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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 104 !!
गहवर वन में जब “रात” ठहर गयी…
भाग 3
मुझे क्या होगा रंगदेवी ! हुआ तो इस बाबरे चन्द्रमा को है ।
श्रीराधारानी नें रँगदेवी से कहा …………और फिर बड़े गौर से चन्द्रमा को देखनें लगीं ।
ओह ! चन्द्रमा नही रुका रंगदेवी ! अब मैं समझी………..चन्द्रमा को चलानें वाला जो हिरण है ना वो रुक गया है …….देख !
हाँ अब समझी मैं रंगदेवी ! हिरण को तो वीणा की ध्वनि मुग्ध कर देती है ना…….हाँ मेरी वीणा सुनकर ये चन्द्रमा में काला काला जो दिखता है यह हिरण ही तो है…….जो इस चन्द्रमा को खींचकर चलाता है ।
रंगदेवी ! चन्द्रमा रुक गया है…….
…उफ़ ! ये श्रीराधारानी का विचित्र उन्माद ।
इसका मतलब रात रुक गयी ? ओह ! और जब तक ये चन्द्रमा चलेगा नही ……..रात आगे बढ़ेगी नही …………..
रंगदेवी ! पर चन्द्रमा को चलानें वाला हिरण रुक गया है …….इस हिरण को आगे बढ़ाना आवश्यक है …….नही तो रात रुकी रहेगी ….और दिन होगा नही…….और दिन नही होगा तो ?
अद्भुत स्थिति हो गयी थी श्रीराधारानी की ।
रंगदेवी ! रात में वो ज्यादा याद आते हैं…….वो रात ही बनकर आते हैं…….ये जल्दी जाए ना चन्द्रमा……
उठकर खड़ी हो गयीं श्रीराधारानी …………नही….इस हिरण को चलाना आवश्यक है ………जब हिरण चलेगा तभी चन्द्रमा आगे बढ़ेगा …….तब रात भी बढ़ेगी ………
सोचती हैं श्रीराधारानी ।
फिर एकाएक दौड़ पड़ती हैं …………..दाड़िम के पेड़ से दाड़िम की एक लकड़ी तोड़ती हैं ……….फिर भोजपत्र के वृक्ष से भोज पत्र ………सिन्दूर के वृक्ष से सिन्दूर ………….
मैं कुछ समझ नही पा रही थी कि, क्या करूँ ?
वो इतनी शीघ्र कर रही थीं सबकुछ कि ………पर क्या कर रही हैं ?
भोजपत्र को धरती में रखा ………सिन्दूर के बीज निकाले उन्हें मसला ……..फिर उसे दाड़िम की लकड़ी में लगाकर ………….
कुछ चित्र बना रही हैं श्रीराधारानी ।
मैनें देखनें की कोशिश की …………तो वो बना चुकी थीं ।
उफ़ ! सिंह का चित्र बनाया था ………..और उस चित्र को चन्द्रमा को दिखा रही थीं ………….फिर ताली बजाते हुए हँसीं ………रंगदेवी ! देखा – सिंह के भय से हिरण अब चल रहा है …….चन्द्रमा भी बढ़ रहा है …..और रात अब चल दी है ……….अब शीघ्र ही सुबह होगी ।
ये कहते हुए वीणा को फिर हाथों में लिया श्रीराधा रानी नें ………और बजानें लगीं वीणा …………….
पर मैने अपनी स्वामिनी से प्रार्थना की – आप न बजाएं …….क्यों की वीणा सुनकर फिर रुक गया हिरण तो ?
तब तो चन्द्रमा भी रुक जाएगा …..और रात भी रुक जायेगी ?
ये कहते हुए श्रीराधारानी नें वीणा रख दी थी ………
प्यारे ! सुन ली ना वीणा तुमनें ?
बोलो ना ? कहो ना ? रंगदेवी ! श्यामसुन्दर कुछ बोलते क्यों नही हैं ?
श्रीराधारानी नें मुझ से पूछा था ।
इस प्रेमोन्माद का मैं क्या उत्तर देती ?
सो गए हैं आपके प्यारे ! मैने इतना ही कहा था ।
ओह ! मैं भी कैसा अपराध करती हूँ ना ? अपनें स्वार्थ के लिये प्यारे को रात भर जगाना चाहती हूँ ……..छि ! ये पाप है ………
मुझ से ये क्या हो गया !
फिर रुदन ………..फिर विरह सागर में डूब जाना श्रीराधारानी का ।
उफ़ !
हे वज्रनाभ ! मैं भी कभी कभी बरसाना हो आता था ………..और वहाँ की स्थिति देखता तो मेरा हृदय चीत्कार कर उठता ………मुझे श्री कृष्ण से शिकायत होनें लगी थी……..और दुखद तो ये भी था कि अब वो मथुरा में भी नही …..दूर दूर, वृन्दावन से बहुत दूर, खारे समुद्र में जाकर रहनें लगे थे ।…………पर इन सबसे अनजान यहाँ के ये प्रेमिन लोग, बस उसी कन्हाई, श्याम, कन्हा , इन्हीं में अटके थे ………किन्तु वो ! वो तो द्वारिकाधीश महाराजाधिराज श्रीकृष्ण चन्द्र महाराज बन बैठे थे ।
महर्षि शाण्डिल्य बताते हैं ।
शेष चरित्र कल –
👏 राधे राधे👏


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