श्रीराधिका का प्रेमोन्माद – 18
( मथुराधीश का अन्तःपुर )
गतांक से आगे –
हे मथुरा की नागरियों ! इस जोगन पर कृपा करो ….इसको तुम्हारे राजा का अन्तःपुर कहाँ है वो बता दो …..जोगन भेष में ललिता सखी यही बोल रही थी ।
किन्तु ….हमारे राजा के पास जाओगी कैसे ?
नागरियाँ ललिता को देखकर विकल हो गयी थीं । वो एक दूसरे से कुछ कुछ कहने लगीं । एक कह रही थी …..राजमहल का द्वितीय द्वार राजपरिवारी लोगों के लिए खुला रहता है …ये राजकन्या से कम तो लगती नही है …इसको राजकन्या ही बनाकर भेजा जाए । कोई बोली – नही , नहीं अगर सैनिकों ने पकड़ा तो कारागार में डाल देंगे …झूठ का आश्रय लेना उचित नही है । ललिता सखी सबकी बातें सुन रही है …..उसे हंसी भी आती है ।
“आजा , कन्हैया ! आजा ! माखन खायेगा ?
चल , नाचके दिखा । जा , नही नाचेगा तो माखन नही दूँगी ।
अरे ! वाह ! कितना सुन्दर नाच रहा है ।”
हमारे यहाँ नाचता डोलता था ….एक छटाँक भर माखन के लिए …..और यहाँ ? वाह रे मथुराधीश । ललिता खो गयी थी पूर्वस्मृतियों में ।
सुनो ! तुम सामने से दाईं ओर चली जाओ …..
नागरियाँ अब ललिता सखी को कृष्ण के अन्तःपुर का पता बता रहीं थीं ।
वहाँ एक सुन्दर बाग है …..तुम निर्भीक होकर चली जाना ….और सैनिक अगर रोकें तो कह देना …मैं एक जोगन हूँ ….मैं किसी के घर में वास नही करती ….इसलिये मुझे आज रात्रि यहीं विश्राम करने दो । दूसरी नागरी तुरन्त बोली …फिर भी तुम्हें नही जाने दें सैनिक तो कह देना ….मैं राजा से तुम्हारी शिकायत कर दूँगी …और तुम्हारे राजा जोगी जोगन के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते हैं ।
ललिता सखी ने उन नागरियों का अभिवादन किया और आगे के लिए बढ़ गयीं ।
अब ललिता को कृष्ण के निकट पहुँचना है …..जैसे भी हो । एक एक क्षण इसके लिए अमूल्य हैं …क्यों की इसकी स्वामिनी इसकी ही तो अब वाट जोह रही हैं ।
ये बाग है । बड़ा ही सुन्दर है ….वैसे वृन्दावन की तुलना में तो कुछ नही है …किन्तु नगर में ऐसे बागों का होना विशेष ही माना जाता है । और ये राजपरिवार का अपना बाग है ।
ललिता के लिए सुलभ ये है यहाँ कि कृष्ण के अन्त:पुर का झरोखा यहीं खुलता है….
कृष्ण झरोखा खोलकर बागों में खिले पुष्पों की सुगन्ध लेते हैं । ललिता ने बाहर से देखा ….इसको क्या आकर्षण होगा मथुरा के बागों में । जिसने कुँजें और निकुँजें देखी हों ….कदम्ब में लिपटी तमाल देखी हो …..अगनित मोरों का नित्य नृत्य देखा हो ….और सारे रंगों में कमल पुष्प देखा हो , उस स्थान की है ये ललिता । क्या आकर्षण होगा इसको । इसको तो बस अपनी स्वामिनी के लिए श्याम सुन्दर को यहाँ से ले जाना है …और कैसे भी हो । क्यों की ललिता के लिए इसकी स्वामिनी ही सर्वोपरि है ।
कहाँ जा रही हो ? एक सैनिक ने ललिता को बाग में प्रवेश करते देखा तो पूछ लिया ।
ललिता ने उसकी ओर देखा ….बस देखा । दूसरे सैनिक ने तुरन्त कहा …जोगन हैं …ये लोग किसी के घर में नही रुकते ….बाग बगीचा ही इनका स्थान है । ये सुनकर तीसरा सैनिक बोला …किन्तु ये तो राजपरिवार का अपना बाग है ….प्रजा का इसमें प्रवेश कहाँ ? चौथा सैनिक भी बोल उठा ….ये देखने पर तुम्हें प्रजा लग रही हैं क्या ? मुझे तो लगता है कोई राजकुमारी हैं जिन्हें वैराग्य हो गया और जोगन बन गयीं । ये सुनकर पहले सैनिक ने कहा ….हाँ , हमारे राजा जोगी जोगन आदि को बहुत मानते हैं ….जाने दो ।
ओ बहन ! क्या रात्रि भर रुकोगी ? ललिता ने हाँ में सिर हिलाया …पर बोलीं नहीं ।
सैनिक ने फिर प्रश्न किया …..मौन में हो क्या महाराज ? ललिता ने फिर ‘हाँ’ में ही सिर हिलाया ….और बाग में प्रवेश किया ।
ललिता बैठ गयी है एक घने पीपल वृक्ष के नीचे…
झरोखा अभी खुला है , उसमें से सुगन्ध आरही है ।
ललिता देख रही है ….रात्रि की वेला हो गयी ….तभी कृष्ण अपने अन्तपुर में आए ….सभा से आये थे ….लग ही रहा था । ललिता उठ कर खड़ी हो गयी ….श्याम सुन्दर ने सिर में मोरपंख लगाना नही छोड़ा है …..वही पीताम्बरी …वही गले में माला । ललिता अपलक देखती रही …उसे रोमांच हो रहा है …उसे अपनी स्वामिनी की याद सताने लगी ….आहा ! मेरी स्वामिनी यहाँ होतीं तो अपने प्रीतम को देखकर कितनी आनंदित होतीं । उसके नेत्रों से अश्रु बह चले थे ….वो देख रही है …श्याम सुन्दर झरोखे के पास आये तो ललिता छुप गयी ……..
उद्धव ! मुझे प्रपंच नही करना ….मुझे अपने में ही जीना है ….
उद्धव ?
ललिता देखती है इस उद्धव को भी ……ओह तो ये है , जो हमारे कृष्ण का यहाँ मित्र है , ललिता ने ध्यान से देखा …कृष्ण की तरह ही लगता है उद्धव । कुछ रोष में , कुछ खीजे हुए से लगे श्याम सुन्दर ललिता को …
उद्धव ! मुझे यही सब करना था तो राजा मैं ही बनता ना , उग्रसेन को क्यों बनाता ?
पर राजा तो आपको ही मानती है प्रजा , उग्रसेन को कोई मानता । उद्धव ने भी मुस्कुराकर कहा ।
किन्तु कृष्ण के मुख मण्डल में कोई मुस्कुराहट नही ……ललिता देख रही है ….कितने खिलखिलाते थे ये वृन्दावन में । यहाँ ? इतने गम्भीर ! ललिता देख रही है ।
मुझे नही सुनना “राजाधिराज” मुझे नही सुनना “मथुराधीश” , मुझे तो कोई कन्हैया कहे ।
कन्हैया ! ये कान सुनने को तरस गए हैं उद्धव ! कि कोई मुझे कनुआ कहे । ये ललिता ने सुनी ….तो वो रो पड़ी ….भीतर श्याम सुन्दर के भी नेत्र भर आये थे वो अपनी पीताम्बर से अपने कमल नयनों को पोंछ रहे थे …ललिता देख रही है । मौन देखा , कहीं खोये देखा उद्धव ने श्रीकृष्ण को , तो प्रणाम करके वो चला गया ।
अब श्याम सुन्दर ….कोई नही है इनके अन्तपुर में …..ये अकेले हैं …ललिता देख रही है ….कि ये करते क्या हैं ? झरोखा पूरा खोल लिया …शीतल पवन के झौंके आ रहे थे ….नेत्रों को बन्दकर श्याम सुन्दर पवन के झौंकों को अनुभव कर रहे हैं ।
तभी – इकतारा निकाला ललिता सखी ने …..और उसमें गायन आरम्भ कर दिया ।
ओह !
“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्रीराधे”
ये क्या !
श्याम सुन्दर चौंक गये …..”राधा नाम “ !
ये नाम यहाँ कैसे ? श्याम सुन्दर बैचेन हो उठे थे ।
उधर से ये राधा नाम चल ही रहा था ।
उफ़ ! इस मधुरातिमधुर नाम को कौन गा रहा है ? श्याम सुन्दर देखने लगे ….बाग से ही आवाज आरही थी …..इकतारा में कोई गा रहा है ….पर कौन ?
“जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्रीराधे”
ओह ! श्याम सुन्दर के नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….वो झरोखे से खोज रहे हैं …कौन है जो गा रहा है …और ये आवाज़ ! ये आवाज पहचानी भी लग रही है श्याम सुन्दर को ।
हाय !
ये नाम मुझे कौन सुना रहा है ….लगता है इस नाम को सुनाने वाले को मैं अपना सब कुछ दे दूँ ? इस राधा नाम के लिए तो मैं अपने आपको भी दे सकता हूँ । श्याम सुन्दर विकल हो उठे …उनके हृदय में श्रीराधारानी प्रकट हो उठीं । आहा ! राधा ! कितना माधुर्य भरा है इस नाम में ….ओह ! कितना रस है इस नाम में । श्याम सुन्दर देह भान भूल रहे हैं ……उनके नेत्रों से अश्रु अविरल बह रहे हैं ।
मेरे असंख्य अधर हों जिससे मैं इस राधा नाम का सम्पूर्ण रस पान कर सकूँ । मैं इस नाम को निरन्तर ले सकूँ ! हाय ! श्याम सुन्दर बेचैन भी हो रहे हैं ….वो उसको खोज रहे हैं जो इस नाम को ले रही है ।
आहा ! इस नाम में विधाता ने कितनी मिठास भर दी है …कि रा-धा बोलो …तो दोनों अधर आपस में चिपक जाते हैं …..ये कहते हुए श्याम सुन्दर अपने आपको देखने लगे ….इस राधा नाम ने श्याम सुन्दर को एक विचित्र स्थिति प्रदान कर दी थी ।
क्या हुआ मुझे ? श्याम सुन्दर काँप रहे हैं भाव के उद्वेग के कारण ।
उद्धव ! उद्धव ! श्याम सुन्दर उद्धव को पुकारने लगे ।
देख ना ! उद्धव !
कौन है वहाँ …..इस बाग में कौन आया जो मेरे हृदय के तारों को झंकृत कर रहा है ।
किन्तु उद्धव अपने कक्ष में जा चुके हैं ।
श्याम सुन्दर इधर उधर घूम रहे हैं …उनकी बेचैनी देखी जा सकती है ।
हाय ! वृन्दावन ! इस नाम ने मुझे याद दिला दी आज वृन्दावन की ….
और – मेरी राधा ! मेरी राधा !
ये कहते हुए श्याम सुन्दर अब विरहाकुल हो गये थे ।
ये राज्य मथुरा का तुच्छ है मेरे वृन्दावन के आगे …अरे मथुरा का राज्य क्या त्रिभुवन का राज्य भी तुच्छ है वृन्दावन के आगे तो ।
तभी – “राधा राधा” नाम की मधुर ध्वनि रुकी ….श्याम सुन्दर उस अन्धकार में देख रहे हैं जहां से ये ध्वनि आरही थी ।
कौन ? कौन हो तुम ?
पीले वस्त्रों में वो गौरवर्णी ……..सामने आयी ।
श्याम सुन्दर उसे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं ।
क्रमशः….
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