महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (028)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
भगवान की प्रेम-परवशता
(योगमायामुपाश्रित:)
ईश्वर जिसको जिस ढंग से मिलना चाहता है उसको वैसी साधन-संपत्ति पहले देकर तब भेजता है। पुरुष बनकर स्त्री परमात्मा को प्राप्त नहीं करेगी, स्त्री स्त्रीत्व के द्वारा ही परमात्मा को प्राप्त करेगी और पुरुष औरत बनकर – काजल, लगाकर, सिन्दूर लगाकर, ईश्वर को प्राप्त नहीं करेगा, पुरुष पुरुषत्व के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करेगा। पुंस्त्व का जो
अधिष्ठान है और द्रष्टा है, सो परमात्मा और स्त्रीत्व का
जो अधिष्ठान और द्रष्टा है सो परमात्मा। तो वस्तु के द्वारा जिसके पास जो चीज है, उसके द्वारा परमात्मा की पूजा करो। बोले- हमारे तो महाराज दिमाग नहीं है, कहते हैं- जीभ तो है; उससे बोलो, जपो- राम राम राम राम। तुम्हारी जीभ से ईश्वर मिलेगा। बोले- हमारे तो जीभ भी नहीं है। कहा- पाँव तो हैं, उनसे चलो, द्वारिका, रामेश्वर घूमो। तुमको पाँव के द्वारा ईश्वर मिलेगा। बोले- हमारे पाँव भी नहीं है महाराज। तो कहते हैं- आँख तो है, आँख से ईश्वर मिलेगा। जितना तुम्हारे पास है उसी से ईश्वर तुमको मिलेगा। एक आदमी आये, बोले- महाराज! हम आपकी सेवा करना चाहते हैं। कहा- क्या करना चाहते हो? बोले- महाराज! हम चाहते हैं एक करोड़ रुपया आपको दान कर दें। कहा- वहा, वाह। क्या पूछना है, तुम्हारा बड़ा आदर चित्त है भाई! अरे तुम्हारे पास अभी है क्या? बोले- महाराज! अभी तो हमारे पास पाँच रुपये भी नहीं है। आप कृपा करके हमको एक करोड़ रुपया दे दो तो वे सब हम आपको दे देंगे। कहते हैं कि बाबा-
प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।
जब तुमको देना ही है तो क्यों बखेड़ा लगाते हो? अपने पास जब कुछ रहना नहीं तो काहे को बखेड़ा लगाते हो कि पहले आवे और फिर हमें दो। अरे, यह तो ईश्वर की कृपा है कि देने के बाद तुम ख़ाली होते सो अभी से तुमको ख़ाली कर दिया, तो बहुत अच्छा है। तो ईश्वर की आराधना कैसे होती है? वित्त से, शरीर से और मन से। अपने धन के द्वारा ईश्वर की पूजा करो, अपने शरीर के द्वारा ईश्वर की पूजा करो अपने मनके द्वारा ईश्वर की पूजा करो और ईश्वर के हाथों अर्पित कर दो। परमहंस रामकृष्ण कहते थे- कि हे प्रभो! जो मैं कभी था, अब हूँ, और आगे होऊँगा, तो तुम्हारा हूँ। रबिया कहती थी हे प्रभु। नरक से बचने के लिए तुम्हारा भजन करती होऊँ तो मुझे नरक की आग में हमेशा के लिए डाल दो, और यदि मैं स्वर्ग पाने के लिए तुम्हारा भजन करती होऊँ तो मुझे स्वर्ग में कभी मत भेजना। मैं तुम्हारे भजन के लिए तुम्हारा भजन करती हूँ।*
कामना का पेट भरने के लिए तुम्हारा भजन नहीं करती हूँ। मैं तुम्हारे पेट में समा जाऊँ, इसके लिए तुम्हारी पूजा करती हूँ। तो समर्पण हो,-
यत् कृतं यत्करिष्यामि तत्सर्वं न मया कृतम् ।
त्वया कृतं तु फलभुक् त्वमेव मधुसूदन ।।
हे मधुसूदन! जो कुछ मैंने किया और जो कुछ मैं करूँगा, वह मैंने नहीं किया, त्वया कृतं फलभुक्- तुम्हींने मेरे हृदय में बैठकर किया, अब इसका फल हमको नहीं चाहिए। हमारे धर्म का फल हमको नहीं भेजना; हमारे योग का फल हमको नहीं भेजना। हम तो तुम्हारी प्रसन्नता के लिए यह कहते हैं। यामुनाचार्यजी महाराज कहते हैं-
मम नाथ यदस्ति योस्म्यहं सकलं तद्धि तवैव मा भव ।
नियतस्वमिति प्रबुद्धधी अथवा कित्रु समर्पयामि ते ।।
जो कुछ मेरा है, था, होगा, जो कुछ मैं हूँ, वह सब तुम्हारा है। तुम मालिक, हम मिल्कियत। ‘नियतस्वमितिः’। हमको मनवाला मनुष्य नहीं समझना, हमको बिना मनका, बिना मनका हीरा समझना। तुम्हारा मन हो गले में बाँधना; तुम्हारा मन हो- बाँह में बाँधो; तुम्हारा न मन हो- तिजोरी में रख दो; तुम्हारा मन ही फेंक दो। मैं तुम्हारा हूँ।
शरणागति में अहंकार टूट जाता है। जब अहंकार टूट जाता है तब भक्त भगवान् से एक हो जाता है और जब एक हो जाता है; तब भगवान् भक्त के वश में हो जाता है। एक गरीब लड़की थी, महाराज! एक धनी से उसका ब्याह हो गया। जिस समय फेरे पड़े उस समय गरीब लड़की थी, परंतु फेरे पड़ते ही करोड़पति हो गयी। क्यों हो गयी? कहा- उसका गोत्र छूट गया, उसके माँ-बाप छूट गये, उसका वंश छूट गया, उसका नाम छूट गया, वह तो मिल गयी पति- भगवान् से! तो जहाँ अपना अहंकार ढीला पड़ा, वहाँ भगवान् से एक तो हुई। आपको हम रासपञ्चाध्यायी में भी यह बात सुनायेंगे।*
अहंकार के ढीला पड़े बिना, रस का अनुभव होता ही नहीं है; क्योंकि दुनिया में जितनी चोंटे पड़ती हैं, वे सब अहंकार पर पड़ती हैं। तो, पहले पूजा, उसके बाद समपर्ण। समर्पण में अहं होता है- समर्पक होता है और शरणागति में स्वीकृति होती है।
शरणागति लेने वाले की ओर होती है और समर्पण देने वाले की ओर से होता है। और पूजा सकाम, निष्काम दोनों होती है। शरणागति अहंकार बिलकुल टूट जाने पर होती है और जब अहंकार टूट जाता है तो जहाँ जीव का अहंकार काम नहीं करता, वहाँ ईश्वर काम करता है। जहाँ अलग से हवा नहीं होती, वहाँ समष्टि वायु भर दी जाती है। नारायण! प्रेम जिसको बोलते हैं उस प्रेम से भी ईश्वर काबू में होता है। ईशवर सबको काबू में रखता है- धरती, समुद्र, अग्नि, सूर्य, चंद्रमा, वायु, आकाश, अहंकार तत्त्व, महत्त्व, प्रकृति तत्त्व ये सब ईश्वर के कब्जे में और ईश्वर किसके कब्जे में? बोले- प्रेम के कब्जे में। धर्म ईश्वर से मनचाहा फल लेता है और ईश्वर को नहीं लेता है।
योग भी ईश्वर को काबू में करके ईश्वर को लेता है; परंतु केवल उसकी असंगता ही लेता है, एक अंश लेता है। शरणागत अपने अहंकार को तोड़कर समूचे ईश्वर को ले लेता है। ईश्वर का ज्ञान ईश्वर के निर्विशेष से एक कर देता है, वहाँ कुछ लेना-देना नहीं है। परंतु प्रेम? अरे बाबा। प्रेम में लेना नहीं है, देना ही देना है। प्रेमी ने कहा जरा! इधर आओ। ईश्वर ने कहा- क्या बात है? क्या चाहते हो? जो कहो सो दे दे। आने की क्या जरूरत है? बोले- न-न, हम लेने के लिए तुमको थोड़े ही बुलाते हैं। अगर कुछ लेने के लिए ईश्वर को बुलाते हो, तो भक्त भेंट देगा भला? वह कथा आपने सुनी होगी- एक राजा गया परदेश, उसके रानी थीं बहुत, तो उसने समाचार दिया, कि जिसको जो चाहिए सो लिखकर भेजो। किसी ने साड़ी मँगाई, किसी ने कड़ा मँगाया, किसी ने छड़ा मँगाया। सबके पैकेट नाम लिखकर अलग-अलग आये। एक रानी ने चिट्ठी में कुछ लाने को नहीं लिखा था, सिर्फ एक की संख्या लिखी थी- ‘1’। तो सबकी चीज सबके घर भेजकर राजा उसके पास गये।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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