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July 21, 2025 4:10 pm

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श्रीजगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान के अध्यक्ष श्रीमती अंजली नंदा जी तथा संस्थान के अन्य भक्त जनो सहीत श्री सुरेशभाई गुंडीचा मंदिर सभी ने संयुक्त रुप मेंउपस्थित रहकर श्रीमहेशभाई आगरीया को भगवान श्रीजगन्नाथ जी की मुल छबी भेट की ।

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!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर 53 – “जहाँ भूलना ही याद करना है” ): Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!-( प्रेम नगर 53 – “जहाँ भूलना ही याद करना है” ): Niru Ashra

!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!

( प्रेम नगर 53 – “जहाँ भूलना ही याद करना है” )

गतांक से आगे –

यत्र विस्मरणमेव स्मरणम् ।।

अर्थ – जहाँ ( प्रेम नगर में ) भूल जाना ही याद रखना है ।

*हे रसिकों ! प्रीतम के सिवा सब भूलने लगो तो समझना कि प्रीतम की याद में डूब रहे हो ।

प्रीतम की सेवा कैसी ? नित्य सेवा करते हैं …पहले उन्हें जगाना , फिर भोग , फिर स्नान , फिर आरती और इसके बाद स्तुति-पाठ आदि आदि । किन्तु ये क्रम तुम भूलने लगो ….तुम्हारा हृदय प्रेम-भाव से भर जाये …तुम्हें पूजा पाठ सब विस्मृत होने लगे …तब समझना तुम सही में अपने प्यारे को स्मरण कर रहे हो । एक बात बताओ ! ये स्थिति आयी है ? नही आयी तो आनी चाहिये ….उसकी याद ने इतना परेशान कर दिया …कि अब तो लगता है …उफ़ ! उसे भूल जायें …किन्तु भूलना क्या इतना आसान है ….और तुम जाओ किसी तांत्रिक के पास , तुम जाओ किसी ताबीज़ वाले के पास और उससे कहो …यार ! अब बस बहुत हो गया …..महीनों से सोये नही हैं …..रो रहे हैं ….कुछ करो – उसे भूल जायें ।

बस , इस स्थिति को ही प्रेमनगर में “याद करना” कहते हैं ।

कैसे याद करते हो तुम ? जैसे नित्य क्रिया हो ? जैसे कोई कर्मकाण्ड हो ? जैसे कोई बेगारी भर रहे हो ? अजी ! इसे याद कहाँ कहते हैं ? याद तो उसे कहते हैं जब तुम्हें लगे कि ऐसे ही चलता रहा तो पगला जायेंगे ! ऐसी स्थिति बनी रही तो …..रात में सोना नही , रोते रहना , हवा भी चले तो लगे कि …वो आया । पत्ता भी हिले तो लगे वो आया । और उठ उठ कर देख रहे हैं ….उफ़ ! और सब कुछ भूल गये …थोड़े बहुत जो याद भी थे उन्हें भी भूलने लगे हैं …..अब क्या करें ? बस , यही है सच्चा स्मरण । यही है सच्ची याद ।


भागवत में एक झाँकी है – उसका दर्शन करें ……..

धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने राज्य में भगवान श्रीकृष्ण को निमन्त्रण दिया …हे वासुदेव ! आप को आना ही होगा । महामन्त्री उद्धव ने भगवान श्रीकृष्ण को युधिष्ठिर का निमन्त्रण सुनाया । सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराये और निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया । धर्म के अवतार हैं युधिष्ठिर जी । भगवान श्रीकृष्ण जब उनके राज्य में जाते हैं ….तब पुष्पों की वर्षा होती है वहाँ के नरनारियों द्वारा ….सुन्दर मधुर वाद्य बजते हैं …सुनकर आनंदित हो जाते हैं भगवान श्रीकृष्ण ।

अपने भाई और भार्या द्रोपदी के सहित युधिष्ठिर श्रीकृष्ण का स्वागत करते हैं ….महल में बड़े प्रेम से लेकर आते हैं ….दिव्य सिंहासन में भगवान को विराजमान करते हैं ….और जब श्रीकृष्ण के मुखारविंद का दर्शन करते हैं ….तब ये सब कुछ भूल जाते हैं ….पहले जल से चरण धोना है …ये नियम है …..द्रोपदी जल की झारी लेकर खड़ी है ….किन्तु युधिष्ठिर भूल गये ….वो तो सबसे पहले मिष्ठान्न भोग लगाते हैं …..मुख में दे देते हैं ….द्रोपदी संकेत करती है …कि पहले चरण धोईए ….किन्तु महाराज युधिष्ठिर मिष्ठान्न भोग लगाने में ही आनंदित हैं ….तब द्रोपदी हंसते हुए कहती है …पहले चरण तो धोना था ….तब जल लेकर युधिष्ठिर महाराज भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को धोते हैं ….आरती करते हैं ….और आरती करते करते फिर भूल जाते हैं सब कुछ ….क्रिया-कर्मकाण्ड ….आरती की थाल सिर में रखकर नाचते हैं । पाण्डव जन देख रहे हैं …..वो सब समझ नही पा रहे कि धर्म के अवतार को आज हो क्या गया है ? नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े हैं ….आरती अर्जुन आदि भी करने के इच्छुक हैं ….किन्तु महाराज युधिष्ठिर को आज श्रीकृष्ण के सिवा सब कुछ विस्मृत हो गया है ….वो अपने भाइयों को ,अपनी भार्या को और अपने आपको भी भूल गये हैं । जय हो ।

हे रसिकों ! इस तरह भूलना ही सच्ची याद है । प्रेमनगर में इसे ही “याद” कहते हैं ।


अरी ! क्या हुआ तुझे , तू आँखें बन्दकर के क्यों बैठी है ?

माता पौर्णमासी यमुना स्नान करके जा रहीं थीं तो सामने देखा एक गोपी आँखें बन्दकर के बैठी है ….ये क्या है ? हंसी आयी पहले तो पौर्णमासी माता को । गोपी ध्यान में ? वो पास में गयीं और गोपी को झकझोरते हुए बोलीं …क्या हुआ तुझे , तू आँखें बन्दकर के क्यों बैठी है ?

वो गोपी उठी …माता को प्रणाम किया …फिर नयनों के अश्रुओं को पोंछते हुए उसने कहा ….माता ! दुखी हो गयीं हूँ ….दुखी कर दिया है उस नन्दनन्दन ने ….

पर ऐसा क्या हुआ ? माता पौर्णमासी ने पूछा ।

तो गोपी रोते हुए बोली …उस छलिया की याद …अब जीने भी नही देती ….मैं क्या बताऊँ माता ! हिलकियों से रोने लगी वो गोपी ….फिर अपने को सम्भालकर बोली ….गौ दुहने जाती हूँ ….लगता है वो आगया ….लगता है वो मेरे पीछे ही है …मुड़कर देखती हूँ ….तो दूध फैल जाता है ….घर वाले गाली देते हैं …..माता ! भोजन बनाने जाती हूँ …लगता है वो साथ में ही है …..भोजन बन नही पाता …परिवार के लोग फिर गाली देते हैं ….यमुना जल भरने आती हूँ तो वही दिखाई देता है …मटकी फूट जाती है …फिर परिवार वाले गाली देते हैं ….गोपी रो रही है ये बताते हुये ….मेरा जीवन तो बस ऐसे ही जा रहा है …उधर उसकी याद ….और इधर परिवार की गालियाँ ….क्या करूँ ? कुछ समझ नही पा रही थी ….कि तभी कल मुझे देवर्षि नारद जी मिले …वो किसी को ध्यान सिखा रहे थे ….मैंने भी उनसे पूछा ….इससे क्या होता है ? श्रीनारद जी ने कहा …इसे ध्यान कहते हैं ….इसके करने से मन शान्त हो जाता है ….मैंने तुरन्त माता ! उनसे प्रार्थना की …और कहा …मेरा भी मन अशान्त है ….मैं उस मन अशान्त करने वाले को भूलना चाहती हूँ …..क्या इस ध्यान से ये सम्भव होगा ? माता ! श्रीनारद जी ने मुझ से कहा …हाँ हाँ , बिल्कुल भूल जाओगी ….किन्तु तुम किसको भूलना चाहती हो ? गोपी ने कहा उसी को जिसने मेरे जीवन में अशान्ति भर दी है ….नारद जी ने फिर पूछा …किन्तु वो कौन है ? गोपी बोली …माता ! मैंने नारद जी को बताया …नन्दनन्दन । श्रीनारद जी आश्चर्य से मुझे देखते हुए बोले …तुम ध्यान करोगी श्रीकृष्ण को भूलने के लिए ? मैंने ‘हाँ’ कहा । तो नारद जी मुझे ध्यान सिखाकर चले गये किन्तु जाते जाते मुझे प्रणाम करके गये ….माता ! क्यों ?

गोपी के इस प्रश्न पर माता पौर्णमासी कुछ नही बोलीं ….किन्तु जाते जाते इन्होंने भी गोपी को प्रणाम ही किया ….और कहा …बड़े बड़े योगी ज्ञानी ध्यानी साधना करते हैं कि परात्पर श्रीकृष्ण हमारे मन में आमें ….हमारे हृदय में आमें ….किन्तु तुम तो गोपी , प्रेम के उस नगर में रहती हो ….जहाँ चाहती हो कि …उसे भूल जायें …वो याद न आए …किन्तु वो याद आरहा है ।

माता पौर्णमासी ये बोलते हुए गयीं ….कि धन्य हो तुम बृजनागरी ! यही भूलना सच्ची याद है ।

अरे वो क्या याद ! जो याद करना पड़े …याद तो ये है …जो न चाहने के बाद भी प्राणों को झकझोर कर रख दे । ओह !

हे रसिकों ! ये है प्रेमनगर । अपूर्व रस से भरा है ये “प्रेमपत्तनम्” ।

शेष अब कल –

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