महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (003)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
वृक्षों से मधुधारा का क्षरण होने लगता है। नदियों की गति रुकजाती है। यह वंशीध्वनि कान में पड़ी तो लगता है कि यह वंशीवाला श्याम, हमारा श्याम है, इतना सुख और कहीं नहीं है! चलो रिश्ता जोड़ेंगे तो इसी के साथ, दिल जोड़ेंगे तो इसी के साथ, मरेंगे तो इसी के साथ, जियेंगे तो इसी के लिए, सारा जीवन इसी के लिए।
वह गोपी- श्रीमती जी घर लौंटी पर बिना पानी लिए! बिना यमुना- जल लिए ही आ गयीं और तान दुपट्टा सो गयीं। हाय! हाय! यह क्या हुआ? चित्रलेखा सखी एक तस्वीर लेकर आयी और बोली- सखी! आज मैंने एक चित्र बनाया है, देखो तो जरा! ‘अरे राम राम इतना सुन्दर!’
शिशिरयदृशौ द्रष्टा दिव्यं किशोरमितीक्षितः
अरी! तूने तो कहा- इसके देखने से तेरी आँखें ठंठी हो जाएंगी, यहाँ तो इसके देखने से हमारे हृदय में बड़वानल प्रज्वलित हो गया। आग लग गयी दिल में! क्या यही ठंठा होना है? ‘तो अब क्या करना है? बोली’- अब मरना है! मैं सती साध्वी, भले घर की बहू- बेटी। एक का नाम सुना कृष्ण-कृष्ण तो उस पर लट्टू हो गयी? एक की वंशीध्वनि सुनी तो उस पर लट्टू हो गयी। एककी तस्वीर देखी तो उस लट्टू हो गयी। यह हमारा दिल क्या एक मुसाफिरखाना हो गया है?
एकस्याः पुरुषत्रये रतिरभूनू मन्येमृतिश्श्रेयसी।
मैं अकेली और तीन – तीन पर मेरी प्रीति हो गयी- कृष्ण नामवाले में, यह श्यामसुन्दर मनोहर चित्रवाले में और उस वंशीवाले में।
इयं सखि दुराराध्या राधा हृदयवेदना ।
कृता यत्र चिकित्साऽपि कुत्सायां पर्यवस्यति ।।
सखि! किस से बोलने लायक नहीं है, इस बीमारी का कोई इलाज ही नहीं है।
कृपण क्या करते हैं? जैसे संसार में सुख मानकर संसारी लोग सुख के लिए, रस के लिए, स्वाद के लिए संसार में लगे हुए हैं वैसे ही जो लोग कृष्ण की कथा सुनते हैं उनके हृदय में श्रीकृष्ण अपनी वासना देते हैं। वासना ही वासना को काटती है। बच्चे के लिए रोते हैं, भगवान के लिए नहीं रोते! तो भगवान कहते हैं कि थोड़ा हमारे लिए भी रोना शुरु करो। बच्चे का नाम लेकर दिन भर पुकारते हैं।
कृष्ण कहते हैं अब थोड़ा मेरा नाम लेकर पुकारना शुरू करो। लोगों को भोग में बड़ा माजा आता है। भगवान कहते हैं अब हमारे पास आओ, उससे ज्यादा मजा देंगे। बोले भाई ! धर्म करने से हृदय में बड़ी पवित्रता आती है। अरे भाई! हमारे पास आओ, हम उससे ज्यादा पवित्रता देंगे। बोले- श्रवण- मनन करने से बड़ा ज्ञान होता है। बोले- आओ हमारे पास, देखो हम कैसा रसात्मक ज्ञान देते हैं।
यह जो श्रीमद्भागवत है, दशम स्कन्ध की लीला है, यह मनुष्य के हृदय में रस-संचार करने के लिए है। संसार की वासना काटने के लिए भगवान की वासना, भगवद्-वासना हृदय में उदय होनी चाहिए। चार वर्ष भजन करके फिर संसार में चले गये, ऐसा होता है क्यों? क्योंकि भगवान में रस नहीं आया। महात्मा गाँधी ने एक जगह कहा- उन्होंने लिखकर दिया है- मैं आध्यात्मिक साहित्य तो बहुत दिनों से पढ़ता था लेकिन जिस दिन से हमने मदनमोहन मालवीय के मुख से श्रीमद्भागवत् सुना, शरीर में रोमांच हुआ, आँखों में आँसू आये; कण्ठ गद्गद हुआ- हृदय द्रवित हुआ, उस दिन हमारे हृदय में धर्म- रस की उत्पत्ति हुई। बोले- धर्म तो हमारे अंदर पहले था परंतु धर्म-रस नहीं था, धर्म का स्वाद नहीं था। धर्म का स्वाद, धर्म का रस तब उत्पन्न हुआ जब श्रीमद्भागवत सुना। ईश्वर अन्तर्यामी या सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, निर्गुण है या निराकार है कि निर्विकार है- ईश्वर के बारे में सोचना – समझना, ध्यान करना, दूसरी वस्तु है और ईश्वर के रस का अनुभव करना, यह दूसरी वस्तु है। जीवन में ईश्वर रस की उत्पत्ति होनी चाहिए; यदि रस उत्पन्न नहीं होगा तो जब मजेदार चीज चुनिया में दूसरी मिलेगी तो ईश्वर को छोड़ देंगे और उधर चले जायेंगे। कई लोग वृन्दावन में होते हैं, वहाँ रासलीला होत है मगर वे सिनेमा देखने जाते हैं आगरा। वे कहते हैं हमें तो रास में रस नहीं आता है। सिनेमा में रस आता है। इसका मतलब कि भगवद्रस की उत्पत्ति हृदय में नहीं हुई तब ही उसको छोड़कर दूसरी जगह जाते हैं। तो हृदय में एक रस उत्पन्न होना चाहिए।
इसी से निष्ठा का पता चलता है। जिसके जीवन में रस उत्पन्न नहीं होता वह निष्ठावान नहीं होता। उसका भाव उसका प्रेम टिकाऊ नहीं होता। पूर्व की हवा आयी तो पश्चिम उड़ गये, पश्चिम की हवा आयी तो पूर्व उड़ गये। उनका जीवन आँधी-तूफान में जैसे नाव आती-जाती है वैसे ही रहता है। वह निष्ठा उनके जीवन में नहीं हो सकती।
क्रमशः …….
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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