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August 2, 2025 12:23 pm

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“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” -( भूमिका ) : Niru Ashra

“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” -( भूमिका )  : Niru Ashra

“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद”

    *( भूमिका )* 

“प्रेम मार्ग “की पद्धति का अन्वेषण वैसी ही चेष्टा है जैसे कोई पक्षी आकाश मार्ग की खोज करने निकले , या कोई मछली समुद्र का ओर छोर जानने का प्रयास करे ।

ये कहकर वो महात्मा हंसे , मेरी ओर देखा । मैं चकित था मैं उन्हें जानता नही । मैं तो बरसाने कल दर्शन के लिए गया था । मन में आया कि “श्रीहित चौरासी” को विश्राम दिया है …तो क्यों न श्रीराधा रानी के दर्शन कर आयें । मैं इसी उद्देश्य से आया था । मन्दिर में बैठा …दर्शन करने के बाद जैसे ही आँखें बन्द कीं ….

तभी – “प्रेम मार्ग” की पद्धति का अन्वेषण वैसी ही चेष्टा है …….

मैंने नेत्र खोले …..वो महात्मा मुझे ही बोल रहे थे ।

इस मार्ग में सबने अपनी न्यारी चाल चली है । जितने प्रेमी उतने ही इस प्रेम में मार्ग । वो महात्मा फिर हंसे ….वो उन्मुक्त हंसते थे । मैंने कुछ नही किया न उन्हें प्रणाम किया न बैठने के लिए कहा …क्यों कि मैं स्तब्ध सा हो गया था । वो महात्मा स्वयं ही मेरे पास बैठ गये ।

वही नन्द आँगन में माखन के लिए मचलता है । गोपियों के माखन को लूटता है । पनघट में मटकी फोड़ता है , पर उनकी वो बाल चापल्य लीला तब ग़ायब हो जाती हैं ….जब बरसाने में श्रीराधा स्नान करती हैं ….और पवन उनके श्रीअंग सौरभ को ले उड़ता है नन्दआँगन में …..और वो पवन जिसमें श्रीराधा के अंग की सुगन्ध है ….वो जब फैलती है ….तब ये महाचंचल कन्हैया …गम्भीर हो जाता है । वो बस “राधा राधा राधा” पुकारता रहता है , उसे सखा याद नही आते , उसे गोपियाँ स्मरण नही आतीं , ये सब कुछ भूल जाता है और “श्रीराधा स्मरण” में लग जाता है ।

वो महात्मा ये कहते हुए अब कुछ गम्भीर हो गए थे …उनका हँसना रुक गया था ।

एक पद्धति ,
प्रेम मार्ग में एक पद्धति श्रीराधारानी ने हम सब कलुषित जीवों के उद्धार के लिये दी है ।

मैंने उन महात्मा जी की ओर देखा ….उनके नेत्र अब सजल हो गये थे ।

वह विरह लीला ….महात्मा बोले । श्रीराधारानी ने जो विरह की लीला प्रकट की अवतार काल में । उफ़ !

ये क्या ! एकाएक बरसात की तरह उन महात्मा के अश्रु अब झरने लगे थे ।

बस वो लीला ! महात्मा अब रुक रुक कर बोल रहे थे ।

प्राण अटक जाते हैं वो प्रसंग याद आते ही ।

बृज छोड़कर चले गए मथुरा कन्हाई । और यहाँ श्रीराधारानी । श्रीराधारानी ! उनकी स्थिति ! विचार करो कैसी स्थिति रही होगी उनकी । व्याकुलता को भी व्याकुल कर देने की स्थिति ।

वो श्रीराधा का करुण क्रन्दन !

सखी ललिते ! मेरा हृदय आज फट रहा है , मैं क्या करूँ ? बता ना! क्या मेरे प्रीतम मथुरा से लौट आये ? बता ना ! तू आज सुबह गयी थी ना ! नन्द महल में गयी थी ना ? क्या आगये मेरे प्राण धन ! नही आये ? श्रीराधा की बातें सुनकर ललिता हिलकियों से रो रही है ।

मैं विकल हो रही हूँ , मुझे मूर्च्छा आरही है …पर ललिते ! मैं मर क्यों नही जाती ! मेरा शरीर जलता है …पर भस्म क्यों नही होता ! हे विधाता ! तू क्यों मुझे जीवित रखना चाहता है ..मार दे ना । क्यों तू मुझे मृत्यु नही देता । फिर श्रीराधा रोने लगती हैं …अपना सिर पीटने लगती हैं ….उन्माद के क्षण में उठ जाती हैं ….फिर ललिता का हाथ पकड़ कर कहती हैं – ललिते ! इस विरह का ओर छोर मुझे कहीं दिखाई नही दे रहा । मैं क्या करूँ ? ललिते ! कोई उपाय हो तो बता ना ! एक क्षण के लिए ही सही …मुझ में धैर्य आ सके , ऐसा उपाय कर ना । कुछ कर । श्रीराधारानी विरह की पीड़ा से चीख उठती हैं ।

मेरे नेत्रों से भी अश्रु बहने लगे …
उन महात्मा ने मेरे हृदय में श्रीराधारानी का विरह चित्र खींच दिया था ।

मेरे मन में आया …अभी अभी मिलन की लीला को गाया है …निकुँज के मिलन लीला का गान किया है , रास, महारास , उत्सव उत्साह का खूब वर्णन किया गया हैं । वहीं अब ये अवतार काल में इस भू को प्रेम रस से सींचने पधारीं, प्रीतम के विरह उन्माद में डूबीं श्रीराधारानी का चरित्र गाऊँ ? उन्मादिनी श्रीराधिका का ?

किन्तु अभी मन नही कर रहा ।

कोई मेल नही है …निकुँज रस के बाद इस विरह सिन्धु में डूबना ?

भूल है तुम्हारी जो मिलन को ही रस मानते हो ….महात्मा ने कहा …तो मैं चौंका । मेरे हृदय की बात ये कैसे जान गये थे ।

तुम बात निकुँज की कर रहे थे ….किन्तु तुम हो मृत्यु लोक में ….हो ना ? और याद रहे मृत्यु लोक की सच्चाई है …विरह । क्यों की एक रस यहाँ विरह ही रहता है । इसलिए विरही की साधना कभी खण्डित नही होती । वो महात्मा मुझे बता रहे थे । विरह में सर्वत्र प्रीतम ही प्रीतम होते हैं । विरह तुम्हारे सारे पापों को जलाकर तुम्हें पवित्र प्रेम का अधिकारी बना देती है । या कहूँ कि तुम इतने साफ हो जाते हो , इतने पवित्र कि प्रीतम की गोद तुम्हें मिल जाती है ।

उन महात्मा को मैंने अब ध्यान से देखा तो कुछ अलग ही नूर दिखाई दिया ।

सब रस है , आग्रह दुराग्रह से मुक्त हुये बिना कैसे प्रेम राज्य में प्रवेश करोगे ? मात्र मिलन की चर्चा ! क्या विरह बिना प्रेम पुष्ट हुआ है ? रो लो ! वो मुझे उकसाने लगे महात्मा ! रोने से हल्के हो जाओगे ? अभी तुम्हारा दिमाग चल रहा है ….सुनो ! क्या तुम्हें पता है दिमाग और दिल में झगड़ा चलता ही रहता है । दिमाग स्वतन्त्रता चाहती है …और दिल किसी के साथ बंधना । दिमाग आराम पसंद है …पर दिल किसी के लिये कंटक पथ पर चलना , चलना , बस चलते जाना । उफ़ ! मंज़िल किसे चाहिये ! सफ़र में ही मज़ा आरहा है ! रोने का मज़ा ! उसे पुकारने का मज़ा ! वो महात्मा अद्भुत थे ….वो प्रेम पथ के पूरे जानकार थे । दिमाग कहता है …चल , बाज़ार घूम आयें …काम की चीज़ ले आयें ….पर दिल कहता है ….काम की चीज़ तो अपना महबूब है …चल उसकी गली घूम आयें । बाग में बसन्त है , दिमाग ने कहा । दिल ने उत्तर दिया – प्रीतम की गली में रोज बसन्त है । दिमाग प्रतिष्ठा के लिए सब कुछ खो देती है ….पर दिल मान प्रतिष्ठा को सरे बाज़ार नीलाम कर मस्त रहता है ।

वो महात्मा उठ गये थे ….और जाते जाते बोले ….”विरह पर लिखो” । इन करुणामयी ने हम लोगों के लिए विरह की साधना सिखाई है ….श्रीजी की ओर संकेत करते हुए वो महात्मा बोले और चले गए । कहाँ गए पता नही , वो ग़ायब ही हो गये थे ।

मैं उठा , मेरे नेत्रों से अभी भी अश्रु बह रहे थे ।

क्या लिखूँ ?

श्याम सुन्दर चले गये मथुरा , फिर जो स्थिति बृज की हुयी । इसका चित्रण करूँ ?

बृज जन में भी ……श्रीराधिका जू की विरह स्थिति ! अवतार काल में – मिलन तो मात्र ग्यारह वर्ष तक का ही रहा । विरह तो पूरे सौ वर्ष का । ओह ! मेरा हृदय काँप उठा । मैं लिखूँ ?

श्रीजी के सामने खड़े होकर मैंने आज्ञा माँगी । तुरन्त एक गोसाईं जी ने माला मुझे श्रीजी की प्रसादी पहना दी । मुझे आज्ञा मिली । यही आज्ञा थी । मैं राधा बाग को प्रणाम करते हुए वापस श्रीवृन्दावन आगया था ।


किस पर लिख रहे हो हरि जी ! गौरांगी ने श्रीवृन्दावन पहुँचने पर मुझ से पूछा ।

“श्रीराधिका का प्रेमोन्माद” मैं इतना ही बोल सका । क्या ? गौरांगी को भी अजीब लगा । श्रीहित चौरासी के बाद श्रीराधारानी का ऐसा चित्रण ? मैंने कहा – गौरांगी ! मुझे कुछ नही पता …किन्तु प्रेरणा मुझे हुई है ….इसलिए लिख रहा हूँ । चलिये ! हरि जी ! अब रोयेंगे !
मैंने कहा ….मेरा रोना तो आरम्भ हो गया है गौरांगी !

क्रमशः….

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