!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 3 – “मति और रति में कलह”)
हे रसिकों ! आइये …इस अद्भुत प्रेम काव्य के मूल का रस लें ।
कल आपको परिचय दिया गया था …प्रेम नगर का …वहाँ के राजा “मधुर मेचक” का , उनकी दो पत्नी हैं मति और रति । अब आगे –
“यत्र वशीकृतदयिता पत्युर्दयितातिगर्विता ।
सततं रति अनुकूला महिषी मतिं कदर्ययामास ।।
इसका मूल अर्थ समझिये …..फिर आगे चर्चा होगी ।
अर्थ – अब रति ने अपने पति राजा “मधुर मेचक” को वश में करना आरम्भ कर दिया , वो प्रीतम को वश में करने वाली और स्वयं वश में होने वाली हो गयी । इसके कारण रति ने अब मति को सताना आरम्भ कर दिया था ।
दिल और दिमाग़ , इनकी आज तक पटी ही नही है ।
दिल कहता है ….अपने प्रीतम की गली में घूम आओ ….दिमाग़ कहता है …क्या लाभ ? दिल कहता है ….एक झलक देख लो प्रीतम के मुख चन्द्र को ….दिमाग़ कहता है ….और दिक्कत होगी …बैचेनी और बढ़ेगी । दिल कहता है ….प्रीतम के प्रेम में डूब जाओ …दिमाग़ कहता है …कुछ और काम कर लो । इनका विरोध है ….आज से नही …अनन्तकाल से दोनों लड़ रहे हैं ….पर याद रहे जीतता दिल है ।
अब कुछ इच्छा नही है ….अब कुछ नही चाहिये …बस प्रीतम को देख लूँ ।
पर इससे क्या होगा ? इस पागलपन को छोड़ो ।
बस एक इच्छा तो पूरी करवा दो ! दिमाग ने कहा – क्या इच्छा ?
दिल बोला ….बस प्रीतम आयें और अपने तलुवे को मेरी आँखों में मल जायें । ओह ! तू पागल है क्या ? ये तो निरा पागलपन है ….ये तो मरने की शुरुआत है ? दिल ने कहा …मर जायें तो लोग जलायेंगे ना …तो मैं पवन को कह देती हूँ कि मेरी राख को उड़ा और वहाँ ले जा …जहां मेरे प्रीतम अपने चरण रखते हों ।
दिमाग़ और तर्क देता गया पर दिल ने कुछ समझा ही नही । क्यों समझे ! क्या इस प्रेम के मीठे दर्द से बड़ी वस्तु कोई है ? आहा ! अकेले बैठना …और आह भरना ….इससे बड़ी साधना कोई है ?
अब सुनो ! दिमाग़ अगर दिल की ये कामना सुनेगा तो अपना माथा ही पीटेगा !
तुम मनुष्य हो …श्रेष्ठ जीवन है तुम्हारा ….पर ये क्या बेवक़ूफ़ी लगा रखी है !
दिल ने उत्तर दिया ….उन प्रीतम के बिना यह मानुष तन व्यर्थ ही तो है …अगर वो मेरे पाषाण बनने से मिलता हो तो मैं पाषाण भी बनूँगा ….किन्तु उस पर्वत का पाषाण जिनमे मेरे प्रीतम गैया चराते हुए चलते हों ….ओह ! उनके कोमल चरण मेरे ऊपर पड़ेंगे …मैं तो धन्य हो जाऊँगा ।
मूल बात ये है कि दिल चाहता है ….प्रीतम मिलें चाहे कैसे भी मिलें….पशु बनकर मिलें तो पशु देह इस मानुष देह से लाख गुना अच्छा है ….पक्षी बनकर मिलें तो कालिन्दी के तट पर अपने प्रीतम को गीत सुनाऊँगी ….तब पक्षी बनना भी श्रेष्ठ होगा ।
आहा ! आज झूला पड़ा है ..कदम्ब की डार में झूला पड़ा है ….दिल की अब माँग है कि ….काश ! मैं इस वृक्ष की डाल बन जाऊँ ! तो कितना आनन्द आए , प्रीतम झूलेंगे और मैं उन्हें देखता रहूँ ।
“कब कालिन्दी कूल की , ह्वैहौं तरुवर डार ।
“ललित किशोरी” लाड़ले झूलिहैं झूला डार ।।”
अब तुम वृक्ष की डाल बनोगे ? दिमाग़ का बोलना लाज़मी था ।
दिल ने तुरन्त उत्तर दिया …वृक्ष की डाल ही नही ……
“तृण कीजै रावरेई , गोकुल नगर कौ “
वृक्ष की डाल तो बड़ी है ….
अजी ! प्रीतम के पाँव पड़ें तो धरती में पड़ा तिनका भी हम बनना चाहेंगे ।
क्या सुख मिलेगा ? दिमाग़ ने कहा …तिनका बनने में क्या सुख है ? दिल ने उत्तर दिया ….मेरे प्रीतम के श्रीचरण मेरे ऊपर पड़ेंगे …आहा ! इससे बड़ा सुख हमारा और क्या होगा !
इसे सौभाग्य मानते हो ? तिनका बनना सौभाग्य है ? दिमाग़ के अपने तर्क हैं ।
दिल ने उत्तर दिया …..ये कुछ नही ….मेरे प्रीतम मुझे ख़रीद लें तो मैं बिक भी जाऊँगी ।
जैसे ? दिमाग़ ने पूछा ।
दिल का उत्तर आया …….जैसे बड़े बड़े राजा लोग पक्षी आदि ख़रीदकर अपने मनोरंजन के लिए ले जाते थे ना …ऐसे ही हे प्रीतम ! तुम भी मुझे ख़रीद लो …..नही , कोई मोल नही है …बिना मोल के ख़रीद लो …अपने यहाँ ले जाओ । अपने निज महल में रख लो ….बस मैं तुम्हें देखती रहूँगी ….मेरा जीवन सफल हो जाएगा ।
पर तुम मनोरंजन क्या करोगी ?
वो जो कहें …..नाचो कहें तो नाचूँगी ….
“नाच नाच कुहुक कुहुक प्रीतम को रिझाऊँगी”
वो कहें …हंस के दिखा तो हंस के दिखाऊँगी …और वो कहें रोके दिखा तो रोऊँगी । मेरा रोना हँसना अपने लिए अब नही है ….उनके लिए ही है । वो जिसमें राज़ी हैं मैं भी उसी में ।
दिमाग़ अब कुछ नही बोला ….तो उसी समय प्रेम की बाँसुरी बज उठी ….
दिल ने तुरन्त कहा …..आहा ! बाँसुरी ही बन जाती ।
दिमाग़ बोलना नही चाह रहा है …क्यों की उसकी हर बात काट रहा है दिल …..उसको अपमान सा लगने लगा । इसलिए वो मौन हो गया ….पर दिल ने जब कहा …आहा ! “बाँसुरी ही बन जाती” तो उसको हंसी आगयी ….बाँस बनना है ? पहले तो तू ठीक कह रही थी ..कि कदम्ब या कुछ ओर …किन्तु बाँस को तो शास्त्रों ने शूद्र जाति का माना है …वृक्षों में शूद्र है बाँस । दिल ने हंसते हुए कहा ….प्रीतम मिलें तो शूद्र भी बन जाऊँ और ब्राह्मण होकर अगर प्रीतम दूर हैं तो धिक्कार है ऐसे ब्राह्मण बनने पर । इस बात को सुन दिमाग़ को बुरा लगा – मेरे पिता शास्त्री हैं ….शास्त्र का अपमान मुझसे सहन नही होगा । दिल ने उत्तर दिया …शास्त्र को भी मैं तभी मानूँगी ….जब वो मुझे प्रीतम की गली का ठिकाना दे सके …अगर नही तो आग लगे ऐसे शास्त्र में । दिल का ये उत्तर दिमाग़ को चुभ गया ।
रति के लिए केवल रूढ़ भाव अपने प्रीतम के प्रति है ….उसे मतलब नही है किसी और से …लेकिन मति के साथ मर्यादा है , मति के साथ स्वर्ग है , मति के लिए पाप है पुण्य है ….लेकिन रति के लिए सिर्फ़ सिर्फ़ प्रीतम है ….वही सब कुछ है ।
इस तरह आए दिन रति ( दिल ) मति ( दिमाग़ ) में झगड़ा होने लगा । मति जो भी कहती ..रति उसकी बात को काट देती …..फिर जो अनन्यता पूर्वक अपने प्रिय को ही मानें तो स्वाभाविक है कि प्रिय भी उसी को मानेगा । इस “प्रेम नगर” में यही हुआ ।
एक दिन मति ने पूछा …रति से ….पति “मधुरमेचक” के सामने …..
क्या तुम शास्त्र को नही मानतीं ? रति ने उत्तर दिया …मेरे लिए मेरे प्रीतम ही शास्त्र हैं । मेरे लिए प्रीतम ही धर्म हैं ..मेरे लिए सर्वस्व यही हैं । मति को अपमान अनुभव में आया क्यों की प्रीतम ने रति की इस बात पर करतल ध्वनि की थी ।
“सब धर्मन तें परे धर्म , जो प्रीतम प्रेम सगाई ।
ताकि धर्म-अधर्म व्यवस्था , कौन स्मृति नें पाई ? “
शेष अब कल –


Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877