!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 81 !!
श्रीराधामहाभाव की कुछ तरंगें…
भाग 1
हे वज्रनाभ ! “विश्व” शब्द ब्रह्म का ही पर्याय है …..और प्रेम, विस्तृत होते होते जब विश्व ही अपनें प्रियतम के रूप में दिखाई देनें लगे ……जड़ चेतन का भेद मिटनें लगे …..वृक्ष में भी वही , पक्षी पशु में भी वही …..आकाश और पृथ्वी में वही ……..तब समझना प्रेम की उच्चतम स्थिति आगयी ।
पर हे महर्षि शाण्डिल्य ! हम जैसे साधारण जन कैसे उस प्रेम की उच्च स्थिति तक पहुँचें …….हे भगवन् ! श्रीराधा एक महाभाव है ….उस महाभाव की उच्चावस्था तक पहुँचना असम्भव ही है……..फिर भी मुझे लगता है कि आप जैसे सिद्ध सन्तों की कृपा हो जाए तो कुछ भी असम्भव नही हैं ……इसलिये हे महर्षि ! हम उस दिव्य विस्तृत होते प्रेम तक कैसे पहुँचें ……….अगर मैं अधिकारी हूँ तो मुझ पर कृपा करें और उस प्रेम तत्व का रहस्य उजागर करें ।
वज्रनाभ की बातें सुनकर महर्षि अत्यन्त प्रसन्न हुए ……….और बड़े उत्साह के साथ प्रेमतत्व का निरूपण करनें लगे थे ।
प्रथम सीढ़ी तो यही है इस प्रेम साधना की ……….कि – जीवन के किसी भी एक झरोखे से प्रेम को प्रवेश कराना होगा ………और अनन्यता से उस प्रेम को साधना होगा ………लौ लगी रहे ।
महर्षि बड़े आनन्द के साथ वर्णन कर रहे थे ।
इस तरह अनन्यता से प्रेम की साधना करनें पर…….कुछ ही दिनों में …ये प्रेम विस्तृत होनें लगेगा…..क्यों की प्रेम का एक स्वभाव होता है ….वो स्थिर नही रह सकता …….या तो बढ़ता जाएगा …..या घटते घटते समाप्त ही हो जाएगा…….चन्द्रमा की तरह होता है प्रेम ।
इसलिये अनन्यता रखिये ……….अनन्य होते हुये प्रेम को साधिये ।
हे वज्रनाभ ! फिर देखना……..प्रेम बढ़ेगा ……….बढ़ता बढ़ता जाएगा ……….और एक दिन – समस्त में …….विश्व में………बस वही दिखाई देगा …….बाकी सब मिथ्या, वही एक सत्य ……ये स्थिति सहज होती जायेगी…….ये आरोपित नही करना है……सहज होगा ।
है ना आश्चर्य ! विरहिणी श्रीराधिका विश्व-प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुँच गयीं ।………….उनकी दृष्टि श्याममयी हो गयी …………..श्याम आकाश, श्याम घन, श्यामला पृथ्वी ……श्याम पक्षी ……….
अरे ! मुख्य बात ये है वज्रनाभ ! कि श्रीराधारानी के आँखिन की पुतरी ही बदल गयी है …….हाँ यही तो प्रेमदेवता का चमत्कार है ।
अब देखो ! श्रीराधारानी को जड़ चेतन कुछ नही दिखाई दे रहा ………सर्वत्र श्याम ही श्याम खड़े दीख रहे हैं …………आहा ! महर्षि ये बात बोलते हुये प्रेम सागर में ही मानों गोता लगा रहे थे ।
श्रीराधारानी की बात तो छोड़ दो…… ये गोपियाँ भी साधारण नही हैं………हे वज्रनाभ ! एक बार ऋषि अगस्त्य श्रीधाम वृन्दावन में आये थे ……तो उन्होंने देखा……साक्षात् ब्रह्म विद्या यहाँ गोपी बनकर नाच रही है…..आश्चर्य चकित हो गए ऋषि अगस्त्य …….फिर आगे बढ़े तो क्या देखते हैं कि – वेदों के मन्त्र गोपियाँ बनीं “कृष्ण कृष्ण” पुकार रही हैं…..अब थोड़ा और आगे बढ़े तो क्या देखते हैं ऋषि कि – स्वयं ब्रह्म की निज आल्हादिनी शक्ति झूम रही हैं ……और उनके ही आस पास वो ब्रह्म भी नाच रहा है ………ये दर्शन किया था एक बार इसी वृन्दावन में ऋषि अगस्त्य नें ……महर्षि नें बताया ।
इसलिये गोपियाँ , श्रीराधारानी , यहाँ के ग्वाल बाल ….यहाँ के वृक्ष, पक्षी ये सब साधारण नही हैं …….ये सब प्रेम के सहायक हैं ।
पर हे वज्रनाभ ! जब प्रेम का रहस्य ही प्रकट करना है ……तो वह मात्र संयोग से प्रकट नही होगा …….मात्र रासलीला से प्रकट नही होगा ……वह पूर्ण प्रेम प्रकट होता है ………..विरह से …….वियोग में ……..विरह में ही सम्पूर्ण सृष्टि ‘प्रियमय” हो जाती है ……..वियोग में सर्वत्र प्रियतम का ही आभास होता है …………महर्षि नें बताया ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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