महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (006)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास की भूमिका एवं रास का संकल्प -भगवानपि०-2
लीलामाधुरी क्या है? ‘प्रातर्व्रजात् व्रजत आव्रजतश्च सायं’- जिस समय प्रातः व्रज से निकलते हैं और सायं वनसे लौटते हैं, क्या छटा है, क्या लीला करते हैं। झूम-झूमकर चलते हैं-
झूमि झूमि पग धरत धरणिपर गति मातंग लजावहि, लटक लटक, मनमोहन आवनि, झूमि झूमि पग धरत धरणि पर।
लीलापूर्वक पाद-विन्यास करते हैं। ठुमुक-ठुमक कर पाद-विन्यास करते हैं। घूम-घूमकर देखते हैं। एक एक से आँख मिलती है। जितनी स्थिरता ब्रह्म में उतनी ही चंचलता कृष्ण में। प्रतिक्रिया हो गयी, ब्रह्म का स्थायित्व, कृष्ण चांचल्य के रूप में परिणत हो गया। कहो- ब्रह्म स्थिर है या चंचल है? बोले- वह दोनों है।
अचल भी वही, चंचल भी वही। चंचल-अचल का अधिष्ठान भी वही है, चंचल अचल का आश्रय भी वही है। चंचल अध्यस्त भी उसी में है, वही चंचल है, वही अचल है। यह नहीं समझना कि वेदान्ती लोग जिस अचल का विचार करते हैं वह सिर्फ अचल ही अचल है, चंचल है ही नहं। वह सब है- ‘तदेजति तन्नैजति’ वह नाचता है। ‘तेदजति’ माने ‘तद्ब्रह्म तत् कृष्णरूपं ब्रह्म एजति नृत्यति’। और तन्नैजति माने जब गोपियाँ नाचने लगती हैं तब वह एक जगह खड़ा हो जाता है। ‘तददूरे’ – नाचता – नाचता वह दूर चला जाता है; ‘तद्वन्ति के’- नाचता-नाचता गोपियों के बीच में आ जाता है। ‘तदन्तरस्य सर्वस्य गोपीजनस्य’ – वह सब गोपियों के भीतर है; वह सब गोपियों के भीतर घुस जाता है; दो-दो में एक। और ‘तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः’ वह सब गोपियों से बाहर निकल जाता है। यह वेद का मंत्र है शुक्ल यजुर्वेद का-
तदेजति तत्रैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत ।।
कभी अकेला होता है कृष्ण, बाँसुरी बजा रहा होता है, गोपियाँ नाच रही होती हैं; कभी गोपियों के साथ नाच रहा है; कभी मण्डल बनाकर गोपियाँ नाच रही हैं और वह भीतर है। कभी नाचता है और कभी नहीं नाचता है।
यह कृष्ण ब्रह्म का वर्णन है, कृष्ण ब्रह्म का। जो ब्रह्म को एकांगी मानते हैं कि ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है- तो जो ब्रह्म ऐसा नहीं, ऐसा नहीं होगा वह पूर्ण कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’, ‘ऐसा नहीं’ होगा वह अद्वितीय कैसे होगा? जो ‘ऐसा नहीं’ ऐसा- वह निर्विशेष कैसे होगा? यह परब्रह्म परमात्मा श्यामीभूत ब्रह्म है, साँवरा ब्रह्म है-
पुञ्जीभूतं प्रेम गोपांगनानां मूर्तीभूतं भागधेयं यदूनाम् ।
एकीभूतं गुप्तवित्तं श्रुतीनां, श्यामीभूतं ब्रह्म मे सन्निधत्ताम् ।।
श्यामच्छबलं प्रपद्ये, शबलात् श्यामं प्रपद्ये ।
शबल से श्याम में और श्याम से शबल में। उपनिषद में है- ‘शबलात् श्यामं प्रपद्ये श्यामात् छबलं प्रपद्ये।’ बोले- अशब्दं, अस्पर्शं तो बहुत सुनने में आता है पर हमारे वेदान्ती भूल जाते हैं महाराज! कि- ‘सर्वरसः सर्वगन्धः सर्वकामः’ सारे रस उसमें है, सारे गंध उसमें है, सारे भोग उसमें हैं।
हिरण्यकेशः हिरण्यश्मश्रुः, उसके सुनहले बाल हैं उसके मुखमण्डल से सुनहली ज्योति निकलती है। बड़े-बड़े उपनिषद् सर्वमान्य- उपनिषद् बोलते हैं-
हिरण्यश्मश्रुः हिरण्यकेशः ।
आप देखेंगे कि श्रीकृष्ण का रूप जिसको शीशे में देखकर श्रीकृष्ण के मन में क्या आया-
अहमपि परिभोक्तुं कामये राधिकेव ।
शीशे में श्रीकृष्ण ने अपनी मुखच्छटा देखी- मुखच्छवि देखी- और बोले-
अपरिकलितपूर्वः कश्चमत्कारिकारी ।
मैंने तो कभी नहीं देखा, यह कौन है? बोले- लाला! आखिर चाहते क्या हो? चाहते ये हैं कि मैं राधा होता तो इसी से ब्याह करता ‘अहमपि परिभोक्तुं कामये’- श्रीकृष्ण के मन में कामना हो जाती है जिस अपने प्रतिबिम्ब को देखकर, इतने सुन्दर हैं वे कृष्ण-
देखो- बात यह है– योगी लोग जब परमात्मा का वर्णन करते हैं तो वे समाधि में चित्त की संपूर्ण वृत्तियों का विरोध करके जो सत्तामात्र निर्विशेष रहता है उस पर उनका जो ज्यादा रहता है और वेदान्ती लोग जब दृग्दृश्य विवेक करते हैं, संवित् संबंध का विवेक करते हैं, तो चेतनता पर, संक्षिपता पर उनका जो ज्यादा रहता है। यह परमात्मा को समझने की प्रक्रिया है। परंतु भक्त लोग जब परमात्मा का निरूपण करते हैं तो आनन्दांश पर उनका जोर ज्यादा रहता है। ज्ञानांश में विवेक की प्रधानता है, सत्तांश में स्थिति की प्रधानता है और आनन्दांश में प्रेम की प्रधानता है। परमात्मा एक ही है। वही सत् है, वही चित्त है और वह आनन्द है। पर जब साधन का निरूपण करना पड़ता है तो सत्तांश स्थिति की प्रधानता से- प्राणायाम्, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि लगा करके अपने अखण्ड सत्स्वरूप में स्थित होते हैं और वेदान्ती लोग जब विवेक करते हैं, दृग्–दृश्य विवेक करके, साक्षी चित्सवरूप में होते हैं और भक्त लोग जब विवेक करते हैं तो भक्तों का विवेक दूसरा होता है-
रस वै सः रसंय ह्येवायं लब्धवा आनन्दी भवति ।
वह रस-स्वरूप है और इस रस को पाकर भक्त की आनन्दी हो जाता है। आप एक बार भागवत पर दृष्टि डालें। सायंकाल श्रीकृष्ण गाय चराकर व्रज में लौट रहे हैं-
क्रमशः …….
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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