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February 5, 2025 3:03 pm

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!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर -7 “जब रति ने व्यवस्था सम्भाली”) : Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर -7 “जब रति ने व्यवस्था सम्भाली”) : Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!

( प्रेम नगर -7 “जब रति ने व्यवस्था सम्भाली”)

हे रसिकों ! अब “प्रेम” ने अपने शासन को सम्भाला है । मति को हटा दिया ….मति की बेटी शान्ति भी विवाह करके चली गयी । ये सब देखकर राजा ने शासन व्यवस्था रति को ही सौंप दी ….अद्भुत ! अब जो प्रेम नगर में उलट पुलट किया है रति ने, उसका वर्णन सुनिये । देखिये ! प्रेम जब प्रकट होता है तब वो औरों को वहाँ रहने नही देता । वहाँ बुद्धि थी किन्तु प्रेम उसे हटा देता है ….प्रेम करने वाला बुद्धि का आदर कहाँ करता है । इस तरह सबको हटाकर वो प्रेम नगर जो हृदय में स्थित है …उसमें रति का ही पूर्ण शासन हो जाता है …अब आगे रति की व्यवस्था । पूर्व में व्यवस्था थी मति की ..अब रति ने उन सब पुरानी व्यवस्थाओं को हटा दिया, मन्त्री आदि भी हटा दिये और अपना मन्त्री रख लिया ।

इसका वर्णन जो किया है , अब उसका आप सब आनन्द लें ।


            गृहनगरादिसमस्तं    न्यस्तं    पत्या   तदाधिपत्याय ।
            मतिकृतविधिविपरीतं   रतिरतिविषयं  विधिं  विदधे ।।
         यत्र नरपतिहितेहिताभिरतो  भरतो नाम सचिव: कृत: ।।

अर्थ – प्रेम नगर के राजा मधुमेचक ने जब देखा कि मति चली गयी है उसकी बेटी शान्ति भी चली गयी …तो उसने नगर के शासन की व्यवस्था रति को सौंप दी । रति ने मति की पूर्व व्यवस्थाओं को उलट कर अपने अनुकूल कर लिया ।
सबसे पहले राजा के हित में …भरत नामके व्यक्ति को मन्त्री पद पर रति ने नियुक्त किया ।

( साधकों ! सावधान ! “प्रेम नगर” पढ़ते हुए मन में अगर विपरीत वृत्ति आवे तो मत पढ़िएगा । वहीं रोक देना , ये सोच लेना कि अभी हमारी इतनी उच्च स्थिति नही है ..कि इस “प्रेम नगर” को इतनी गहराई से हम समझ सकें । अपना भजन बढ़ाइयेगा )


प्रेम के अपने नियम हैं…..प्रेम दूसरों के नियमों पर कब चला है ? बुद्धि से इसका छत्तीस का आँकड़ा है ….प्रेम सबको निकाल कर बाहर करता है …फिर वो अपनी व्यवस्था बनाता है ।

हमारे श्रीधाम वृन्दावन के रसिक सन्त ध्रुवदास जी की वाणी तो सुनिये …क्या कह रहे हैं वो ।

             प्रेम बात कछु कही न जाई ,   उलटी चाल तहाँ की भाई ।।
                प्रेम बात सुनि बौरा होई ,   तहाँ सयान रहै नही कोई ।।
              तन मन प्राण तिही छिन हारै , भली बुरी कछुवै न विचारै ।।
             ऐसो प्रेम उपजिहैं जबहिं ,  “हित ध्रुव” बात बनैगी तबहिं ।।

आहा ! क्या कहें …व्यवस्था ही बदल जाती है प्रेम के आते ही हृदय में । उलटी चाल है प्रेम की …प्रेम सीधी चाल चलता कहाँ है ! रोना वहाँ हंसना है …और तुम हंस रहे हो तो वो रोना है ।
उस नगर में सब पागल हैं …वहाँ पागलों का ही प्रवेश है । वहाँ बुद्धिमानों का प्रवेश निषेध है ।
सच में ध्रुवदास जी जो कहते हैं …वो कितना विलक्षण है ….इस प्रेम नगर में प्रवेश करते ही …तन मन प्राण सब हारना पड़ता है ….सब हार जाओगे …हारना ही है …और जो हार जाये वही जीत गया …जीतने की सोचना भी मत …क्यों कि जीतना यहाँ हारना है …इस नगर से तुम निकाल दिये जाओगे । और कुछ नही सोचना है …कि ये काम अच्छा है और ये बुरा है …प्रेम में ये सब नही होता …. प्रेम नगर में ये सोच नही चलती ….कि हम पुरुष हैं और ये स्त्री । हम बड़े ये छोटी । ना , ये सोच पाप है …यहाँ ऐसी सोच रखना भी मत । यहाँ कुछ बुरा नही है ….न कुछ अच्छा है …पाप पुण्य से आगे की बात है यहाँ ।

भागवत में श्रीशुकदेव ने जब परीक्षित से कहा ….पति को भोजन दे रही थी कोई गोपी …उसी समय बाँसुरी बज गयी ..पति माँगता रहा कि रोटी दे । किन्तु उसे कहाँ सुनाई दे रही है पति की आवाज ..बाँसुरी ने उसका मन हर लिया । वो भागी ..बाँसुरी की ध्वनि जहां से आरही थी उसी ओर भागी । परीक्षित ने कहा….ये ग़लत है । पति धर्म का त्याग है ..पाप लगेगा । तब श्रीशुकदेव जी हंसे …बोले …पाप तो तब लगेगा जब मन हमारे पास हो …मन को ही पाप पुण्य लगता है ..मन के कारण ही अच्छा बुरा है …..स्वर्ग नर्क है …..किन्तु हे परीक्षित ! इन गोपियों का तो मन ही इनके पास नही है ….फिर किसे लगेगा पाप ? कौन जाएगा नर्क में ?

अच्छा , कृष्ण को ये अपना मन दे चुकी हैं ? परीक्षित ने कहा । नही , श्रीशुकदेव जी बोले ..ऐसा नही है …अन्य भक्तों की तरह गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण को नही दिया है । तो ? श्रीशुकदेव जी बोले ..इनका मन ही कृष्ण बन चुका है । इनके मन ने ही “कृष्णाकार वृत्ति” ले ली है ।

अब बताओ …..पाप किसे लगेगा ?


एक बात समझना है इस प्रसंग में …कि रति ने प्रेम नगर की शासन व्यवस्था जब अपने हाथ में ली ….तभी उसने सब कुछ बदल दिया ।

कुछ तो मति की व्यवस्था सही होगी , सब कुछ बदला ?

हाँ सब कुछ बदला । क्यों ?

इसका उत्तर है – ईर्ष्या के कारण । मति के प्रति रति की ईर्ष्या है ।

एक बात समझने की है ….प्रेम नगर में ईर्ष्या भी है ……

“प्यार में जलन भी मधुर है“

अगर ईर्ष्या नही होगी तो कैसा प्रेम ?

“मेरे प्रीतम मुझे ही देखें , मेरे ही बनकर रहें”

ये प्रेम में होता ही है …अगर ये नही है …तो फिर वहाँ प्रेम नही है । जलन , ईर्ष्या , असूया भाव ये आवश्यक हैं इस नगरी में । है ना , अद्भुत बात ।

सावधान ! ये प्रेम नगरी है …जितने बाहरी दोष हैं वो यहाँ आकर गुण बन जाते हैं …यही तो इस प्रेम की विशेषता है ।

श्रीराधारानी भी भागवत में जब “भ्रमर गीत” का गान करती हैं …तब असूया भाव से भरकर भ्रमर को पहले श्लोक में ही कहती हैं …..

“मधुप कितव बन्धो ….”

हे भ्रमर ! तू जा ….तू कपटी है …क्यों की तेरा यार भी तो कपटी है ….तू ये मुँह में क्या लगाकर आया है …अच्छा अच्छा …हम समझ गयीं …हमारी सौत के कुच में लगे कुमकुम को लगाकर हमें चिढ़ाने आया है …हट्ट ! तो दूसरी सखी कहती है ….ये क्या सौत के कुच में ही बैठा था ? तब श्रीराधारानी कहती हैं …नही , ये नही बैठा …वो श्याम सुन्दर ने सौत को आलिंगन किया ….उस समय माला धारण किए हुये थे ….कुच का कुमकुम श्याम सुन्दर की माला में लग गया ..उस माला में ये भ्रमर बैठा ….और हमें चिढ़ाने के लिए सौत का कुमकुम दिखाने के लिए सीधे यहाँ आगया । हम सब जानती हैं । ये श्रीराधारानी कह रही हैं ।

ये क्या है ? आप कहोगे ….ईर्ष्या गलत है …किन्तु भैया ! ये प्रेम नगरी है …यहाँ कुछ गलत और सही नही है …यहाँ शासन प्रेम का चलता है …बस ।

अब आगे बताया गया है कि नगर के शासन में मन्त्री मुख्य होता है …इसलिए पहले के मन्त्री को रति ने निकाल दिया और अपना नियुक्त किया …मन्त्री का नाम है भरत । भरत नामका मन्त्री ।

मन्त्री मुख्य होता है …राजा के बाद दूसरा राजा मन्त्री ही होता है …इसलिए रति ने चुनकर मन्त्री रखा है …..भाव में जो रत है ….भाव में जो निरन्तर रत रहता है ..उसका नाम है “भरत”। प्रेम नगरी में मन्त्री वही रह सकता है ..जो स्वयं भाव में रहे …भावुक हो …भावुक व्यक्ति ही तो प्रेम नगर को चला सकता है । इसलिये रति ने भरत नामक इस भावुक व्यक्ति को मन्त्री पद पर रखा ।

भरत का भाव गम्भीर है …उछलता हुआ भाव नही है ….जो भाव क्षण में उछले …और फिर शान्त हो जाये ….वो भाव स्थाई नही होता । भरत नाम रखकर हमें ये बताया जा रहा है …कि गम्भीर भाव इसके अन्दर है ।

“डूबा प्रेम सिन्धु का कोई , हमने नही उछलते देखा”

भरत गम्भीर भाव के स्वरूप हैं ।

आगे अब कल –

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