!! उद्धव प्रसंग !!
{ उद्धव ने ली गोपियों से प्रेम की दीक्षा }
भाग-22
वारी तेरे प्रेम पर, जित देखूँ तित तू…
( श्री कबीर दास )
उद्धव ने अब आखिरी दांव चला…
हा हा हा हा हा… कैसी विचित्र बात है ना… बेचारी… जिसने “मसि कागज छुयो नहीं” ऐसी ये बृज गोपियाँ… और दूसरी ओर महाज्ञानी… बड़े बड़े विद्वत् समाज की शोभा बढ़ाने वाले… विद्वत् समाज में… अपने तर्क और शास्त्रीय ज्ञान से विद्वानों को मुग्ध करने वाले उद्धव ।
वह उद्धव आज इन बेचारी गूजरियों से हार रहा था…
अब कुछ बचा नही था शेष उद्धव के पास ।
पर अहंकार अपना आखिरी दांव तो चलेगा ही ना… ऐसे कैसे हार जाए उद्धव ?… ऐसे कैसे हार मान जाए वो ज्ञानाभिमानी उद्धव ।
तो उद्धव ने आखिरी दांव चला… ।
ज्ञान का चादर जो वह ओढ़ते थे… जिसको ओढ़कर वो अपने आपको महाज्ञानी कहलाते हुए इतराते थे…
आज उसी चादर को उतारा था उद्धव ने अपने “सूक्ष्म देह” से ।
और उतार कर इन बेचारी गोपियों के सामने फैला दिया था ।
विचित्र था ये ज्ञान का चादर… चार कोने होते हैं ना चादर के !
इसके भी चार कोने थे…
और चार कोनो में चार महावाक्य लिखे थे… जो सम्पूर्ण ज्ञान का निचोड़ था… इसे ज्ञान का सार कह सकते हैं ।
एक कोने में लिखा था…”तत्वमसि” दूसरे कोने में लिखा था… “प्रज्ञानं ब्रह्म”…तीसरे कोने में लिखा था… “अयं आत्मा ब्रह्म” और चौथे कोने में लिखा था… “अहं ब्रह्मास्मि”… ।
इस चादर को उद्धव ने गोपियों के मध्य में बिछा दिया था…
और उस चादर के मध्य में लिखा था… “सोहम्” ।
ये उद्धव का अंतिम दांव था…क्यों कि ज्ञान की पराकाष्ठा यही चार महावाक्य ही तो हैं ।
अब बताओ…गोपियों ! हम ज्ञानी लोग उस ब्रह्म में तन्मयता को महत्व देते हैं… हम वही हैं… वह मैं हूँ… वह तू है… बस इसी महावाक्य को दोहराने से… उसके प्रति तन्मयता हो जायेगी ।
यही ज्ञान की परिपूर्ण अनुभूति है… कि उस ब्रह्म से हम अभिन्न हैं… ये समझ जाओ ।
उद्धव ने इतना कहा… और अपने बिछाए ज्ञान की चदरिया की ओर देखा ।
गोपियों ने आपस में एक दूसरे को देखा… और इशारे में ही कहा… ये क्या है ?… ये बाबरा हो रहा है उद्धव ।
फिर आगे आईँ गोपियाँ… उनके हाथों में प्रेम की छड़ी थी ।
सामने उद्धव के ज्ञान की चादर और गोपियों के हाथों में प्रेम की छड़ी ।
ओह ! क्या दिव्य शास्त्रार्थ आज फिर हो रहा था… ।
ये क्या लिखा है उद्धव ? उस ज्ञान के चादर के पास जाकर ललिता सखी ने पूछा ।
उद्धव ने कहा…”तत्वमसि” माने… “वह तू है” ।
गोपियाँ हँसीं… और ये चादर के बीचों बीच क्या लिखा है ?
उद्धव बोले – “सोहम्” माने… वह मैं हूँ ।
गोपियाँ बोलीं – उद्धव जी ! यहाँ तो “सः” यानि वह… “अहम्” यानि मैं…उद्धव ! ज्ञान में कमसे कम “वह” तो है… और “मैं” भी है ।
पर हमारे प्रेम की तो बात ही निराली है… ऐसी विलक्षण स्थिति है हमारे प्रेम की… कि उद्धव ! यहाँ तो ” मैं” उसमें हूँ… या “वो” मुझ में है… ये भी पता नही चलता ।
“मैं” और “तू” का भेद ही खत्म हो जाता है… प्रेम में ।
देखो तो उद्धव ! हमारी कैसी विलक्षण स्थिति है…ललिता ने कहा ।
उद्धव ! ज्ञान में… तन्मयता ही सर्वोच्च है… सत्य है ये… इसे हम झुठला नही रही हैं… पर हमारा निवेदन ये है… कि यही तन्मयता… यही अद्वैत स्थिति प्रेम में सहज है ..।
उद्धव ! देखो !
कान्ह भये प्राणमय, प्राण भये कान्ह मय,
हियमें न जानि परै, कान्ह है कि प्राण हैं !
उफ़ ! ये स्थिति क्या तुम्हारे अद्वैतज्ञान में है ?
उद्धव ! सुनो… सबसे पहले उस कृष्ण के गुण मेरे श्रवण में जाकर लीन हो गए… फिर प्रियतम की रूप सुधा में हमारी आँखें डूबकर लापता ही हो गयीं । उद्धव ! जैसे दूध में पानी मिलकर एक रूप हो जाता है… ऐसे ही हमारा मन, हमारी मति, हमारा चित्त सब एक हो गया… अरे ! मन कृष्ण में नही लगा… मन ही कृष्णमय होगया ।
फिर क्या हुआ कुछ समझ में ही नही आता… ।
कुछ सुध ही नही है…
कृष्ण प्राणमय हो गए कि हमारे प्राण कृष्णमय हो गए… कुछ पता नही चल रहा… ये क्या हो गया उद्धव ?
उद्धव ! क्या तुम बता सकते हो… कि मेरे हृदय में जो है वो कृष्ण हैं या प्राण हैं ?
गोपी की बात सुनकर उद्धव जड़वत् हो गए थे… क्या बोलते ? इनका ज्ञान ..इनका अद्वैतवाद तो गोपियों के प्रेमाद्वैत के आगे… परास्त ही हो गया था ।
उद्धव की चादर सिकुड़ती जा रही थी… ।
उद्धव ! तुम ये नही पूछोगे कि इतना विलाप ? इतना वियोग होने के बाद भी अभी तक अपने प्राणों को कैसे रखा है तुम लोगों ने ?
अब श्री वृषभान दुलारी ने उद्धव से ही प्रश्न किया था ।
उद्धव कुछ न बोल सके ।
इसलिये कि उद्धव ! हमारे प्राण प्रियतममय हैं… श्रीराधा ने कहा ।
और प्रियतम इसलिये प्यारा है, क्यों कि वो प्राणमय है ।
उद्धव ! रह रह कर बस हमें यही ख्याल आता है कि जो हमारे हृदय में खटक रहा है… वह प्रियतम की याद है या हमारा हृदय ही है ।
उद्धव ! “मैं” में अहंकार है… और “तू” में बेखुदी है ।
तुम्हारे ज्ञान में अहं भी है… और बेखुदी भी है… जिसने अपने “मैं” को अपने प्यारे “तू” में मिला दिया… उसी ने सब कुछ पा लिया ।
उद्धव ! फिर उसको पाने के लिए भला कुछ शेष बचा क्या ?
उद्धव ने श्रीराधा के मुखारविन्द से जब ये सुना… उनके नेत्रों से झर झर आँसू बहने लगे थे ।
श्रीराधा रानी भाव में भर गयीं… उद्धव ! प्रियतम ने जब हमें आलिंगन किया ना… तब तो हम भूल ही गयीं थीं कि… कृष्ण कौन है… और राधा कौन है ?… उसका नीला रंग मैंने ओढ़ लिया था ..और हमारा गोरा रंग कृष्ण ने ओढ़ लिया था ।
उद्धव ! एक बार महारास में जब कृष्ण अंतर्ध्यान हो गए थे… तब हम उन्हें पुकारने लगी थीं… रोते हुए बाबरी हो गयी थीं… तब हमें ऐसा लगने लगा था… कि हम ही कृष्ण हैं… और हम सब हे कृष्ण ! की जगह… हे राधे ! राधे ! आओ… तुम्हारा कृष्ण व्याकुल है… उसे गले से लगाओ… नही तो कृष्ण के प्राण निकल जायेंगे ।
हे उद्धव !… ये स्थिति क्या तुम्हारे ज्ञान में है ?
उद्धव ! जब तक उसकी “सुध” में… तुमने अपनी “सुध” नही भुला दी… तब तक उस परम स्थिति को तुम कैसे पा सकते हो ?
ये कहते हुए… श्रीराधा भाव समुद्र में डूब गयीं ।
उद्धव ने अपनी आँखों के सामने देखा कि… उनकी ज्ञान की चादर गुदड़ी बन गयी थी…।
उद्धव अपने आपको भूलने लगे थे… उनके नेत्र अब सावन भादों की तरह बरस पड़े थे… ।
उनकी हिलकियाँ छूट गयी थीं…
और “श्रीराधे”
कहते हुए उद्धव श्रीराधा रानी के चरणों में साष्टांग लेट गए थे…।
और वहाँ की रज उद्धव के अश्रुओं से भींग गयी थीं ।
श्रीराधा ने उद्धव के सिर में हाथ रखा…तब उद्धव का रोम रोम प्रेम से भर उठा था…वो रोते रहे…रोते रहे ।
अब उद्धव प्रेमी हो गए थे ।
साधकों ! ये मैंने जो लिखा है… ये सहज प्रेम है ।
इसी सहज प्रेम से… हम भी उस तक सहज पहुँच सकते हैं ।
“ये प्रेम है”
…इससे ज्यादा आज मुझ से कुछ लिखा नही जाएगा ।
बस इतना ही लिखूँगा…
मुझ में समा जा इस तरह, तन प्राण का जो तौर है,
जिसमें न फिर कोई कहे “मैं” और हूँ “तू” और है ।
शेष चर्चा कल…


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