!! उद्धव प्रसंग !!
{ मैं उद्धव, इस प्रेम नगरी में खो गया हूँ }
भाग-24
आसामहो चरण रेणु जुषामहं स्यां…
(श्रीमद्भागवत)
ओह ! ये क्या आज छ: महीने बीत गए !…और मुझे लग रहा है कि कल ही तो मैं मथुरा से आया था इस वृन्दावन में… विश्वास नही होता मुझे कि छ: महीने बीत गए !
अब जाना पड़ेगा मथुरा ?…नही…मुझे नही जाना मथुरा ।
मुझे यहीं रहना है… इसी प्रेम नगरी में रहना है ।
पर उद्धव ! क्या इतना बड़ा सौभाग्य है तुम्हारा कि इस तरह तुम रह जाओगे ?… उद्धव के मन ने ही उद्धव से कहा ।
हाँ… कहाँ मुझ अभागे उद्धव का इतना सौभाग्य होगा ।
पर मैं वृक्ष बनकर तो रह सकता हूँ ना ?… नही नही ..वृक्ष भी नही ..तो सामान्य लता… वही बन जाऊँगा… ।
पर इस प्रेम नगरी का लता पत्र बनना भी तो सहज नही हैं ना ?
हाँ मुझे पता है… सहज नही है… पर मैं निकुंजेश्वरी श्रीराधा रानी से प्रार्थना करूँगा… वो कृपा करेंगी… मुझे विश्वास है ।
वो सहज करुणामई हैं… दयालुता की राशि हैं… मेरी गुरु श्रीराधा रानी… ।
हाँ… मैं उनसे प्रार्थना करूँगा… कि मुझे लता पत्र ही बना दो ।
( पर फिर उद्धव के मन ने उद्धव से पूछा )
लता पत्र बनकर करोगे क्या ?
आँखें बन्द करके बैठ गए उद्धव… नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ।
मैं उद्धव… अगर गुल्म लता बन गया… तो गोपियों के पद रज से अपना श्रृंगार करूँगा… ।
श्री किशोरी जी अपनी नित्य सखियों के साथ निकुञ्ज में जब पधारेंगी… मुझे उस समय उनके प्रेम पूर्ण चरणों का स्पर्श मिलता रहेगा… आहा ! इन प्रेम मूर्ति गोपियों के चरण मिल जाएँ… बस फिर क्या चाहिये मुझे ।
अरे ! परब्रह्म श्रीकृष्ण स्वयं श्रीराधा रानी के चरण दबाते थे… फिर मैं क्या हूँ !… ये दोनों अलग कहाँ हैं ?
श्रीकृष्ण अभी भी यहीं कहीं हैं… वो इनसे अलग ही नही हैं ।
ये तो लीला है… जो मथुरा जाकर वह बस गए हैं ।
पर वो तो यही हैं… उनका मन यहीं है… उनकी आल्हादिनी यहीं हैं… श्री वृषभानु सुता श्रीजी… श्रीकृष्ण की आत्मा ही तो हैं ये ।
( उद्धव ऐसी कामना करते हुए…यमुना के किनारे अश्रु प्रवाह कर रहे हैं )
मैं उद्धव… अब आगया हूँ… अपनी मैया यशोदा के पास… ।
कितना वात्सल्य है इन मैया में… ओह ! सोचकर ही मुझे रोमांच हो जाता है… ।
क्यों न हो… जगत नियन्ता को अपने वात्सल्य से सींचा है इन्होंने ।
आज जब मैं गोपियों के पास से आया… मेरे आते ही… मुझे गर्म दूध… और मेवा खाने के लिए दिया… मेरी मैया यशोदा ने ।
मेरी इच्छा नही थी… खाने की… पर जबरदस्ती अपने ही हाथों से खिलाने लगीं थीं… आहा ! इतना वात्सल्य तो मेरी स्वयं की जननी ने भी नही दिया… ।
नन्द बाबा रोज आते हैं रात्रि को ..मेरे कक्ष में… और मुझे देखकर पूछते हैं… सब ठीक तो है ?… कहाँ कहाँ गए ?
मैं उन्हें सारी बातें बताता हूँ… वो मुझ बालक की बातों को भी कितने ध्यान से सुनते हैं ।
हाँ… कल मैं ग्वालों के साथ गया था… वो सब श्रीकृष्ण के ही बारे में मुझ से पूछते रहे… ।
मेरी समझ में नही आये ये ग्वाल वाल… कह रहे थे… तुम मथुरा वालों को गौ चारण करना नही आता ?
फिर बोलने लगे… कृष्ण वहाँ गौ चारण नही करता ?
तुम मथुरा वासी कृष्ण के साथ खेलने नही जाते ?
अब मैं इन प्रश्नों का क्या उत्तर देता ।
हाँ…मैंने इतना अवश्य कहा…श्रीकृष्ण तो वहाँ मथुराधीश हैं ।
पर यहाँ तो मैंने उसे कई बार अपना घोड़ा बनाया है… वो हारता था खेल में… मनसुख ने कहा था ।
फिर मनसुख ये कहते हुए रो गया…उद्धव ! कृष्ण को कहना कि उसका मनसुख फिर दुबला पतला हो गया है… आकर फिर उसे मोटा बना दे ।
मैं ये बात समझा नही… मैंने जब फिर पूछा तो उस कृष्ण सखा मनसुख ने मुझ से कहा… मेरे लिए ही उसने माखन की चोरी की थी इस बृज में… एक दिन कहने लगा था… मनसुख ! तू दुबला पतला है… खाया कर… अब उद्धव ! मैं गरीब ब्राह्मण का पुत्र… कहाँ माखन था मेरे घर में… तब कृष्ण ने कहा था…गोपियों के पास बहुत माखन है… चल चुराकर हम सब तुझे खिलाते हैं ।
तब मैं बहुत मोटा हो गया था… अब मैं वापस फिर दुबला हो गया हूँ ।
रो गया था मनसुख… कहना कृष्ण से कि आजाये फिर इस वृन्दावन में और आकर फिर मुझे माखन खिलाये ।
ओह ! कितनी आत्मीयता है यहाँ… प्रेम की तो नदी ही बह रही है यहाँ ।
हर दिन… गोपियाँ मेरा इन्तजार करती हैं यमुना के किनारे…
और मुझे बृज के हर स्थान को दिखाती हैं… कहती हैं… यहाँ उसने ये लीला की थी… यहाँ उसने ये लीला की थी ।
कल मैं बरसाने गया था… वहाँ साँकरी खोर के दर्शन किये थे ।
फिर गोवर्धन पर्वत में जाकर गोपियाँ बहुत रोईं थीं… मैं भी उनके साथ बहुत रोया… गिरिराज की हर शिला में… श्रीकृष्ण के शंख चक्रांकित चरण के चिन्ह यहाँ वहाँ छपे हुए हैं… ये सब देखकर मुझे बारम्बार रोमांच होता रहा… ।
कल तो मैं ही इतना रोया कि… बृषभान नन्दिनी सर्वेश्वरी श्रीराधा ने अपने आँचल से मेरे अश्रु पोंछे थे… तब मुझे ऐसा अनुभव हुआ जिसे मैं बता नही सकता ।
मैं नही जाऊँगा मथुरा… ऐसा रस… ऐसा प्रेम… कहाँ है उस मथुरा में… नही जाऊँगा ।
( उद्धव फिर थोड़ी देर विचार करके कहते हैं )
नही… जाना तो पड़ेगा… श्रीकृष्ण को लेकर आना है यहाँ ।
मैं कहूँगा श्रीकृष्ण से जगत को भले ही भूल जाओ… पर इस दिव्य प्रेम को मत भूलो… आजाओ यहीं… मैं भी आऊंगा उनके साथ ।
फिर हम सब यहीं रहेंगे… आहा ! कितना आंनद आएगा ।
ये विचार करते हुए… उद्धव सो गए थे… ।
अश्रु प्रवाहित करते हुए… सो गए थे उद्धव ।
साधकों ! प्रेम छुआ छूत की बीमारी है…
बच के रहना… किसी प्रेमी का संग मत करना… नही तो ऐसा प्रेम का रोग लगेगा… जो कभी नही छूटेगा ।
यहाँ बात सांसारिक प्रेम की नही हो रही… यहाँ बात हो रही है… दिव्य प्रेम की… ईश्वरीय प्रेम की… ये दिव्य प्रेम तभी लगता है… जब किसी दिव्य प्रेमी पागल का आप संग करते हैं ।
मुझे देख लो… पागलबाबा के संग ने मुझे बिगाड़ दिया ।
आज कल मैं राजस्थान में हूँ… मेरा शरीर राजस्थान में है… पर मेरा सम्पूर्ण अन्तःकरण श्री धाम वृन्दावन में ही है… मैं रोता हूँ… छुप छुप के… रात में रोना अच्छा लगता है ।
ये सब प्रेमी पागलों के संग का असर है… बच के रहना ।
कल यही बोलता रहा था… रात भर !
प्यारे ! मैं तेरा दीदार दीवाना ।
मेरी दीदी कह रही थी… इतना जागना अच्छा नही है… पागल हो जाओगे…
मैं हँसा… पागल होने में अब क़सर रही कहाँ हैं ?
शेष चर्चा कल…


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