थ } भाग-21 : Niru Ashra

!! उद्धव x !!-{ ज्ञान और प्रेम का अद्भुत शास्त्रार्थ } भाग-21 : Niru Ashra

!! उद्धव x !!

{ ज्ञान और प्रेम का अद्भुत शास्त्रार्थ }
भाग-21

ऊधो ! मन ना भये दस बीस…
(श्रीसूरदास)

उद्धव ने सारे शास्त्रों को ख़गाला है… पर गोपियाँ बिल्कुल अनपढ़ हैं ।

उद्धव परम बुद्धिमान हैं… पर ये गोपियाँ ? ये तो अपना मन बुद्धि सब कृष्ण को दे बैठीं हैं ।

शब्द का ज्ञान नही है गोपियों को… पर अनुभव है ।

उद्धव के पास शब्द का ज्ञान अपार है… पर अनुभव नही है ।

इस प्रसंग की खूबसूरती ये है कि… शब्दों का ज्ञान कैसे अनुभव के आगे नतमस्तक हो जाता है ।

पोथी कितनी पढ़ी है आपने, इसका क्या मूल्य ?

दिमाग की मेमोरी फुल कर लो… पर उससे होगा क्या ?

इन गोपियों ने तो किताबें देखी भी नही है… और ये उद्धव तो महाज्ञानी है… अरे ! बृहस्पति का शिष्य है ।

पर ये बृज गोपियाँ तो जंगल में रहने वाली हैं… नागरी सभ्यता से अपरिचित… इनको क्या पता है… ज्ञान क्या है ? योग क्या है ?

वेदान्त किसे कहते हैं…

पर इनके पास अनुभव है… इन्होंने उस ब्रह्म तत्व को अनुभव किया है… प्रेम के माध्यम से… ।


उद्धव ने अपने आपको सम्भाला… उन्हें अब डर लगने लगा था ।

नही… उद्धव ! तुम्हें इन नारियों के भाव में बहना नही है… ।

सब गोपियां उद्धव को घेर कर बैठीं हैं… उद्धव ने चारों ओर देखा ।

फिर अपनी तर्क की धार को तेज़ किया… ज्ञान से ही इनको समझाऊँ… ताकि इनको कुछ शान्ति मिले ।

ऐसा विचार कर… उद्धव फिर बोलने लगे थे ।

ये सब मन की भ्रांतियाँ हैं… उद्धव ने कहा ।

क्या ये सब !…जो श्री राधा कृष्ण का विवाह तुमने देखा… उस भाण्डीर वन में… वो सब भी मन की ही भ्रान्ति थी उद्धव ?

ललिता ने पूछा ।

हाँ… ये सब मन के ही खेल है… इसलिए हे गोपियों ! तुम्हें अपने आपको समझना होगा… तुम स्वयं ब्रह्म हो… ।

गोपियों ने एक दूसरे को देखा… हम समझें कि हम ब्रह्म हैं ?… अरे उद्धव ! हम ब्रह्म हैं… ये समझें !…तो क्या ये मन की भ्रान्ति नही है ?

उद्धव ने इस तर्क को जब सुना तो स्तब्ध रह गए… ये क्या कह रही हैं गोपियाँ । बात तो सही है…जब कृष्ण का दीखना मन की भ्रान्ति है… तो “अहं ब्रह्मास्मि” ( मैं ब्रह्म हूँ ) ये भी तो मन के ही अंतर्गत आता है ।…उद्धव तो गोपियों को गाँव की ग्वालिनी गँवार समझ रहे थे… पर ।

उद्धव चुप हो गए ।

फिर थोड़ी देर में बोले… सब ब्रह्म हैं… ।

गोपियाँ हँसीं… फिर ब्रह्म होकर, ब्रह्म को उपदेश क्यों ?

तुम ब्रह्म… हम ब्रह्म… सभी ब्रह्म हैं… फिर ये सब ज्ञान किसको ? ब्रह्म को ?… तो क्या ब्रह्म को अज्ञान हो गया है… जिसको तुम ज्ञान देने चले हो उद्धव !

वो निर्गुण है… वो निराकार है… उद्धव ने फिर ये बात उठाई ।

अच्छा ! तो तुम्हारा निर्गुण सर्वशक्तिमान है कि नही ?

गोपियों ने प्रतिप्रश्न कर दिया था ।

हाँ… है… उद्धव ने उत्तर दिया ।

अच्छा उद्धव ! एक बात और बताओ… तुम्हारा ब्रह्म अन्तर्यामी है या नही ?

है… उद्धव ने उत्तर दिया ।

तो उद्धव !…कैसा सर्वशक्तिमान है तुम्हारा ब्रह्म… जो निर्गुण से सगुण नही बन सकता ? कैसा सर्वशक्तिमान है तुम्हारा ब्रह्म… जो निराकार से साकार नही बन सकता… फिर काहे का सर्वशक्तिमान ?

उद्धव चुप हो गए ।

अच्छा उद्धव ! एक बात और बताओ… ललिता सखी ने पूछा ।

तुम्हारा ब्रह्म अन्तर्यामी है या नही ?

है… उद्धव ने बड़ी दबी आवाज में कहा ।

तो फिर हम इतना रो रही हैं… उसे पुकार रही हैं…वो सुन रहा है या नही ?…

सुन रहा है… उद्धव ने उत्तर दिया ।

अच्छा एक बात और बताओ… उद्धव !… वो ब्रह्म कृपालु, दयालु है या नही ?

है… बिल्कुल है । उद्धव ने कहा ।

तो फिर हमारी क्यों नही सुनता तुम्हारा ब्रह्म… ? हमारे इस वृन्दावन में देखो… यमुना का जल खौल रहा है… यमुना को भी विरह व्याप गया है…यहाँ की कलियां खिलने से पहले ही… झुलस सी जाती हैं… यहाँ के तृण देखो… उद्धव ! ऐसा लग रहा है कि विरहानल ने इन्हें झुलसा दिया हो ।

हमारी ही बात नही है… इस वृन्दावन को ही कृष्ण का विरह व्याप गया है… हम क्या करें अब बताओ ।

इतना कहकर गोपियां फिर उद्धव की ओर देखने लगी थीं ।

उद्धव ने कितनी तैयारी की थी… अपना ज्ञान बखारने की तैयारी… पर ये क्या ? एक ही झटके में चुप कर दिया इन बृज गूजरियों ने… उद्धव स्तब्ध हो गए थे ।


उद्धव मौन हैं… पर गोपियाँ उद्धव को टकटकी लगाकर देख रही हैं ।

चारों ओर से घेरकर बैठी हैं गोपियाँ उद्धव को ।

पर इस तरह चुप होकर बैठने से क्या होगा ?

उद्धव बोले… आँखें बन्द करो…ध्यान करो… इससे तुम्हें शान्ति मिलेगी ।

आँखें बन्द करें ? क्यों ?

अन्तर्मुखता से ही शान्ति आती है… उद्धव का कहना था ।

हँसी गोपियाँ… उद्धव ! खुली आँखों से तो वह इतना दीखता है… अगर आँखें बन्द कर लेंगी… तो विरहाग्नि इतनी तेज़ हो जायेगी कि हम जल ही जाएंगी ।

“अपना मन ब्रह्म में लगाओ”

…उद्धव के तर्क की धार अब मन्द पड़ने लगी थी ।

मन कितना होता है… एक गोपी ने प्रश्न किया उद्धव से ही ।

एक ही होता है… उद्धव का उत्तर था ।

फिर तो हमारे पास दूसरा मन है ही नही… कहाँ से मन लगाएं ?

मन एक ही था… वो तो मनमोहन चुराकर ले गया… अब दूसरा कहाँ से खोजें ?

उद्धव फिर चुप हो गए ।


अच्छा उद्धव ! एक बात बताओ ? क्या कभी भी कृष्ण हमें मथुरा में याद करते हैं ?

वहाँ तो बड़ी बड़ी सुंदरियाँ होंगी… वो तुम्हारे मित्र कृष्ण को रिझाने के लिए… नृत्य, गायन सब दिखाती होंगी… उस समय क्या तुम्हारे मित्र हमें भी याद करते हैं ?

हम तो गवाँर हैं… हमें कहाँ आता है… नृत्य, गायन… बस जँगल वासियों की तरह नाच देती थीं… गा देती थीं… ।

पर मथुरा में उन नागरियों के नृत्य को देखते हुए… कभी कृष्ण ने हमारा स्मरण किया ?… भले ही हँसी उड़ाने के लिए सही… ।

कि देखो ! नवल नागरियों ! एक तुम हो… क्या स्वर है… क्या राग है… और एक वो थीं वृन्दावन की गवाँर गोपियाँ… न कुछ ताल, न राग न नृत्य की कोई विधा… ।

उद्धव ! इस तरह ही सही… कभी कृष्ण ने हमें याद किया ?

बताओ ना उद्धव ?

गोपियां बिलख उठीं ।

“तुम लोग हृदय को शान्त करो पहले”

…उद्धव ने सोचा… इनके साथ… इनके भाव में बहने से काम नही चलेगा… इन्हें शान्त करना ही होगा… ऐसा विचार करके उद्धव बोले… तुम लोग पहले हृदय को शान्त करो ।

आग लगी है हृदय में… कैसे शान्त होगा । एक गोपी ने तुरन्त उत्तर दिया ।

उद्धव ! मत छेड़ो… हमारी ही बात नही…सबके…इस वृन्दावन में सबके हृदय जले हुए हैं… छूना नही किसी के दिल को… नही तो झुलस जाओगे ।

उद्धव ! हमें शान्त करना चाहते हो… तो ज्ञान से हमें शान्ति नही मिलेगी… हमें तो हमारे कृष्ण से मिला दो उद्धव ! तभी हम शान्त हो पाएंगीं… सच उद्धव ! सच ! गोपियों ने कहा ।

क्या कहें अब उद्धव… कुछ समझ में नही आरहा है उद्धव के ।

कुछ देर के लिए फिर मौन हो गए ।


गोपियों ! उस ब्रह्म को सर्वत्र देखो… वो सर्वत्र है… वो सर्वदा है ।
उद्धव ने फिर कहना शुरू किया ।

हमें वो सर्वत्र दीखता है… उद्धव ! तुम तो कहते हो ना मात्र !

कि ब्रह्ममय जगत देखो… पर हम सच कह रही हैं… हमें सर्वत्र वही दीखता है… तुम्हारा ब्रह्म… हमारा कृष्ण ।

और तुम्हीं तो कह रहे हो कि हमारा कृष्ण ही ब्रह्म है… तो हम नित्य निरन्तर उसी का अनुभव करती रहती हैं… उसी में रहती हैं… अपने आपको मिटा दिया है ।

तुम लोगों की बुद्धि नही है… ? उद्धव को ये कहना पड़ा… ताकि झंकझोर के इन्हें इस विरह सागर से निकाला जा सके ।

नही है उद्धव ! हम लोगों में बुद्धि नही है…तेरे मित्र कृष्ण ने हमारी बुद्धि हर ली… अपनी मोहनी मुस्कान से… अपनी टेढ़ी चितवन से… अपनी बाँसुरी की तान से… हमारी बुद्धि हर ली… नही है हमारे में बुद्धि… हम क्या करें ? बोल ?

अच्छा ! अच्छा ! एक काम करो… योग करो…

अब वेदान्त को छोड़कर योग में आगये थे उद्धव… इन्हें लगा कि शायद योग कर लें… जिससे इनका विरह कुछ तो कम हो ।

योग करो… उद्धव ने कहा ।

हमारे पास “वियोग” है… तेरे योग से बड़ा है वियोग उद्धव ।

और वैसे भी तेरे इस योग को कहाँ रखें ?

हमारे पास जगह नही है… हमारे रोम रोम में श्याम सुंदर बसा हुआ है… हम कहाँ रखें तेरा योग ?

नही… तुम लोग समझ नही रही हो… प्राणायाम करो… ।

उद्धव को लगा… ज्ञान की अपेक्षा योग में क्रिया है… शायद क्रिया ये कर लें… तो इनका विरह कम हो जाएगा ।

ये क्या होता है प्राणायाम ? एक गोपी ने पूछा ।

साँस को लम्बा खींचना… फिर रोकना छोड़ना ।
उद्धव ने प्राणायाम की विधि बताई ।

उद्धव ! तुम्हारे योगी तो एक घण्टे… या ज्यादा से ज्यादा पांच घण्टे ही प्राणायाम करते होंगे… पर हमारा प्राणायाम तो अखण्ड चलता रहता है… एक गोपी ने तपाक से उत्तर दिया ।

उद्धव ! लंबी साँस लेना प्राणायाम है ना ?

ये तो हम कृष्ण के वियोग में लम्बी लम्बी आहें भरती रहती हैं… हमारी साँस की गति बहुत लंबी होती है…और जितना हम करती हैं… प्राणायाम शायद आज तक तुम्हारे किसी योगी ने नही किया होगा ।

एक गोपी ने ये भी कह दिया… ।

उद्धव चुप । क्या कहें ?

फिर थोड़ी देर के बाद बोले… त्राटक करो… उद्धव बोले… गोपियों ! त्राटक करो… किसी बिन्दु में अपना ध्यान लगाओ… त्राटक करो… एक ही वस्तु को देखते रहो… ।

इससे क्या होगा ?… एक गोपी ने सहजता से पूछा ।

इससे तुम्हारा मन एकाग्र होगा… तुम्हारे वश में होगा… तुम्हारा मन ।

गोपियां हँसी… उद्धव ! ये त्राटक आज तक तुम्हारे बड़े से बड़े योगी ने कितने घण्टे तक किया होगा ?

यही ना… एक घण्टे ..? या पाँच घण्टे ?

पर उद्धव ! उस सामने खड़े कदम्ब के पेड़ को देख रहे हो…

बस हम लोग रोज यहाँ आती हैं… और 12 ..12…घण्टे… कभी कभी तो दो दो दिन तक उस कदम्ब के वृक्ष में त्राटक करती रहती हैं ।

उसे ही अपलक निहारती रहती हैं… क्यों कि उसी कदम्ब के नीचे बैठकर हमारा कृष्ण बाँसुरी बजाता था… उद्धव ! हम क्या करें अब बताओ ?

अन्तःकरण ब्रह्ममय बनाओ…

उद्धव को कुछ तो कहना ही था… सो ये बात भी लगे हाथ कह दिए ।

गोपियां हँसी… अन्तःकरण मानें… मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ।

इसी को कहते हैं ना अन्तःकरण ?

उद्धव ने कहा… हाँ ।

हाँ तो उद्धव ! मन हमारे पास नही है… वो तो ले गया अपने साथ ।

बुद्धि भी नही है… हर ली बुद्धि “हरि” ने… ।

अब रही चित्त की बात… तो चित्त तो कृष्णमय ही हो गया है ।

चित्त में तो कब्जा उसी का है… अब रही अहंकार की बात… तो अहं में भी वही है ।

उद्धव ! हमारा तो कुछ है ही नही… सब कुछ उसी का है… हमारा अन्तःकरण उसी का है… हम कुछ नही है ।

एक सखी बोली… ये शरीर भी हमारा नही है… अन्तःकरण तो हमारा है ही नही… पर ये जो देह दिखाई दे रहा है ना… ये भी हमारा नही है उद्धव !

अगर ये शरीर हमारा होता… तो कबका इसका परित्याग कर चुकीं होतीं हम । मर जाती हम ।

पर ये शरीर हमारा नही है ना… हमारे कृष्ण का है… इसलिये इसे सम्भाल के रखा है हमनें ।

क्यों कि इस शरीर को उसने छुआ है… यहाँ… यहाँ…यहाँ… ओह ! उसकी वो जादुई छुअन !… अपने मुख से ताम्बूल खिलाया उसने… अपनी सुगन्धित भुजाओं में बाँधा है उसने ।

नही उद्धव ! हमने नही बाँधा था उसे… नही… लक्ष्मी पकड़ के रखती है वैकुण्ठ में उन्हें… पर यहाँ वृन्दावन में… उसने हमें अपने उन बाहु पाश बाँध लिया था ।

जप करो… इससे शान्ति मिलेगी…

उद्धव को अब ये कहना पड़ा… क्या करें… तर्क खत्म जो हो गए थे उद्धव के ।

जप करती हैं हम… पर माला लेकर नही…

प्रत्येक स्वांस में उसका नाम लेती हैं हम उद्धव ।

जब जब उसकी याद सताती है… तब तब मथुरा की ओर देखते हुए… हे कृष्ण ! हे माधव ! हे गिरिधारी ! हे श्याम सुंदर !…

इतना कहते हुए… सभी गोपियां उठकर खड़ी हो गयीं… और मथुरा की ओर देखते हुए… कृष्ण नाम को पुकारने लगीं ।

पुकार में करुण क्रन्दन था… विरह की आग थी…

सारी गोपियां जब रोने लगीं…… तब उद्धव के नेत्र भर आये ।

उद्धव डर गए… ये क्या हो रहा है मेरे साथ .!

अपने आँसू पोंछने लगे उद्धव ।

पर नही… अब तो ये आँखें बहने को उतावली थीं… और उद्धव के अश्रु बह चले थे… ।

मत रोको… इन्हें बहने दो उद्धव ! बहने दो… हल्के हो जाओगे ।

श्रीराधा ने समझाया ।

मत ओढ़ो इतने भारी ज्ञान की चादर को… दब जाओगे !

उतारो इसे…इस ज्ञान के बोझ में दब जाओगे… उतारो ।

हे उद्धव ! सच्चा ज्ञान प्रेम है… श्रीराधा ने समझाया ।

सच्चे ज्ञान को आत्मसात् करता है… एक प्रेमी ही ।

क्यों कि प्रेमी की ये बात समझ में आजाती है कि सत्य केवल उसका प्रियतम ही है… बाकी सब मिथ्या है ।

और उद्धव ! सनातन प्रियतम ही तो सत्य है ना… बाकी तो सब झूठ है… है ना ?

श्रीराधा ने बड़ी सहजता से सब कुछ समझा दिया था ।

उद्धव किंकर्तव्य विमूढ़ से होकर खड़े हैं…और अश्रु प्रवाहित कर रहे हैं ।

* गौरांगी का फोन आया था… जब मैं कल रात्रि को राजस्थान में पहुँचा… कथा के लिए…

उसने मुझे रात्रि में ये छ्न्द सोते समय सुनाया…

“श्याम तन श्याम मन श्याम ही हमारो धन ,
आठो याम ऊधो हमें श्याम ही सौं काम है ।

श्याम गति श्याम मति श्याम ही है प्राणपति,
श्याम सुख दाई सौं भलाई शोभा धाम है ।

ऊधो तुम भये बौरे पाती लैके आये दौरे,
योग कहाँ राखें यहाँ रोम रोम श्याम है “

ये गाते हुए गौरांगी भी बहुत रो रही थी…

शेष चर्चा कल…

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