!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर – 8 “नगर का पुरोहित-पण्डित” )
हे रसिकों ! उस नगर में रहो जहां रस ही रस है । उस नगर में रहो जहां प्रेम है , जहां प्रेम है वहीं जीवन है । प्रेम में चमत्कार है …आप उस चमत्कार का अनुभव करो । क्या जाते हो पण्डित-पुरोहितों के पास ! किसी प्रेमी के पास जाओ …वो प्रेमी तुम्हारी दृष्टि को बदल देगा । लाख राहु केतु हों , शनिचर कुण्डली मारकर “कुण्डली” में ही बैठा हो …कोई फर्क नही पड़ेगा ….वो कुछ नही बिगाड़ पायेगा । तुम किसी प्रेमी के चरण पकड़ लो ….वो तुम्हें ऐसी प्रेम सुधा पिला देगा …आहा ! तुम दुःख में भी मुस्कुराओगे , तुम कष्ट में भी ठहाके लगाओगे , तुम्हें प्रीतम के दीदार होंगे …प्रीतम ही तुम्हें सम्भालेगा ….फिर क्या शनि और क्या राहु ।
देखो ना , काशी में बैठकर काशी नरेश को हमारे तुलसी बाबा क्या समझा रहे हैं ……
“जानकी नाथ सहाय करे तब, कौन बिगार करे नर तेरौ ।
सूरज मंगल सोम भृगु सुत , बुध और गुरु वरदायक तेरो ।
राहु केतु की नही गम्यता , संग शनीचर होत जु चेरो ।। जानकी नाथ सहाय …..
जानकी नाथ को अपना नाथ बना लो यार ! बस, फिर मौज से तान दुपट्टा सो जाओ ।
कोई तुम्हें हाथ नही लगा सकता । अरे ! यमराज भी तुम से दूर रहेगा …अब जो भी हिसाब किताब होगा वो तुम्हारा प्रीतम देखेगा । यमराज नही ।
अजी ! ध्यान , पूजा पाठ, मन्त्र जाप, तीर्थ वास, गंगा स्नान ….ये सब करना नही पड़ेगा ?
ना , कुछ नही करना पड़ेगा …..मैंने कहा ना ! तुम तो बस अपने राम को अपना महबूब बना लो …इतना करो , तुम तो श्याम सुन्दर को अपना प्रियतम बना लो बस ….फिर तुम जहां रहोगे , तीर्थ वही बन जाएगा ।
जिस जल को छू लोगे गंगा जल बना दोगे । जो बोलोगे वो “हरि कथा” ही होगी ।
पुरोहितों के पास जाना ?
अरे ! फिर प्रेमी ही तुम्हारे पुरोहित होंगे …वही बतायेंगे कि आज तुम तनाव में रहोगे या खुश !
वो तुम्हारी आँखें देखेंगे ….प्रीतम आज मिलेगा तो तुम्हारा राहु खतम है …आनन्द लो । किन्तु प्रीतम के दीदार नही होंगे …तो ओह ! फिर तो शनि की महासाढ़ेसाती ही है ।
वो प्रेमी ही तुम्हें बतायेंगे ….कि प्रीतम को पाने के लिए ….ये उपाय करो कि वो उपाय करो ।
हे रसिकों ! इस प्रेम नगर की व्यवस्था ही अलग है ….यहाँ पुरोहित हैं , पण्डित हैं ….किन्तु वो तुम्हारे तथाकथित कर्मकाण्ड में फँसे या तुम्हें फँसाने वाले नहीं …..प्रियतम को कैसे पाया जाये इसका उपाय बताने वाले हैं । इनका संग करो ।
यत्र धर्मकर्म कलापमर्मकुशल: पुरोहित: स्मरसूत्रधारो नाम ।।
अर्थ – उस प्रेम नगर में जिस पुरोहित को नियुक्त किया गया वह धर्म कर्म में कुशल था उसका नाम “स्मरसूत्र” था ।
मन्त्री के बाद स्थान आता है पुरोहित का ….मति के द्वारा स्थापित पुरोहित जो था वो मात्र कर्मकाण्ड ही करवाता था …किन्तु रति ने बदल दिया ….रति ने जिस पुरोहित को नियुक्त किया उसका नाम था ……स्मर सूत्र । स्मर कहते हैं “काम” को , कामदेव को । शृंगार रस में काम का अपना स्थान है …वैसे काम को हमारे शास्त्रों में गलत नही कहा गया है …ये तो पाश्चात्य की छूछी नैतिकता ने जब हमारे यहाँ आना आरम्भ किया तब से काम को बुरा कहने लगे ….भागवत में स्पष्ट रूप से ……”गोप्य कामाद्” कहा गया है । यानि गोपियों ने काम से श्रीकृष्ण को भजा ….ये श्रीशुकदेव जी कहते हैं । काम, प्राचीन शास्त्रों में प्रेम के लिए ही प्रयुक्त होता आया है । अस्तु ।
“काम सूत्र”…..इस नामका पुरोहित नियुक्त किया गया रति द्वारा ।
इसका काम क्या था …….
एक प्रेम नगर का नागरिक गया पुरोहित के पास …..मुझे तीर्थ जाना है ….तो पुरोहित ने सहज में कहा …सबसे बड़ा तीर्थ है ..प्रेम । तुम कहाँ जाओगे । सारे तीर्थ प्रेम में ही वास करते हैं …तुम तो प्रेम करो । तुम तो प्रेम में डूब जाओ । प्रेम का ही आचमन करो …और प्रेम का ही जाप ।
उस नागरिक ने हाथ जोड़कर कहा …किन्तु हमें दर्शन करने हैं भगवान के ।
अरे ! प्रेम से बड़ा कोई भगवान है क्या ? वो स्मरसूत्र पुरोहित हंसा ….प्रेम का साक्षात्कार हो गया तो समझो भगवान वही हैं ……
मक्का मदीना द्वारिका , बद्री और केदार ।
बिना प्रेम सब झूठ है , कहे “मलूक” विचार ।।
सब झूठ है ..सच्चा तो एक मात्र प्रेम है …प्रेम ही सत्य है ….प्रेम के सिवा और सब मिथ्यात्व मानों ….सत्य केवल तुम्हारा प्रीतम है …प्रीतम के सिवा सब झूठ । सब मिथ्या ।
अब क्या कहोगे ? उस प्रेम नगर के पुरोहित को । ये पुरोहित पूर्व की समस्त धारणाओं को मिटा रहा था और प्रेम फैला रहा था ।
कोई शास्त्र सुनाओ , वेद पढ़ाओ पुरोहित जी ! फिर प्रश्न किया ।
पुरोहित स्मर सूत्र ने उत्तर दिया ….प्रीतम की पाती पढ़ी है ? अगर नही पढ़ी तो पढ़ो …वही वेद है …वेदों का सार है ।
आहा ! हमारे बृज के रसिकों ने कितना सुन्दर कहा है ….
“हमारौ बृजवाणी ही वेद”
जिस बृजवाणी में रस ही रस है ..”रसो वै स:” जो वेद ने कहा …उसी रस में डुबें हैं …ये बृज के रसिक सन्त , तब वाणी जी आदि लिखे हैं । । फिर वेद क्यों पढ़ें …जब सार सार ..माखन मिल रहा है ..तो खट्टी छाँछ क्यों पीयें ?
आहा ! सूरदास जी ने कितना सुन्दर लिखा है ….
“खट्टी छाँछ हमें नही भावै , सूर खवैया घी कौ”
हमारा प्यारा कन्हैया पढ़ा लिखा तो है नही , कहाँ पढ़ाया उसके बाबा नन्द जी ने …गैया चराता है …फिर उसे कौन सी भाषा समझ में आती है ? संस्कृत ? रहने दो संस्कृत कहाँ समझ में आएगी उसे …फिर ? उस प्यारे को बस एक ही भाषा समझ में आती है ..”प्रेम की भाषा”। सीखो ..प्रेम की भाषा सीखो ….अजी ! तभी तो उसकी प्रेम भरी पाती पढ़ पाओगे …नही तो बस ….रह गए विद्वत्ता के अहंकार का चोला ओढ़ें ….उससे क्या होगा ?
इस तरह – प्रेम नगर के पुरोहित “स्मर सूत्र”, ऐसा ही उपदेश देकर वहाँ के नागरिकों को प्रेममय बना रहे हैं ।
नही हिन्दू , नहिं तुरक हम , नहीं जैनी अंग्रेज ।
सुमन सँवारत रहत नित, कुँज बिहारी सेज ।।
आगे अब कल –
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