!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 89 !!
बरसानें के ब्रह्माचल पर्वत से…
भाग 1
आहा ! मैं आल्हादिनी के पावन धाम में खड़ा हूँ ……….
हाँ मुझे कहते हुए गर्व हो रहा है कि ….मैं प्रेम नगरी बरसानें में हूँ ।
उद्धव बरसानें के पर्वत में खड़े….झूम रहे थे….उनके साथ ललिता सखी भी थीं…..यही लेकर निकलीं थीं आज उद्धव को बृज दर्शन करानें ।
ब्रह्माचल पर्वत पर ही स्थित है श्री बरसाना धाम…….हे वज्रनाभ !
तीर्थों का दर्शन , तीर्थों में वास ……ये पुण्य का फल होता है ……..पर “प्रेम नगरी” का दर्शन और वास ये हमारे पुण्यों का फल नही होता ….ये तो तभी सम्भव है ……जब आल्हादिनी की कृपा हो ……….
और वज्रनाभ ! उन आल्हादिनी की कृपा भी तब प्राप्त होती है …….जब त्रिपुर भगवती प्रसन्न हों ……….हे वज्रनाभ ! पूर्व में मैं तुम्हे बता चुका हूँ कि ….ललिताम्बा त्रिपुर सुन्दरी भगवती हैं …….और यही त्रिपुर भगवती इन आल्हादिनी श्रीराधारानी की सेवा में नित्य निरन्तर लगी रहती हैं .ललिता सखी इनका नाम है…….इसलिये आल्हादिनी की कृपा चाहिये तो उनकी जो ये सहचरी हैं ……इनको प्रसन्न करो …….ये रहस्य है वज्रनाभ !
महर्षि ! मुझे उस रहस्य को जानना है …..मुझे भी आल्हादिनी की कृपा प्राप्त करके ……निकुञ्ज भावापन्न होना है …..और उन “प्रेम लोक”… कुञ्ज, निकुञ्ज , नित्य निकुञ्ज, निभृत निकुञ्ज ………..इनका दर्शन करना है ………मुझे पता है महर्षि ! पुरुष के अहंकार का इन “प्रेम लोक” में प्रवेश नही है……वहाँ तो प्रेम से सिक्त सखी भाव का ही प्रवेश है …….ये अत्यन्त रहस्यपूर्ण है ………..मुझे जानना है …….वज्रनाभ नें जिज्ञासा रखी महर्षि शाण्डिल्य के सामनें ।
हे वज्रनाभ ! प्रसंग आनें दो ………..प्रेम देवता स्वयं ही उस रहस्य से पर्दा उठाएंगे……..इतना कहकर फिर उद्धव प्रसंग को ही आगे बढ़ाया महर्षि शाण्डिल्य नें ।
देव गुरु की कृपा से मैं स्वर्ग में भी घूमा हूँ ……और सत्य लोक में भी गया हूँ ……
पर मैं सच कह रहा हूँ ललिते ! जो सुख , जो सुन्दरता यहाँ है वह किसी भी लोक में नही है………
उद्धव ब्रह्माचल पर्वत पर खड़े हैं…..और चारों ओर देख रहे हैं ।
ललिता सखी बता रही हैं – उद्धव ! वो है नन्दगाँव …………
वहाँ से बाँसुरी बजाते थे श्याम सुन्दर ……….और श्रीराधारानी यहाँ से सुनकर दौड़ पड़ती थीं …………….
उद्धव ! क्या बतावें हम……….एक दिन बाँसुरी बजा रहे थे श्याम सुन्दर ……..तभी इधर बरसानें से हवा चली ……….बाँसुरी बजाते हुये श्याम को उस हवा नें छू लिया था …….हवा ऐसे ही नही बही थी ……..हमारी स्वामिनी श्रीराधा सुकुमारी के अंग को छूकर गयी थी ……..प्यारी के अंग की सुगन्ध श्याम को जब मिली …..वो मूर्छित हो गए थे……उद्धव ! हमारी लाडिली और हम सब जब वहाँ गयीं तो चकित हो गयीं ………श्याम सुन्दर मूर्छित थे …….उनके रोम रोम से “राधा राधा राधा” प्रकट हो रहा था………लाडिली दुःखी हो गयीं अपनें प्राण प्यारे की यह दशा देखकर………वो मेरी ओर देखनें लगीं थीं…….मैं क्या करती …….पर उद्धव ! मेरे मन में एक विचार आया तत्क्षण ……….मैने लाडिली की चूनर ली, और श्याम सुन्दर को पँखा करनें लगी……
बस ……उसी क्षण श्याम सुन्दर उठ गए थे…….वो अपनें सामनें अपनी प्रिया को पाकर बहुत प्रसन्न थे ……….दोनों गले मिले ………आहा ! कितना अद्भुत प्रेम ! ललिता सखी नें अपनी आँखें बन्द कर ली थीं …….पर उनके आँखों की कोर से अश्रु बह ही रहे थे ।
आहा ! शीतल हवा बरसानें की !
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –


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