!! उद्धव प्रसंग !!
{ इति “उद्धव प्रसंग” }
भाग-27
प्रेमदेवो भवः..
(कस्यचिद् )
“देखि लीजौ आँखें वे खुली रह जाएंगी”
उद्धव ने श्रीकृष्ण को कहा ।
कौन आँखें खुली रह जायेंगी उद्धव ? श्रीकृष्ण ने उद्धव की ओर देखा ।
अरे ! वृन्दावन वासियों की आँखें… उन ब्रिजांगनाओं की आँखें !
जो विरह का कमंडलु लेकर दिनरात तुम्हारे दर्शन की मधुकरी मांगती रहती हैं… वे आँखें !
पर तुमने ज्ञान नही दिया ? उद्धव ! तुम तो महाज्ञानी थे ना… क्यों नही समझाया उन्हें ? श्रीकृष्ण ने कहा ।
नीरस ज्ञान की बातों से उनकी भूख शान्त होने वाली नही है… प्रभु !
उद्धव ने कहा ।
तुम्हारी याद में वो लोग निरन्तर तड़फते रहते हैं… उनके आँसू अब समुद्र बनने लगे हैं… हे कृष्ण ! मुझे डर है कि कहीं उस विरह सागर में पूरा ही वृन्दावन न डूब जाए ।
उस श्रीराधा की दशा के बारे में सोचा है तुमने ?
ओह ! कभी हँसती हैं… ठहाका लगाती हैं… फिर दूसरे ही क्षण दहाड़ मारकर रोना शुरू कर देती हैं… फिर कुछ समय बाद… शून्य में तांकतीं हैं… कहती हैं वे रहे मेरे श्याम ! वो देखो मेरे श्याम ।
आप चलो मेरे साथ… मत रहो यहाँ… तुम्हारे मथुरा में न रहने से मथुरा का कुछ नही बिगड़ने वाला है… पर वहाँ न जाकर उन लोगों के प्राण अवश्य छूट जायेंगे… चलो !
उद्धव ने फिर श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ा और उठाया… चलो !
रुको उद्धव !…श्रीकृष्ण ने उद्धव को फिर बैठाया था ।
उद्धव कुछ क्षण रुक कर फिर बोले…
आपको पूज्य वसुदेव और देवकी… अन्य दो चार मथुरा में जो आपके प्रेमी हैं उनकी चिन्ता हो रही है क्या ?
तो इनको भी वहीं ले चलो ना !…
कोई गरीब नही हैं वे लोग… सब को पाल लेंगे वे वृन्दावन वासी ।
और नन्द बाबा तो महाउदार हैं… सबके आवास की पूर्णव्यवस्था हो जायेगी… उद्धव ने कहा ।
गम्भीर होकर श्रीकृष्ण अब उद्धव को समझाने लगे थे ।
उद्धव ! तुम बहुत प्रिय हो… मेरे प्रिय सखा हो…
ज्ञान तुममें अगाध है… पर तुममें मैंने देखा… प्रेम का अभाव था ।
उद्धव ! प्रेम बिना सब शून्य है… सब व्यर्थ है… ।
मैंने सोचा… मेरा ज्ञानी उद्धव ज्ञान में तो सर्वश्रेष्ठ है… पर प्रेम ।
ऐसा विचार कर मैंने तुम्हें श्रीधाम वृन्दावन भेजा था… ताकि तुम प्रेम का स्वाद चख लो… तुम्हारी आँखें सूखी थीं… इन आँखों में मैं प्रेम के अश्रु देखना चाहता था… बिना प्रेम के जल के… इन आँखों की क्या शोभा ?
पर आज मुझे अच्छा लग रहा है तू… तेरी आँखों में मैंने जल देखा… प्रेम का जल… मैं आनन्दित हो गया… मेरा उद्धव प्रेमी भी हो गया आज… श्रीकृष्ण बोले जा रहे हैं ।
ज्ञान के साथ प्रेम होना आवश्यक है… प्रेम तो सबमें चाहिए… योग में भी, कर्म में भी… सब में ।
बिना प्रेम सब शून्य है उद्धव ! सब बेकार है ।
सबसे बड़ा योग है… प्रेम योग ।
श्रीकृष्ण इतना बोलकर चुप हो गए ।
फिर आप नही जाओगे श्रीधाम वृन्दावन ?
उद्धव ने कृष्ण से फिर वही प्रश्न किया ।
कहाँ जाना उद्धव ?… किसके पास जाना ?
उद्धव हँसे… आप क्यों नही समझ रहे ? या समझना ही नही चाहते हो ?
श्रीकृष्ण ने उद्धव को अपने हृदय से लगाया… मेरे भाई ! कोई मुझ से अलग नही है… सब मुझ में ही हैं… ये सब मेरी लीला है ।
लीला है ?…कोई अलग नही हैं ? ..उद्धव अब चकित भाव से कृष्ण की ओर देखने लगे थे ।
हाँ… कोई मुझ से अलग नही है… तुमने ध्यान से नही देखा उन गोपों को… तुमने ध्यान से नही देखा उन गोपियों को… तुमने ध्यान से नही देखा मेरी राधा को… न मेरी मैया न बाबा को ।
अगर ध्यान से उनके देह को देखा होता ना… तो तुम यही देखते कि उनके रोम रोम में… मैं ही हूँ ।
श्रीकृष्ण उनके हर रोम में बसा हुआ है… मेरी ही सुवास आरही है उनके देह से… उनके मन से… ।
उद्धव कुछ नही बोले… चुप हो गए ।
फिर सहजता से श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा… अच्छा ! चलो ! कोई बात नही अब देख लो… मुझ श्रीकृष्ण के देह में देखो… देखो उद्धव !
उद्धव ने आँखें बन्द कीं… अपने आपको सम्भाला… और जब अपनी आँखें खोलीं… तो ओह ! ये क्या ! ! ! ! !
श्रीराधा, कृष्ण के हृदय में है… और मुस्कुरा रही हैं ।
गोपियाँ, श्रीकृष्ण के रोम रोम में हैं…
सिर घूम गया उद्धव का… फिर उद्धव ने अपनी आँखें बन्द कर लीं ।
और जब वापस आँखें खोलीं… तो निकुञ्ज में… दिव्य सिंहासन है… उस सिंहासन में युगल सरकार विराजमान हैं ।
श्रीराधा के दाहिने हाथ में कमल है… और बायां हाथ श्रीकृष्ण के गले में है… श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए अपनी आल्हादिनी को देख रहे हैं ।
उद्धव स्तब्ध हो गए… उनके कुछ समझ में नही आरहा था आज ।
उद्धव ने फिर अपनी आँखें बन्द कर लीं…और जब खोलीं…
गोलोक है… दिव्य गोलोक… जहाँ बाल कृष्ण मचल रहे हैं अपनी मैया यशोदा के सामने… मैया! चन्दा दे ।
और दौड़ कर मैया यशोदा अपने अंक से लगा रही हैं अपने बालकृष्ण को ।
फिर थोड़ी देर के बाद देखते हैं उद्धव…
सारे ग्वाल बाल है… खेल रहे हैं… मध्य में कन्हैया हैं… और चारों ओर सखा मण्डली है… किसी का भी जूठा खा रहे हैं कन्हैया ।
ये क्या देख रहा हूँ मैं !… उद्धव ने अपनी आँखें मलीं ।
तो सामने देखते हैं… चाँदनी रात्रि है… चाँद अपनी पूर्णता में खिला हुआ है… उसका प्रतिविम्ब यमुना में पड़ रहा है…
यमुना की बालुका चमक रही है… चाँदी की तरह ।
और हजारों गोपियाँ नाच रही हैं… वर्तुलाकार में ।
उद्धव ने गौर से देखा तो मध्य में नीलमणी के समान श्रीकृष्ण बाँसुरी बजा रहे हैं ।
दूसरे ही क्षण… उद्धव ने देखा… अष्टसखियों से घिरी हुयी श्रीराधा उधर से आती हैं… इधर से श्रीकृष्ण… और एक दूसरे के बाहों में लिपट जाते हैं… मानो बादल में बिजली चमक रही हो… ऐसा प्रतीत होने लगा उद्धव को ।
ये सब क्या है ?… ओह ! ये तो ब्रह्म और उसकी आल्हादिनी का विलास चल रहा है… उद्धव के मुख से ये निकला ।
हाँ उद्धव !… ये मेरा नित्य निकुञ्ज है… यही मेरा सनातन श्रीधाम वृन्दावन है… जिसका प्रलय में भी विनाश नही होता… और हमारा रास विलास नित्य चलता ही रहता है… ये अबाध गति से चलने वाला हमारा रास है… ।
हम कोई अलग नही हैं… हम सब एक हैं… पर लीला के लिए अनेक रूप में दिखाई देते हैं ।
अरे ! उद्धव ! राधा और मैं अलग कहाँ हैं ?
नही… एक हैं ।
इतना कहकर श्रीकृष्ण मौन हो गए ।
उद्धव ने श्रीकृष्ण चरणों में अपना मस्तक रख दिया था ।
ये लीला है… मेरी लीला श्रीकृष्ण ने कहा ।
पर ऐसी लीला क्यों ? उद्धव ने यही प्रश्न किया ।
ताकि ये संसार के लोग प्रेम को समझ सकें… श्रीकृष्ण ने कहा ।
ये संसार के लोग विषय भोग वासना को ही प्रेम समझते हैं…
मैं इस धरा धाम में अवतार लेकर आया हूँ… तो उस दिव्य प्रेम का दर्शन तो कराऊँ ना !… तब तो समझ में आएगी कि प्रेम का अर्थ ही है… प्रियतम के सुख में सुखी रहना… स्वार्थ का लेश मात्र भी न होना… स्वसुख पूर्ण रूप से निषेध है इस प्रेम में ।
यही बात मैं इस जगत को बताना चाहता था… इसलिए ये वियोग की लीला मैंने रची… इतना कहकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये ।
उद्धव ने जब श्रीकृष्ण की मुस्कुराहट को देखा… तो उस मुस्कुराहट में राधा भी थी… और श्रीकृष्ण भी थे ।
तब श्री उद्धव आनन्दित हो..”श्रीराधे श्रीराधे” का उदघोष करने लगे थे ।
साधकों ! “उद्धव प्रसंग” आज यही विश्राम लेती है ।
इच्छा नही हो रही कि… उद्धव प्रसंग को विश्राम दूँ ।
पर जैसी मेरे कन्हैया की इच्छा…
धन्यवाद मेरे प्रिय श्रीकृष्ण… मुझे उस दिव्य प्रेम का तुमने साक्षी बनाया… ।
कुछ छींटे मिले हैं मुझे प्रेम के… मैं रोया हूँ… खूब रोया हूँ ।
अच्छा हुआ मुझ जैसे पापी के पाप तो इन प्रेम के आँसू में बह ही गए ।
प्रेम की जय हो… प्रियतम की जय हो… सर्वेश्वरी श्री राधारानी की जय हो… ।
जयति जगत पावन करन “प्रेम” बरन यह दोय ।


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