महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (034)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन
तदोडुराज………….दृष्ट्वा कुमुदवन्तम्
तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।
स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन् प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ।।
दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम् ।
वनं च तत्कोमलगोभिरञ्चितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ।।[1]
अच्छा! अब संसार की ओर से मन को हटाकर, भगवान् की लीला का आनन्द लेने के लिए तत्पर हो जाओ। यह कोई कहानी नहीं; नाटक-सिनेमा नहीं, यहाँ तो मन को अंतरंग देश में, अंतरंग काल में और अंतरंग वस्तु में ले जाना है। देखो- आप यह ध्यान करो कि वृन्दावन है- तो यह बहिर्देश नहीं है, अन्तर्देश है। और यह ध्यान करो कि सायंकाल है और शरदऋतु की पूर्णिमा है। यह काल भी अन्तर देश में है। अब उसमें ध्यान करो- ठुमुक-ठुमुककर पाद-विन्यास करते हुए श्यामसुन्दर मुरलीमनोहर मन्द-मन्द मुस्कराते हुए गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं। यहाँ बहिर्व्यक्ति कहाँ है? सब अन्तर्व्यक्ति हैं। तो आपका मन बहिर्देश को छोड़कर अन्तर्व्यक्ति में प्रवेश कर रहा है। यह रासलीला तो महाराज बाहर की वस्तुओं की वासना को घटाने वाली है। और भीतर जो प्रभु हैं उसके साथ जोड़ने वाली है। यह रासलीला, यह आनन्दलीला, अनजान में ही संसार से वैराग्य कराने वाली है। मनुष्य को पता न चले कि हमारे मन में बाहर से वैराग्य कब हुआ और वैराग्य आ जाय, पता न चले कि भगवान् से प्रेम कब हुआ और प्रेम आ जाए- यह लीला के श्रवण की, लीला के दर्शन की अद्भुत शक्ति है। पर अब कोई भीतर जाना चाहे तब न।
तो आप देखो पाँच हजार वर्ष पहले की शरद ऋतु, आश्विन मास की शुक्ला पूर्णिमा, सायंकाल का समय, चंद्रोदय होने वाला है और कदम्बवृक्ष के नीचे खड़े होकर त्रिभंग-ललित बाँकेबिहारी, पीताम्बरधारी, मुरलीमनोहर, मन्दस्मित, गोरोचनांकित मयूरमुकुटी, मकराकृति-कुण्डली, श्यामसुन्दर ने देखा कि आज विहार करने के योग्य है और चंद्रमा संकल्प की पूर्ति के लिए उदय हुआ-
तदोडुराज: ककुभ: करैर्मुखं
अब अपने मन को ले चलो, वृन्दावन में, बजी डुगडुगी, शुरू हो रही भगवान की लीला, पूर्वदिशा में चंद्रोदय हुआ। शुकदेवजी महाराज रसिक हो गये- यह जो वर्णन है, इसमें अवधूती की बात नहीं है। रसिकता की बात है। क्या कि चंद्रमा ने उदय होकर पहला यह काम किया कि अपने शीतल, शान्तिदायक करों से- करों का अर्थ है किरण-अपनी शान्तिदायिनी रश्मियों से, किरणों से, किरणों में अनुराग का रंग भरकर प्राची दिशा अर्थात् पूर्व दिशा का जो मुख है उसको लाल-लाल कर दिया, रंग दिया।
माने रास का प्रसंग होरी से शुरू हुआ। देखो- है तो शरद ऋतु और वर्णन किया कि चंद्रमा प्राची दिशा के साथ होली खेल रहा है। जब पूर्व दिशा में चंद्रोदय होता है तो लाली छा ही जाती; इसी बात को कहते हैं कि चंद्रमा ने पूर्व दिशा के मुँह पर लाली लगा दी। यह उत्प्रेक्षा है इसको सही मत मान लेना। एक अलंकार होता है- संस्कृत भाषा में उसका बहुत प्रयोग होता है। उसमें किसी वस्तु का वर्णन करने के लिए ऐसे ढंग से बात कही जाती है कि सच्ची न हो, और वर्ण्य वस्तु का उत्कर्ष बढ़ जाय। जैसे बोले- कि प्रिये! तुम्हारे मुख का सौन्दर्य देखकर चंद्रमा लज्जित हो गया और वह भगा कि अब धरती पर रहेंगे तो हमारा बड़ा तिरस्कार होगा। बस-बस तुम्हारे सौन्दर्य से तिरस्कृत होकर चंद्रमा आकाश में पहुँच गया होगा। तो आकाश में चंद्रमा क्या किसी की सुन्दरता से शरमाकर गया है? कहा-नहीं। पर जब उत्प्रेक्षा की जाती है तो ऐसी चीज आती है।
प्राची दिशा, पूर्व दिशा तो दिशा है- यह कोई नायिका या कोई सुन्दरी नहीं है। लेकिन देवताओं की बोली में जब बोलते हैं तो प्राची दिशा में माने पूर्व दिशा इन्दु की पत्नी है और चंद्रमा जब उदय होते हैं तो रोज उसका मुँह लाल हो जाता है। तो कह रहे हैं कि चंद्रमा बड़ा सुन्दर है, बड़ा आह्लाददायी है, उसकी किरणों में बड़ी शीतलता है, और वह जब सायंकाल उदय होता है तो पूर्व दिशा के मुख पर रोली मल देता हैं।[1] रासलीला के दिन ऐसे ही हुआ। उस दिन तो चंद्रमा को सावधान रहना चाहिए था। बोले- सावधान ही था। कैसे? कि चंद्रमा ने सोचा कि श्रीकृष्ण को आज गोपियों के साथ रास करना है और हमें अपनी आह्लादिनी किरणों के द्वारा उनकी रासमण्डल में सेवा करनी है, तो कहीं चंद्रमा को देखकर श्रीकृष्ण सकुचा न जायें कि अपने वंश के आदि पुरुष के सामने हम रास कैसे करें।
इस संकोच को दूर करने के लिए स्वयं चंद्रमा ने मंगलाचरण किया कि अरे बाबा! जो तुम करने जा रहे हो वह हम भी करते हैं। इसके लिए चंद्रमा ने अपनी पत्नी प्राची के मुख पर अनुराग का रंग लगाकर श्रृंगार रस का सूत्रपात किया। जब बच्चों के सामने बड़े-बूढ़े हँसने लगते हैं तो बच्चों का जो डर-संकोच है, वह छूट जाता है। चंद्रवंश के आदि पुरुष चंद्रमा ने श्रीकृष्ण चंद्र से कहा बेटे, तुम संकोच मत करो, तुम पृथ्वी पर रास करो और हम आसमान में कर रहे हैं। इससे भी श्रीकृष्ण और चंद्रमा की एकता हो गयी।
चंद्रमा भी उडुराज हैं और श्रीकृष्ण भी उडुराज हैं- उरुषु गोपीजनेषु राजते इति उडुराजः बहुत सारी गोपीजनों में ये रास-विलास करते हैं। इसलिए कृष्ण उडुराज हैं। चंद्रमा पक्ष में प्राच्याः ककुभः, मुखं। प्राची दिशा का मुख-षष्ठ्यन्त प्रयोग है ककुभ का (ककुभ माने दिशा) और कृष्ण पक्ष में येन सुखने कौ पृथिव्यां भाति इति ककुभः प्रथमान्त प्रयोग है। तो तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं- श्रीकृष्ण लीला करने वाले हैं तो अपनी सेवा तो कर देनी चाहिए, इसलिए सब जगह अनुराग का रंग डाल-डाल करके अपनी शीतल शान्तिदायी किरणों से चंद्रमा ने प्राची के मुक को लाल कर दिया। माने देवी-देवता भी श्रीकृष्ण का विहार देखने के लिए अनुराग में डूब जाते थे। अब दूसरी बात- सचर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्। चर्षणयः प्रजाः। चंद्रमा जब उदय होता है तब लोगों का दिन भर का ताप शान्त हो जाता है। देखो आश्विन के महीना में दिन में खूब धूप पड़ती है, सूर्य भी अपना प्रकाश दिखाते हैं, आश्विन मास में बालार्कः तरुणायते।
बड़े-बूढ़े लोग भी, जब उनमें श्रृंगार का भाव उदय होता है, तो तन कर चलने लगते हैं। इसी प्रकार जब सूर्य कन्या राशि पर आता है तो तरुण हो जाता है। यह सूर्य का प्रताप नहीं है, यह कन्याराशि की महिमा है। तो सचर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्- सारी प्रजा का कष्ट दूर करते हुए, शोक दूर करते हुए, उनके आँसू पोंछते हुए, चंद्रमा पधारे। अब इसमें उपमा आती है- प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः जैसे कोई प्रिय, प्रियतम बहुत दिन से परदेश गया हो और लौटकर आवे-प्रियः प्रियाया इव और देखे- कि उसकी पत्नी की आँख से आँसू बह रहे हैं और वह अपने शीतल हाथों से स्वयं अपनी प्रिया के आँसू पोंछे, और आँसू ही न पोंछे उसके मुँह में रंग लगा दे, उसके साथ हास्य विनोद करने लग जाय।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे


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