!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 92 !!
“रुढ़ भावः” – यानि सिर्फ “तू”
भाग 1
ओह ! ये स्त्री जात …..वन-जंगल में रहनें वाली …..हँसते हैं उद्धव …..उफ़ ! व्यभिचारी भी……..
असती…….व्यभिचारिणी……..ये गोपियाँ ?
उद्धव चकित हैं और चिन्तन कर रहे हैं……….
फिर भी ये अहीर की छोरियाँ वहाँ स्थित हैं ……जहाँ बड़े बड़े योगी भी नही पहुँच पाते ……कैसे ? उद्धव अपनें आपसे ही पूछते हैं ।
“रुढ़ भावः”
उधर से ललिता सखी नें आते हुए कहा ।
उद्धव नें मुड़कर देखा …………ललिता सखी आरही थीं ।
उद्धव ! हम लोगों में कुछ नही है …..तुम अभी ठीक ही कह रहे थे ।
स्त्री जात, वन जंगलों में रहनें वाली असभ्य……..और हँसी ललिता सखी …….उद्धव नें सिर नीचे कर लिया……….
नही ……”व्यभिचारी” कहकर तुमनें हमको कुछ गलत नही कहा है ।
हाँ …..तुम्हारे शास्त्रों के आधार से हम व्यभिचारी ही हैं……अपनें पतियों को छोड़कर कृष्ण के पीछे पगला रही हैं……अपनें पतियों को त्याग कर कृष्ण से रास कर रही हैं…..हाँ उद्धव ! हम व्यभिचारी ही हैं …..पर उद्धव ! तुम्हारे संसार की जितनी पतिव्रतायें हैं ………..उन के पातिव्रत धर्म को तराजू के एक पलड़े में रखो …….और हमारे व्यभिचार को दूसरे पलड़े में…….उद्धव ! हमारा व्यभिचार जीत जाएगा ……..
उद्धव नें ललिता सखी के मुख से जब ये सुना ……….वो तो स्तब्ध ही रह गए ……………
नही चाहिये हमें तुम्हारा सांसारिक पातिव्रत धर्म …………मुबारक हो तुम लोगों को ही ………जिस व्यभिचार से कृष्ण मिलता हो ………उस व्यभिचार को हम बार बार करना चाहेंगी ……………..
अरे उद्धव ! हमें व्यभिचारी कह रहे हो ?
हँसी ललिता सखी ………….उद्धव ! संसार की पतिव्रताओं नें झूठे हाड माँस के पुतले को पति मान कर, सेवा सुश्रुषा करती रहीं ………
हाड माँस के पुतले में उन पतिव्रताओं को भगवान देखना पड़ता था ……पर हमनें जिस से प्यार किया……उसमें भगवान आरोपित करनें की जरूरत नही है………वो भगवान है ……चाहे मानों या ना मानों ।
“असती संग औषधम्” ………..हँसी ललिता सखी ।
ये प्रेम का मार्ग है ………….धर्म और शास्त्रों की होली जलाई है हमनें …..तभी श्री कृष्ण चरणों में “रुढ़ भाव” का उदय हुआ है …………
रुढ़ भाव , समझते हो ना रुढ़ भाव को उद्धव ! रुढ़ भाव का मतलब होता है …….सिर्फ तू …….बस – तू ।
अच्छा ! कृष्ण सखे ! एक घटना सुनो …….जो इस वृन्दावन में घटी थी……..पर घटना सुनानें से पहले ललिता सखी हँसीं …..खूब हँसीं ।
वो नई बहु थी…..नई नई आई थी …… वृन्दावन में ।
उद्धव ! हम सब गोपियाँ मिल कर गयी थीं उसकी “मुँह दिखाई” में ।
पर ……..उद्धव ! उस बहु नें तो हम सबका अपमान कर दिया ……कहनें लगी ……..मैं कुलटा का मुँह नही देखती ……….और तुम लोग कुलटा हो ………जाओ ! मुझे बिगाड़नें आई हो !…….मैं सब जानती हूँ ……..अपनें पति को छोड़कर तुम किसी छोरे के पीछे लगी हो …….और सबकी सब लगी हो……..पर मैं ऐसी नही हूँ ……..मैं पतिव्रता बननें आई हूँ…….तुम्हारे वृन्दावन में आदर्श की स्थापना करूंगी ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877